वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री की महत्त्वाकांक्षी परियोजना को पूरा करने के लिए सारे नियम कायदों को ताक पर रख आॅल वेदर रोड पर काम शुरू हुआ था। इसमें डेढ़ सौ किलोमीटर टनकपुर-पिथौरागढ़ नेशनल हाइवे भी शामिल था। पहाड़ न दरकें, इसके लिए पत्थर लगा कर पहाड़ों पर बाड़ बनाई गई, जाल बांध कर सरिये लगाए गए और पहाड़ों को रोकने की ‘रॉक ट्रीटमेंट’ योजना चली। सड़क की चौड़ाई दस मीटर से अधिक ही रखी गई थी।
इस सड़क से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को देखते सुप्रीम कोर्ट ने एक उच्चस्तरीय गठित की, जिसके अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने अपनी रिपोर्ट में सड़क की चौड़ाई बारह मीटर रखना ठीक नहीं बताया था और इसे सिर्फ साढे पांच मीटर तक ही रखने की सिफारिश की थी। पर महत्त्वाकांक्षी सत्ता के आगे सब बौने पड़ गए।और सड़क इस बार हफ्तेभर से भी ज्यादा समय से बंद पड़ी है। टनकपुर से चंपावत की दूरी मात्र सत्तर किलोमीटर है, पर सड़क बंद होने की वजह से रीठासाहिब से होता यह सफर एक सौ चालीस किलोमीटर का बन गया है, जिसमें बीस-तीस किलोमीटर कच्ची सड़क है। हैरानी की बात तो यह है कि क्षेत्रीय समाचार पत्रों को मुख्यमंत्री के प्रस्तावित टनकपुर दौरे में अधिकारियों के सुगम मार्ग से समय पर पहुंचने की चिंता तो सता रही है लेकिन उन्हें मुसीबत में पड़े आम जन की कोई फिक्र नहीं है।
पानी पोस्ट पर हिमालय के बारे में एक रिपोर्ट देखने को मिली, जिससे हिमालय पर हो रहे निर्माण कार्यों से होने वाले नुकसान की गंभीरता को समझा जा सकता है। हिमालय के दो ढाल हैं: उत्तरी और दक्षिणी। दक्षिणी में भारत, नेपाल, भूटान हैं। उत्तराखंड को सामने रख हम दक्षिणी हिमालय को समझ सकते हैं। उत्तराखंड की पर्वत शृृंखलाओं के तीन स्तर हैं- शिवालिक, उसके ऊपर लघु हिमाल और उसके ऊपर ग्रेट हिमालय। इन तीन स्तरों मे सबसे अधिक संवेदनशील ग्रेट हिमालय और मध्य हिमालय की मिलान पट्टी हैं। इस संवेदनशीलता की वजह इस मिलान पट्टी में मौजूद गहरी दरारें हैं। बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामबाड़ा, गौरीकुण्ड, गुप्तकाशी, पिंडारी नदी मार्ग, गौरी गंगा और काली नदी के सभी इलाके दरारयुक्त हैं। यहां भूस्खलन होते रहना स्वाभाविक घटना है। किंतु इसकी परवाह किए बगैर निर्माण को स्वाभाविक कहना नासमझी ही कही जाएगी। इसलिए यह बात समझ लेना जरूरी है कि मलवे या सड़कों में यदि पानी रिसेगा, तो बड़े हादसों को कोई नहीं रोक पाएगा।
’हिमांशु जोशी, चंपावत, उत्तराखंड
आरक्षण की राजनीति
यदि सियासी दल वास्तव में जातीय आधार पर पिछड़ों को लाभ पहुंचाना चाहते तो पूर्व में हुई जनगणनाओं में ही इन्हें जोड़ लिया जाता क्योंकि सत्ता में दोनों दल रहे हैं। हकीकत यह है कि पिछड़ों की जनगणना के बिना इनके आरक्षण पर चर्चा केवल इनके साथ खिलवाड़ होगा। पिछड़ों की गणना पर भाजपा असमंजस में है और विपक्षी दल अब समर्थन में हैं। उल्लेखनीय है कि देश में नौकरियां महज तीन फीसद हैं और आरक्षण को 14 फीसद से 27 फीसद बढ़ाने पर जम कर सियासत हो रही है।
सियासी दलों में चर्चा जोरों पर है कि कोर्ट में बड़े वकीलों को खड़ा करेंगे। समस्त अदालतों में विचाराधीन आरक्षण मामलों में कशमकश के बावजूद असमंजस कायम है क्योंकि पिछड़े वर्ग के आरक्षण में की गई प्रतिशत में वृद्धि सांविधिक है न कि संवैधानिक और पिछडों में ऐसे परिवार बहुत हैं जो अगड़ों से भी आगे हैं। असमंजस तो इस पर भी है कि ‘जाति’ या ‘वर्ग’ दोनों में से किस आधार पर आरक्षण दिया जाए?
आरक्षण के नाम पर जो कुछ चल रहा है, उसका मकसद पिछड़ों की आड़ में सियासी हितों को साधना ही है। हालांकि केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को प्रदेशों में पिछड़े वर्ग की जनगणना की छूट दे दी है, फिर भी पिछड़ी जाति की जनगणना औचित्यपूर्ण होकर भी औचित्यहीन साबित होगी, क्योंकि सियासी ऊंट कब किस करवट बैठ जाए, कहा नहीं जा सकता।
’बीएल शर्मा, तराना, उज्जैन