‘हताशा की लपटें’ (संपादकीय, 18 अगस्त) पढ़ा। ऐसा लगता है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में कानून संबंधी आदर्श बातें व्यवहार में शायद केवल कानून की किताबों और संविधान तक ही सीमित हैं। इस देश, यहां के समाज और जमीनी धरातल और हकीकत में कानूनी समदर्शिता, न्याय, नैतिकता, प्राकृतिक विधि या समता आदि उच्च आदर्श की परिकल्पनाएं एक दु:स्वप्न सरीखी हैं। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर एक युगल की आत्मदाह की घटना और उसके कारणों के ब्योरे ने बहुत कुछ साफ किया। पुलिस में शिकायत के बावजूद आमतौर पर जैसा होता है, बलात्कार पीड़िता और उसका मित्र हर जगह से निराश और परेशान हो गए। खबरों के मुताबिक उलटे उसी के खिलाफ केस बना कर उसे परेशान किया जाने लगा! नतीजा सबके सामने है।

यह कठोर सच है कि गरीब और कमजोर लोगों को न्याय न मिलना एक सामान्य-सी घटना बनती जा रही है! लेकिन इस मामले में पूरे देश में उत्तर प्रदेश ज्यादा ही जाना जाने लगा है। इस तरह की घटनाएं राज्य में पूर्व में भी कई बार हो चुकीं हैं, लेकिन जो घटनाएं मीडिया में अपना स्थान बना पातीं हैं, उन्हीं को लोग जान पाते हैं। इस तरह अपनी जान देने वाले निराश लोगों की एक ही शिकायत रहती है कि पुलिस, वहां का प्रशासनिक अमला और सरकारें भुक्तभोगियों की बिल्कुल मदद नहीं करतीं। उनकी शिकायत तक दर्ज नहीं की जातीं, उल्टा उन पर ही फर्जी अनपेक्षित आरोप लगा कर उन्हें ही प्रताड़ित किया जाता है और मुख्य अपराधियों को बचाया जाता है!

सबसे दुखद स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश के अनेक जिला प्रशासन के भवनों, लखनऊ विधानसभा भवन और अब सुप्रीम कोर्ट के सामने न्याय न मिलने के कारण युवक-युवतियों द्वारा आग लगा कर जान देने या इसकी कोशिश की घटनाओं के बावजूद भारतीय पुलिस और न्यायिक प्रणाली अपनी कार्यप्रणाली का पुनरावलोकन करने, उसकी पुनर्समीक्षा करने और उसमें सुधार लाने को कतई राजी नहीं है! ऐसी लगातार घटनाओं के बाद भी सब कुछ ज्यों का त्यों चल रहा है।

आखिर हमारे देश में न्याय पर सत्ताधारी वर्ग, पैसे और रसूखवालों, माफियाओं का ही राज क्यों है? एक गरीब की सरेआम हत्या होने के बावजूद हमारा तंत्र और प्रशासन इतना लचर और निष्क्रिय क्यों बना रहता है? हमारी न्यायिक व्यवस्था का झुकाव गरीबों के विरुद्ध धनी और ताकतवर लोगों की तरफ ही क्यों बना रहता है? यह कैसा लोकतंत्र है, जिसमें गरीबों को न्याय पाने से बिल्कुल वंचित रखा जा रहा है? ब्रिटिश काल से चली आ रही पुलिस और न्यायिक प्रणाली की पुनर्समीक्षा होनी चाहिए और इसमें वर्तमान समय के अनुसार आमूल-चूल परिवर्तन होनी ही चाहिए।
’निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद, उप्र