एक लोकतांत्रिक समाज में जनता की आशा-आकांक्षा का केंद्र संसद और विधानसभा ही होती है। सदन सुचारु रूप से चले और भाषा और आचरण की गरिमा के साथ सार्थक विचार-विमर्श हो, ऐसी स्वाभाविक अपेक्षा सामान्यजन की रहती है। सत्तापक्ष, विपक्ष और सभी जनप्रतिनिधियों की सामूहिक इच्छाशक्ति के बगैर इस आकांक्षा की पूर्ति संभव नहीं हो सकती है। लेकिन सदन में चर्चा के दौरान सदस्यों की कम उपस्थिति क्या संकेत देती है?

लोककल्याण के ऐजेंडे सदन से लगातार सिमटते जा रहे हैं और ऐसा लगने लगा है कि फिजूल के मसलों को अहम बनाने में हमारी व्यवस्था सिद्धहस्त हो गई है। मीडिया का बड़ा हिस्सा भी इसमें सहयोगी की भूमिका निभाता दिखाई देता है। आखिर क्या कारण है कि कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश में ढाई दशक में तीन लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या का मुद्दा इतनी प्रबलता से सदन में चर्चा का विषय नहीं बनता है? इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जितना स्थान शीना बोरा हत्या प्रकरण के चटखारे को दिया जाता है उसके मुकाबले किसान आत्महत्याओं को कितना स्थान दिया गया है?

देश में रोजगारहीन विकास के चलते कुल कार्यबल के तीस प्रतिशत लोग बेकारी के शिकार हैं। दूसरी ओर रोजगार प्राप्त युवाओं की कोई सेवा शर्तें नहीं हैं, उनके लिए कार्यालयी समय की कोई सीमा नहीं है, अवकाश और अन्य सुविधाओं में भारी मनमानी के चलते ये दबाव और तनाव में कार्य करने को विवश हैं। रोजगार की गरज के कारण अपना कोई संगठन न बना पाने के कारण इनकी कोई आवाज नहीं है। लोगों को पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है, स्वच्छ भारत अभियान का मखौल यत्र-तत्र पसरी गंदगी के ढेर उड़ा रहे हैं। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा मध्यवर्ग के लिए दुष्कर हो गई है, निम्न वर्ग के लिए तो दिवास्वप्न ही है।

इतनी विकट स्थितियों में 2014-15 की तुलना में 2015-16 के बजट में स्वास्थ्य में 5510 करोड़, शिक्षा में 12790 करोड़, महिला और बाल विकास 9863 करोड़, पेयजल 8391 करोड़, कृषि विकास 5454 करोड़, सिंचाई 7992 करोड़, इंदिरा आवास 5976 करोड़ और राज्यों को सहायता 134521 करोड़ कम आवंटित की गई है। साथ ही सामान्यजन पर 23383 करोड़ रुपए के अप्रत्यक्ष कर लगाए गए हैं, जबकि कारपोरेट टेक्स की दर 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत कर दी गई है और कारपोरेट सब्सिडी को बढ़ा कर 589285 करोड़ कर दिया गया है।

बजट के अतिरिक्त स्वच्छता उपकर, सेवा उपकर और रेल रिजर्वेशन कैसेलेशन दरों में वृद्धि करके जनता पर अनावश्यक बोझ बढ़ा दिया गया है। महंगाई चरम पर है, तुअर की दाल दो सौ रुपएप्रतिकिलो के स्तर को छूकर दाल-रोटी के मुहावरे के लिए चुनौती बन गई है। भूख, गरीबी, बेकारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, किसान आत्महत्या आदि के सवाल संसद की बहस में कब आऐंगे? इन परिस्थितियों में क्या स्मार्ट सिटी, मेट्रो ट्रेन, बुलेट ट्रेन देश की प्राथमिकता हो सकती हैं? क्या विकास वृद्धि दर ही देश को महाशक्ति बना देगी? क्या देश की प्राथमिकताओं पर चर्चा/ बहस संसद की प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए? संसद और जनप्रतिनिधि देश की जनता की मूलभूत आवश्यकताओं के सवाल के प्रति जवाबदेह हैं कि नहीं? (सुरेश उपाध्याय, गीता नगर, इंदौर)

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खतरे की दस्तक
तमिलनाडु में अप्रत्याशित भारी बारिश से हाहाकार मच गया। बारिश के कारण हवाई अड्डा बंद हो जाए, रेलगाड़ियां न चलें, सड़क परिवगन पूरी तरह ठप हो जाए, अस्पताल में बिजली सप्लाई न हो पाने से दर्जनों मरीज बेमौत मारे जाएं और अखबार तक न छप पाएं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि हालात कितने खराब थे। सैकड़ों लोगों को लील जाने वाली यह आपदा बेमौसम और अनपेक्षित रूप से नहीं आई है। बारीकी से देखें तो समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि यह जलवायु चक्र के गड़बड़ाने का नतीजा है। इतनी भारी बारिश से साफ है कि जलवायु परिवर्तन दूर भविष्य का खतरा नहीं रहा, बल्कि उसके दुष्परिणाम छोटे-छोटे अंतराल में हम भुगत रहे हैं। (शुभम सोनी इछावर, मध्यप्रदेश)

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कितना इंतजार
सन 1984 का दिल्ली दंगा हो या भोपाल गैस कांड, 31 साल बाद भी इनके पीड़ितों को न्याय नहीं मिल सका और कुछ अपराधी मर गए तो कुछ मस्त होकर घूम रहे हैं। केंद्र हो या राज्य, अनेक सरकारें आर्इं और चली गर्इं, लेकिन जांच का परिणाम शून्य ही रहा। यदि सरकारें गंभीर होतीं तो निश्चित रूप से आज 31 साल बाद जांच की आवश्यकता ही नहीं होती। आखिर पीड़ित लोग कितनी और जांचों का इंतजार करेंगे?

पाकिस्तान में पेशावर के स्कूल में हुए नरसंहार के चार अभियुक्तों को फांसी की सजा ही नहीं, फांसी भी हो गई और हम सालों तक इंतजार करते रहते हैं। ये सब काम वर्षों में नहीं, चंद महीनों में जब तक नहीं होंगे तब तक अपराधी पैदा होते रहेंगे। जिस जांच में जितनी देरी, उतनी ही सजा की संभावना कम। 1984 के दंगों की अब जांच कब होगी, कब रिपोर्ट आएगी, कब चार्जशीट, कब मुकदमा और कब सजा होगी? लगता है, ललित नारायण मिश्र हत्याकांड वाला चार दशक का रिकॉर्ड भी टूट जाएगा और अनेक अपराधी और पीड़ित लोग स्वत: जीवन मुक्त हो चुके होंगे। (यश वीर आर्य, दिल्ली)

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यह सुझाव
दिल्ली सरकार ने प्रदूषण रोकने के लिए फैसला किया है कि आगामी एक जनवरी से निजी वाहन सम विषम के हिसाब से चलेंगे। इससे हर वाहन हर माह महज पंद्रह दिन चल पाएगा। प्रदूषण रोकने के लिए कड़े उपाय आवश्यक हैं पर वाहन प्रयोग में 50 फीसद कटौती तो बहुत ज्यादा है। हर नागरिक कुछ बंधन तो सह लेता है पर ज्यादा बंधन होने से बंधन तोड़ने को उतारू रहता है। वाहन प्रयोग में शुरू में दस फीसद कटौती उचित है और इसके लिए यह फार्मूला अपनाया जा सकता है: वाहन के क्रमांक में अंत में जो अंक हो उसी तारीख को वह वाहन चलाना बंद किया जाए। मसलन, वाहन क्रमांक 4321 हो तो वह 1, 11 और 21 तारीख को न चलाया जाए। वाहन क्रमांक 4567 हो तो वह 7, 17 और 27 तारीख को घर से बाहर न निकाले। इससे जनता को ज्यादा कष्ट नहीं होगा। (जीवन मित्तल, मोती नगर, दिल्ली)