मद्यपान को लेकर इस देश में उतनी ही वैचारिक विविधता है जितना विविध यह देश। कोई तबका इसे बुरा मानता है तो कोई इसे अपनी खास जीवनशैली का प्रतीक। जबरन शराबबंदी को दुनिया भर में कहीं भी कारगर नहीं माना गया है। बिहार में शराबबंदी को महिलाओं की चलाई गई मुहिम की जीत माना जा रहा था, लेकिन आज वहीं जहरीली शराब पीने से हुई मौतों पर चीत्कार है। शराबबंदी कानून को लेकर बिहार में लगभग दो लाख मामले दर्ज हैं। इस कानून के तहत जेलों में बंद ज्यादातर लोग कमजोर तबके के हैं। ये वे लोग हैं जो अवैध तरीके से उपभोक्ताओं तक माल पहुंचाने का काम करते रहे हैं। बिहार सरकार ने शराब की वैध बिक्री से होने वाले राजस्व के रास्ते तो बंद कर दिए, लेकिन इसकी कालाबाजारी पर कोई शिकंजा नहीं कस सकी। अब सहयोगी पार्टी भाजपा भी नीतीश कुमार के इस फैसले पर सवाल उठा रही है। बिहार में ‘मधुताला’ पर बेबाक बोल

जाहिद शराब पीने से
काफिर हुआ मैं क्यूं
क्या डेढ़ चुल्लू पानी में
ईमान बह गया
-शेख इब्राहीम जौक
वो मेरे पिताजी को पकड़ कर ले गए हैं। मैं पुलिस वाले से विनती कर रहा हूं कि उन्हें मारो-पीटो जो करो लेकिन ये तो पता लगाओ कि उन्हें शराब मिली कहां से…दीपावली के बाद से बिहार में जहरीली शराब पीने के कारण 34 से ज्यादा लोगों की मौत के बाद इंटरनेट पर बिहार में शराबबंदी की नाकामी के वीडियो वायरल हैं।

वीडियो, अखबारों और अन्य मीडिया में वहां की खबरों तथा तस्वीरों को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह कौन तबका है जो जहरीली शराब से मारा जा रहा है। बिहार में जहरीली शराब से मरने वालों में सेना के दो जवान भी शामिल हैं।

भारतीय समाज में शराब को लेकर उतनी ही वैचारिक विविधता है जितना विविध यह देश। एक राज्य में शराब बंद है तो दूसरे राज्य में सरकार खुद ही शराब की गृह आपूर्ति की आबकारी नीति बना रही है। एक राज्य की सीमा लांघते ही शराब पीना जुर्म नहीं रह जाता है। सामंती व्यवस्था की तरह इसे मर्द और औरत के खांचे में भी विभाजित किया गया है।

कहीं औरतों के लिए अलग से शराब विक्रय केंद्र बनाए जा रहे हैं, तो कहीं औरतों का आरोप है कि मर्द शराब पीकर उनके साथ हिंसा करते हैं। देश के ढांचे में शराब को लेकर कोई सर्वमान्य अच्छा या बुरा का तर्क नहीं दिया जा सकता है। ऐसे माहौल में किसी प्रदेश में शराबबंदी के सबसे बुरे असर के रूप में उसकी बिक्री और अवैध निर्माण शुरू हो जाते हैं।

इसका गुणवत्ता पर भी असर होता है। समाज में एक तबका वैध रूप से शराब पी रहा है तो दूसरे तबके तक आप उसकी अवैध पहुंच को रोक नहीं सकते हैं। मुनाफा तो बाजार की धुरी है। जहां मुनाफा होगा, जिसका बाजार होगा, उपभोक्ता की इच्छा होगी तो आप उसे नियंत्रित कर सकते हैं, लेकिन बंद नहीं कर सकते हैं। जो बंद नहीं हो पाएगा वो भ्रष्टाचार के रूप में सामने आएगा यानी अवैध शराब के साथ मौत भी सामने आएगी।

बिहार में महिलाओं ने शराबखोरी के खिलाफ लंबी मुहिम छेड़ रखी थी। उनका आरोप था कि पुरुष शराब पीने के कारण घरेलू हिंसा करते हैं और आर्थिक रूप से तबाह कर देते हैं। कई तरह की सामाजिक संस्थाएं इस आंदोलन से जुड़ीं, जिनकी अगुआई में महिलाओं का जत्था जाकर शराब की भट्टियों को तोड़ता था। गांवों की चौपालों पर महिलाओं की मंडली शराब की बिक्री रुकवाने के खिलाफ रणनीति बनाती थीं। इस आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाने के अगुआ बने नीतीश कुमार और 2016 में बिहार सरकार ने शराबबंदी लागू की।

नीतीश कुमार की सरकार ने शराबबंदी को एक बड़े सामाजिक सुधार की तरह प्रचारित किया था। तब इसे महिलाओं का भरपूर समर्थन भी मिला था। हमारी सरकारें यह बखूबी जानती हैं कि कोई भी सामाजिक सुधार सिर्फ पुलिस और थानों के भरोसे नहीं चल सकता है। इसके लिए संस्थागत स्तर पर बहुस्तरीय चरण में काम करना होता है। लेकिन बिहार में शराबबंदी को पूरी तरह पुलिसिया मामला बना दिया गया। इसके लिए सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर कुछ भी नहीं किया गया। नतीजा यह है कि गोपालगंज से लेकर सीवान और बेतिया तक महिलाओं की चीख गूंज रही थी। वे अपने पति के शवों पर चीत्कार कर रही थीं। जो अस्पताल में भर्ती हैं, उनके परिजन अच्छे इलाज के लिए भटक रहे हैं।

महिलाओं की एक जीती हुई मुहिम क्या उनकी हार के रूप में देखी जाएगी? यह सवाल इसलिए कि चुनावी सभाओं में सामाजिक सुधार की बात करने वाली सरकार ने सुधार की दरकार वाले कोई कदम नहीं उठाए। औरतों का आरोप था कि उनके पति शराब पीने के बाद उन्हें मारते हैं। आखिर शराब पीने के बाद मर्द बीवी और बच्चों को ही क्यों मारता है।

अपवाद को छोड़ दें तो वह नशे में किसी पुलिसवाले को क्यों नहीं मारता या अपने मालिक पर हाथ क्यों नहीं उठाता। अगर शराब पीकर पहली बार बीवी को मारने के कारण उसे कानून सम्मत सजा मिल जाती तो शायद वह दूसरी बार नशे में भी बीवी को नहीं मारता। किसी और जगह कोई आदमी शराब पीने के बाद अपनी पत्नी या किसी से मारपीट करता है तो वह घरेलू हिंसा या अन्य अपराध की धाराओं में जेल जाएगा, शराब खरीदने या बेचने की वजह से नहीं।

कहने का मतलब यह कि अगर राज्य में पुनर्वास केंद्र और स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या बेहतर होती, राज्य की इच्छाशक्ति मजबूत होती तो वह अपने नागरिकों की इच्छाशक्ति इतनी मजबूत करता कि जो चीज उसके लिए गलत है वह उससे दूर रहता। बिहार में शराबबंदी के बाद पुनर्वास व नशामुक्ति केंद्रों तक तो लोग नहीं पहुंचे लेकिन जेलों में बड़ी संख्या में पहुंचने लगे। जिन लोगों को सरकार नशामुक्ति केंद्र नहीं पहुंचा सकी वे मौत के मुंह में पहुंचे हैं तो इसका जिम्मेदार कौन है?

सरकार को सिर्फ शराबबंदी का एलान ही नहीं करना था, उसे व्यावहारिक तरीके से लागू भी करना था। लेकिन बिहार की सड़कों से लेकर नालियों तक में फेंकी हुई महंगी शराब की बोतलें और सस्ती शराब के खाली पाउच प्रशासनिक नाकामी की पोल खोल रहे हैं। बिहार सरकार में जो मद्यनिषेध मंत्री हैं उनकी क्या जिम्मेदारी बनती है? अगर इस तरह के पद का प्रावधान है तो, मद्यनिषेध की इतनी बड़ी नाकामी दिखने के बाद उन पर कोई कार्रवाई हुई? नहीं, क्योंकि इसका ठीकरा सिर्फ पुलिसकर्मियों व अन्य निचले जिम्मेदारों पर ही फूटता है।

कागजी शराबबंदी ने जिस अवैध शराब बिक्री का बाजार बनाया है उसने सिर्फ बिहार की जेलों को भरा है। इसमें ज्यादातर वो गरीब तबका है जो पीने वाला नहीं, थोड़े पैसे बनाने के लालच में उसे बेचने वाला है। इनकी संख्या इतनी बड़ी है कि मुकदमा शुरू भी नहीं हो पाया है। इस पूरी रुकी हुई न्यायिक प्रक्रिया का बोझ भी सरकार पर है।

शराबबंदी के बाद से बिहार सरकार को करीबन पांच हजार करोड़ रुपए राजस्व के नुकसान का अंदाजा लगाया जा रहा है। वहीं, इसकी अवैध बिक्री से मुनाफाखोरों की कमाई का वैध आंकड़ा किसी के पास नहीं है। यानी, सरकार के पास आय का अहम जरिया खत्म होकर अवैध बाजार तक पहुंच गया। इस राजस्व को लोककल्याणकारी मसलों पर खर्च किया जा सकता था।

बिहार में शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक का जो मसला बदहाल है वहां इससे मदद मिल सकती थी। लेकिन इन सब पर खर्च स्वाभाविक रूप से कम हो गया क्योंकि आय घट गई। खेती से लेकर अन्य क्षेत्रों की उत्पादन शक्ति में जो श्रम लग सकता था, वो जेल में मुकदमा शुरू होने की आस में बर्बाद हो रहा है। उनसे जुड़े परिवार पुलिस-अदालत से लेकर पेट भरने तक के आर्थिक संकटों से जूझ रहे हैं। लोग गांजा-भांग और दूसरे नशे का सहारा ले रहे जो एक और बड़ी समस्या है।

जगह-जगह एक चुटकुला सुनाया जा रहा है जो वहां का सच है-बिहार में वह क्या चीज है जो दिखती नहीं, लेकिन बिकती है। हर कोई आरोप लगा रहा है कि पहले तो शराब खरीदने के लिए अधिकृत दुकान में जाना होता था लेकिन शराबबंदी के बाद शराब की गृह आपूर्ति हो रही है। अमीर अपने कमरे में महंगी शराब और थोड़ी महंगी पी रहा है तो उसे ज्यादा फर्क नहीं पड़ रहा। लेकिन उसकी तस्करी में जुटा गरीब तबका जेल भी पहुंच रहा और अपनी जान भी गंवा रहा है। महिलाएं पहले भी रो रही थीं और अब तो मौत की चीत्कार है।

सामाजिक सुधार का रास्ता लंबा होता है जो परिवार से शुरू होकर सरकार तक जाता है। लेकिन उस लंबे रास्ते पर चलने के बजाए सरकार ने शराबबंदी की जो पुलिया बनाई अब वह टूट चुकी है।

हर सरकार की तरह नीतीश कुमार और उनके सरकारी अमले के लोग शराबबंदी की नाकामी के आरोपों पर अच्छी नीयत का जुमला दुहरा रहे हैं। लेकिन अब तो सहयोगी भाजपा ने भी मुख्यमंत्री से साढ़े पांच साल पुराने शराबबंदी कानून की समीक्षा करने की बात कह दी है। देखते हैं, इतनी मौतों की चीत्कार के बाद नीतीश सरकार की अच्छी नीयत व्यावहारिक नीति की ओर जाती है या नहीं।