Lok Sabha Election 2024 Views: लोकसभा चुनाव 2024 (Lok Sabha Chunav 2024) चल रहे हैं। चुनाव के साथ बहुत सी ऐसी गतिविधियां भी चल रही हैं जो सीधे तौर पर चुनावी नहीं लगतीं, लेकिन उन्हें चुनाव से अलग करके भी नहीं देखा जा रहा। इन घटनाओं को लेकर विशेषज्ञ क्या सोचते हैं? चुनावी संभावनाओं, सत्ता पक्ष और विपक्ष की चुनावी रणनीतियों पर देश के नामी-गिरामी विशेषज्ञ क्या सोचते हैं, वे भाजपा, एनडीए और कांग्रेस व इंडिया के सामने उपलब्ध अवसरों या चुनौतियों की विवेचना किस रूप में कर रहे हैं, इनकी झलक दिखलाने के लिए जनसत्ता.कॉम एक नया प्रयोग कर रहा है।
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एनडीटीवी के लिए भारती मिश्रा नाथ लिखती हैं कि बीजेपी गुजरात में साल 1995 से लगातार सात विधानसभा चुनाव जीत चुकी है और यह अपने आप में अविश्वसनीय है। उसके पास वर्तमान जनादेश साल 2027 तक है और तब उसे राज्य की सत्ता में 32 साल पूरे हो जाएंगे। इसके पीछे एक वजह यह है कि गुजरात में पाटीदार या पटेल समुदाय बीजेपी के प्रति समर्पित रहा है। साल 1980 में कांग्रेस के मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी ने जब क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम का गठजोड़ यानी खाम बनाया था और इसके बलबूते साल 1980 और 1985 में राज्य की सत्ता हासिल की थी। लेकिन इसके बाद पाटीदार कांग्रेस से नाराज हो गए और वह बीजेपी के साथ जुड़ गए। साल 1995 में राज्य में पहली बार बीजेपी की सरकार बनने के बाद से ही पाटीदार समुदाय बड़ी संख्या में बीजेपी के साथ जुड़ा हुआ है। हालांकि साल 2017 में हार्दिक पटेल के द्वारा आरक्षण आंदोलन किए जाने के बाद पटेल समुदाय के एक तबके ने बीजेपी से नाराजगी दिखाई थी और तब साल 2017 के विधानसभा चुनाव में इसका असर दिखाई दिया था और बीजेपी 99 सीटों पर आकर रुक गई थी। हालांकि अब हार्दिक पटेल बीजेपी के टिकट पर विधायक बन चुके हैं।
भारती मिश्रा नाथ लिखती हैं कि गुजरात में बीजेपी को अयोध्या आंदोलन के जरिए भी हिंदू मतों को अपने साथ लाने में मदद मिली। गुजरात में बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग और हिंदुत्व की विचारधारा से इसे आने वाले चुनावों में भी मदद मिलने की उम्मीद है।
कांग्रेस पार्टी को तेलंगाना में जीत की उम्मीद है, जहां उसने पिछले साल के अंत में राज्य चुनावों में बीआरएस को हराकर सरकार बनाई थी। तेलंगाना में अपनी संभावनाओं को लेकर कांग्रेस क्यों उत्साहित है? अमिताभ तिवारी का कहना है कि कांग्रेस सरकार ने अपनी छह चुनावी गारंटियों के कार्यान्वयन के लिए 53,196 करोड़ रुपये निर्धारित किए हैं। इसने छह में से चार को पहले ही लागू कर दिया है और बाकी को चरणबद्ध तरीके से लागू किया जाएगा। राहुल गांधी अन्य क्षेत्रों की तुलना में साउथ में अधिक लोकप्रिय हैं। आज, रेड्डी बीआरएस के के.चंद्रशेखर राव और किसी भी भाजपा नेता से आगे अब तक के सबसे लोकप्रिय स्थानीय नेता हैं। 2023 में बीआरएस के निराशाजनक प्रदर्शन ने पार्टी की कमजोरियों को उजागर कर दिया। दिल्ली में शराब घोटाले में केसीआर की बेटी के कविता की गिरफ्तारी से पार्टी की छवि खराब हुई है। वहीं, केसीआर की मनमानी और लोगों के बीच गैर मौजूदगी ने मतदाताओं के बीच उनके कद को और भी कम कर दिया है।
हिंदुस्तान टाइम्स के लिए लिखे गए अपने आर्टिकल में सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज में एसोसिएट प्रोफेसर हिलाल अहमद लिखते हैं कि 31 मार्च को दिल्ली में हुई रैली में इंडिया गठबंधन ने पहली बार सीट बंटवारे से अलग हटकर एक नई रणनीति पर काम किया। इस दौरान मंच पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल ने अपने पति की ओर से जारी किए गए पत्र को पढ़ा और इसमें आम आदमी पार्टी की ओर से दी गई 6 गारंटियों को जनता के सामने रखा। जबकि समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने पिछड़े दलित और अल्पसंख्यक यानी कि पीडीए की एकजुटता के बारे में बात की। रैली में यह प्रस्ताव सामने आया कि चुनाव आयोग को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि लोकसभा चुनाव के दौरान सभी राजनीतिक दलों के लिए लेवल प्लेइंग फील्ड हो। इसके अलावा यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि विपक्षी नेताओं को सरकारी एजेंसियों- ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स के द्वारा निशाना न बनाया जाए।
'द हिंदू' में एक लेख के जरिए शेखर मांडे ने पर्यावरण को संभावित खतरे को लेकर चेताया है और कहा है कि यह चुनाव प्रचार में एक मुद्दा होना चाहिए। Council of Scientific and Industrial Research के पूर्व डीजी और Department of Scientific and Industrial Research के पूर्व सचिव मांडे ने लिखा है-
यह वर्ष भारत सहित विश्व भर के कई देशों में चुनाव का वर्ष है। भारत में चुनावों के माहौल में उम्मीद है कि त्यौहार, टेलीविजन पर उत्साहित जनता, हर गली-चौराहे पर जोश, भरपूर बहस और चुनावों के नतीजों से ज़िंदगी में बदलाव आएगा। द
रअसल हर राजनैतिक पार्टी जो उम्मीद मतदाताओं के मन में बोती है और हर चुनाव में किये जाने वाले वादों से लोगों को चुनावों के नतीजों का बेसब्री से इंतज़ार रहता है। इसलिए, ग्लोबल क्लाइमेट की रिपोर्ट सही समय पर आई है जो राजनीतिक स्पेक्ट्रम में बहस की शुरुआत कर सकती है।
इस चुनावी मौसम में, डब्ल्यूएमओ की रिपोर्ट से न सिर्फ इंसानियत बल्कि राजनैतिक पार्टियों के लिए भी एक चेतावनी है। डब्ल्यूएमओ, संयुक्त राष्ट्र और वैज्ञानिक समुदाय द्वारा क्लाइमेट चेंज को लेकर जताई गई चिंता से सभी राजनैतिक पार्टियों को अपनी कार्ययोजना स्पष्ट करनी चाहिए। ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर राजनैतिक पार्टियों द्वारा लिया गया स्टैंड का लोग दिल से स्वागत करेंगे।
उदाहरण के लिए, राजनैतिक पार्टियों को चाहिए कि वो क्लाइमेट चेंज को लेकर लोगों में जागरूकता फैलाएं और ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए कदम उठाने की स्पष्ट रूप से रूप-रेखा बताएं। इन दोनों मुद्दों पर राजनैतिक मतभेद हो सकते हैं, लेकिन बड़ा जनहित यही है कि इन मुद्दों को उठाया जाए, ताकि मतदाता इन विचारों का मूल्यांकन कर सकें।
राजनैतिक पार्टियाँ शायद इस बात को भी स्पष्ट करना चाहेंगी कि वो भारत में ग्लोबल वार्मिंग के असर को कम करने के लिए क्या कदम उठाएँगी। अगर भारत चाहता है कि वो वैश्विक व्यवस्था में अपनी सही जगह बनाए और "अमृत काल" में उसे सच्ची वैश्विक शक्ति माना जाए, तो क्लाइमेट चेंज से जुड़े एक्शन पर नेतृत्व की मांग पर सबकी नज़र रहेगी। सभी राजनीतिक पार्टियाँ भारत की आर्थिक समृद्धि और उसके लोगों के अच्छे भविष्य के लिए एजेंडा ला रही हैं। ये एक ऐसा एजेंडा है जो क्लाइमेट चेंज पर कार्ययोजना के मूल मुद्दे को उठाए बिना अधूरा रहेगा।
31 मार्च को विपक्षी दलों ने लोकतंत्र बचाओ रैली आयोजित की थी। प्रोफेसर हिलाल अहमद ने इस बारे में लिखा कि इस रैली में एक बात जो सामने आई उसे मैं भारतीय राजनीति का धर्मीकरण कहता हूं। कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा ने अपने भाषण में भगवान राम और रावण के बीच के युद्ध का दिलचस्प अंदाज में इस्तेमाल किया। उन्होंने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि भगवान राम के पास धन, संसाधन और संस्थागत समर्थन नहीं था जबकि रावण राजनीतिक रूप से आधिकारिक और आर्थिक रूप से शक्तिशाली था। इस असंतुलन के बावजूद भगवान राम जीतने में सक्षम थे क्योंकि वह उचित कारण के लिए लड़ रहे थे। राजनीतिक मुद्दा उठाने के लिए एक संसाधन के रूप में रामायण का यह अलंकारिक इस्तेमाल महत्वपूर्ण है। प्रोफेसर का कहना है कि भाजपा ने सार्वजनिक जीवन में धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल को खुले तौर पर हिंदुत्ववादी दृष्टिकोण से सामान्य बना दिया है। वास्तव में, हिंदुत्व-संचालित राष्ट्रवाद भारतीय राजनीति के प्रमुख चुनावी नैरेटिव के रूप में उभरा है।
लोकसभा चुनाव-2024 के लिए बीजेपी का एक प्रमुख नारा ‘विकसित भारत-2047’ का होने जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार इस नारे पर फोकस कर रहे हैं और लोकसभा चुनाव के लिए शपथ पत्र जारी करने के लिए हुई बैठक में भी इस पर जो रहा। लेकिन, ICRIER (Indian Council for Research on International Economic Relations) के प्रोफेसर अशोक गुलाटी का सवाल है कि क्या विकसित भारत में देश के किसान भी समृद्ध होंगे? आंकड़ों के हवाले से उनका यह भी कहना है कि कृषि-जीडीपी वृद्धि के संबंध में मनमोहन सरकार हो या मोदी सरकार, दोनों का रिकॉर्ड लगभग बराबर ही रहा है।
प्रोफेसर गुलाटी की राय है कि कृषि क्षेत्र की मजबूती के बिना अगर विकसित भारत बना तो वह 25 फीसदी भारतीयों के लिए ही होगा। साथ ही, अगर कृषि क्षेत्र विकसित नहीं हुआ तो विकसित भारत का सपना कभी भी ढह सकता है। वह कहते हैं कि अगर दो साल लगातार अकाल पड़ जाए तो उसी में विकसित भारत की नींव हिल जाएगी।
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी द इडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि चुनाव आयोग में यह सिद्धांत हमेशा से रहा है कि अगर किसी बात के लिए चुनाव के खत्म होने तक इंतजार किया जा सकता है तो किया जाना चाहिए। हालांकि यह सवाल जरूर पूछा जाता है कि क्या इंतजार करने से किसी तरह का कोई बड़ा नुकसान तो नहीं होगा। दो ताजा मामलों में दो मुख्यमंत्रियों की गिरफ्तारी और आयकर विभाग के नोटिसों की बौछार के अलावा देश के मुख्य विपक्षी दल के अकाउंट्स को फ्रीज करना भी शामिल है, मुझे ऐसा नहीं लगता कि अगर चुनाव के अंत तक इंतजार किया जाता, तो किसी तरह का कोई ऐसा नुकसान होता जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती थी। जबकि इसके बिल्कुल उलट, इस मामले में प्रभावित दो राजनीतिक दलों के चुनाव अभियान पर शिकंजा कसकर उनका फिजिकली और फाइनेंशियली ऐसा नुकसान किया जा रहा है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती।
चुनाव आयोग के पूर्व महानिदेशक अक्षय राउत का मानना है कि चुनाव आयोग की विश्वसनीयत साबित करने की जिम्मेदारी आयोग पर आती है। उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा है-
देश की चुनावी प्रणाली के लिए चुनाव मशीनरी में विश्वास एक अहम आधार है। दुनिया के अन्य हिस्सों में चुनाव अधिकारियों को यह अदम्य विश्वसनीयता हासिल नहीं हुई है। पाकिस्तान में हाल ही में हुए विवादित राष्ट्रीय चुनाव इसका एक उदाहरण हैं। जब भारतीय चुनावों के नकारात्मक पहलुओं की गिनती की जाती है, तो यह काले धन, राजनीति में अपराधियों और हाल के दिनों में, मीडिया में भ्रष्टाचार और उन संदेशों की भूमिका की बात की जाती है जिनकी ज़ोर-शोर से चर्चा की जाती है। शीर्ष अदालत द्वारा चुनावी बांड में दानदाताओं और प्राप्तकर्ताओं का खुलासा, चुनावी फंडिंग में एक हद तक पारदर्शिता लाने में मदद करेगा। यह चुनावी ईमानदारी की एक आवश्यक जरूरत है। उम्मीदवार की पृष्ठभूमि पर कड़ी नजर बैलट बॉक्स की जगह ईवीएम के इस्तेमाल ने आपराधिक प्रभाव को कम कर दिया है। लेकिन दोनों मोर्चों पर अभी भी दूरी तय की जानी है।
चंडीगढ़ मेयर चुनाव में हाल ही में जो हुआ, हालांकि ECI के अधिकार क्षेत्र से बाहर था, वह एक झटका था। नतीजे को उलटने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश और चुनाव अधिकारी की कार्रवाई पर उसकी आलोचनात्मक टिप्पणियाँ समय पर सचेत करने वाली हैं।
स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने की ECI की प्रतिबद्धता चंडीगढ़ जैसे कांड के संक्रमण से अपने विशाल कार्यबल को बचाए रखने के विश्वास पर आधारित है। यह विश्वास किसी एक के आने से न आता है और न किसी एक के जाने से जाता है।
द इंडियन एक्सप्रेस में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने लिखा है- मई 2012 की बात है। गोवा में उपचुनाव होना था। आदर्श आचार संहिता लागू हो चुका था। उसी दौरान चुनाव आयोग को सूचना मिली कि मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर 2 जून 2012 को होने वाले उपचुनाव से पहले एक संभावित उम्मीदवार को मंत्रिपरिषद में शामिल करने की योजना बना रहे हैं।
अब चुनाव आयोग से शिकायत की गई कि अगर ऐसा होता है तो सभी उम्मीदवारों के लिए चुनावी मैदान बराबर नहीं रह जाएगा क्योंकि मतदाता नए मंत्री के पक्ष में चले जाएंगे।
मामले पर संज्ञान लेते हुए चुनाव आयुक्त ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर को विचार करने के लिए एक संदेश भेजा। मुख्यमंत्री उत्तेजित हो गए और मुझे यह कहने के लिए बुलाया कि उन्हें अपनी पसंद के समय पर अपनी मंत्रिपरिषद का गठन या विस्तार करने का संवैधानिक अधिकार है। मैंने स्पष्ट किया कि वास्तव में उन्हें ऐसा करने का पूरा संवैधानिक अधिकार है। साथ ही, मैंने यह बात भी जोड़ी कि उन्हें चुनाव आयोग की तरफ से सिर्फ सलाह दी गई है।
हालांकि, उन्होंने न केवल सलाह स्वीकार की और मंत्री को शामिल करने को टाल दिया बल्कि यह भी कहा कि वह आदर्श आचार संहिता के नैतिक अधिकार के सामने झुकते हैं, जिसे उनके संवैधानिक अधिकार पर प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
गुजरात के राजकोट में एक चुनाव प्रचार भाषण के दौरान, केंद्रीय मंत्री और राजकोट भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार पुरषोत्तम रूपाला ने दलितों की प्रशंसा की थी, जिससे क्षत्रियों और राजपूतों के बीच आक्रोश फैल गया और राजपूतों ने विरोध करना शुरू कर दिया। जिसके बाद रूपाला ने दो बार माफी मांगी लेकिन माफी से समुदाय पर कोई असर नहीं पड़ा। हालांकि, इससे भाजपा या रूपाला के लिए चुनावी तौर पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है। फिर भी सत्तारूढ़ पार्टी नेतृत्व के लिए यह बुद्धिमानी होगी कि वह इस बात पर ध्यान दे कि केवल पटेल, ब्राह्मण या बनिया जैसे मुट्ठी भर समुदाय ही क्यों राज्य सरकार या केंद्र में बड़ा हिस्सा हासिल करते हैं जबकि क्षत्रिय, अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति सहित अन्य समुदाय हाशिये पर रहते हैं।
NDTV में भारती मिश्रा नाथ ने लिखा है- चुनाव अभियान के दौरान भारतीय राजनीति में राजनीतिक सलाहकारों की मांग बढ़ जाती है। देश में चुनाव लड़ने वाले औसत उम्मीदवारों के धनवान होने की स्थिति में ऐसे सलाहकारों की मांग में वृद्धि होना सामान्य है।
हालांकि भारती मिश्रा नाथ 'Rajneethi Political Management Consultants' के चीफ रिलेशनशिप अधिकारी विजय राव के हवाले से लिखती हैं कि ऐसे सलाहकार बैकरूम तक ही सीमित हैं। शायद ही कोई पार्टी या उम्मीदवार उनके योगदान को स्पष्ट रूप से स्वीकार करता हो। राजनेता खुद को एक ब्रांड के रूप में देखते हैं, और आमतौर पर अपनी जीत का श्रेय साझा करने से बचते हैं।
The Times of India में नंदिनी सेनगुप्ता ने लिखा है- अपने मुख्यमंत्री पतियों की गिरफ्तारी काविरोध करने के लिए जब कल्पना सोरेन और सुनीता केजरीवाल पहली बार राजनीतिक अवतार में कैमरों के सामने आईं (फ़रवरी के शुरू में कल्पना और मार्च में सुनीता) तो कुछ ही मिनटों में उनकी अवमानना करने वाले सामने आ निकले। कहा गया कि ये पत्नियां 'मुख्यमंत्री पद के लिए लालायित हैं', 'दूसरी राबड़ीदेवी बनना चाहती हैं...आदि।
48 की कल्पना और 58 की सुनीता इन बातों से अविचलित रहीं। राजधानी के रामलीला मैदान में रविवार को विपक्षी रैली में, दोनों ने स्टेज पर बिना डरे भीड़ को सम्बोधित किया। ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को पॉलिटिक्स की तरफ़ आते हुए देखना प्रोत्साहित करने वाला है। संसद में कम संख्या में महिलाएं हैं। पर उन्होंने भारत को एक बड़ा कदम बढ़ाने में बहुत मदद कीहै।
दैनिक भास्कर में लिखे लेख में आरती जे. तीरथ ने इस बात पर जोर दिया है कि चुनाव निष्पक्ष तो होने ही चाहिए, दिखने भी चाहिए। उन्होंने लिखा है:
आज, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप हैं, जिनका प्रमाणित होना बाकी है। कांग्रेस, जो सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है, करोड़ों रुपये के बकाया करों के नोटिस की शृंखला के कारण कमजोर पड़ रही है। राहुल गांधी को भी चुनाव लड़ने के लिए पैसे नहीं हैं, यह कहा जा रहा है। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) विपक्षी उम्मीदवारों के खिलाफ मामले दर्ज कर रहा है, हालांकि चुनाव प्रक्रिया प्रभावी हो रही है। वे लोग जो भाजपा से जुड़ गए हैं, जैसे कि राकांपा के अजित पवार गुट के प्रफुल्ल पटेल, उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले को सीबीआई ने हटा दिया है। चुनाव न केवल निष्पक्ष होने चाहिए बल्कि निष्पक्ष भी लगनी चाहिए। लोकतंत्रिक चुनावों का महत्व समान अवसर प्रदान करने में है। हमें सावधान रहना चाहिए कि हम बांग्लादेश और पाकिस्तान की तरह नहीं चलें, जहां प्रमुख विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया जाता है और चुनावी लड़ाई को एकतरफा बना दिया जाता है।
इंडियन एक्सप्रेस में गिरीश कुबेर (लोकसत्ता के संपादक) महाराष्ट्र में भाजपा की चुनावी चुनौतियों के बारे में लिखते हैं:
महाराष्ट्र में बीजेपी की मुश्किल यह है कि वह राजनीतिक आग बुझाने की जितनी कोशिश कर रही है, उससे आग शांत होने के बजाय धधक ही रही है। पहले उसे एक पवार या एक ठाकरे से ही निपटना होता था। अब दो पवार, एक शिंंदे, दो ठाकरे (उद्धव और राज) और कई छोटे-छोटे समूहों से निपटना है। वह किसी की अनदेखी नहीं कर सकती। राज्य में राजनीतिक हालात ही ऐसे हैं। महाराष्ट्र में एक पार्टी के वर्चस्व का जमाना खत्म हो चुका है। दो भी काफी नहीं हैं और तीन भी हो जाए तो उसे जमघट नहीं कह सकते।
फिलहाल राज्य में दो शिवसेना, दो एनसीपी, आधी एमएनएस, केवल विदर्भ तक सीमित प्रकाश आंबेडकर का संगठन, असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम, एक कांग्रेस और बीजेपी सक्रिय हैं।
पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने 'द इंडियन एक्सप्रेस' में लिखा है कि मौजूदा माहौल में चुनाव आयोग के सामने यह सबसे बड़ी दुविधा हो सकती है कि वह पूरी तरह किताबी नियमों का पालन करे या फिर स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने की अपनी एक मात्र जिम्मेदारी का निर्वहन करे। कानूनी किताब में 'स्वतंत्र व निष्पक्ष' चुनाव जैसा कोई टर्म नहीं लिखा है। लेकिन, मौजूदा माहौल में चुनाव आयोग को उन तथ्यों और परिस्थितियों की जांच करनी चाहिए जिससे ये शिकायतें आईं कि सभी पार्टियों के लिए चुनावी मैदान में एक समान अवसर उपलब्ध नहीं हैं।
लवासा ने आयोग को याद दिलाते हुए लिखा है- जैसे 2019 में राजस्व खुफिया विभाग (डीआरआई) को चुनाव आयोग ने एडवाइजरी जारी की थी उसी तरह आयोग को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा अभूतपूर्व कार्रवाईयों की श्रृंखला किसी "स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवहार" का उल्लंघन करती है या नहीं। ईसी की दुविधा यह होगी कि वह किताब के अनुसार चले या "स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव" आयोजित करने की अपनी एकमात्र जिम्मेदारी के लिए नई पटकथा लिखे। "स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव" शब्द का संविधान में उल्लेख नहीं है, लेकिन "सभी चुनावों के संचालन की निगरानी, निर्देशन और नियंत्रण" की भावना में यह निहित है। आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) भी जितना इसे समझा जाता है उससे कहीं आगे है। इसमें निष्पक्षता की भावना शामिल है जिसे पूरी तरह से समझने और दृढ़ता से लागू करने की आवश्यकता है। पढ़ें पूरा लेख-
LokSabha Elections 2024 को लेकर देश के बड़े अखबारों (The Indian Express, The Times of India, The Hindu, The Hindustan Times, Dainik Bhaskar, Dainik Jagran और AajTak, NDTV आदि चैनलों पर नामी-गिरामी विशेषज्ञों की राय यहां हम लगातार अपडेट करते रहेंगे।