Analysis of win and loss: भाजपा (BJP) और आम आदमी पार्टी (Aam Aadmi Party)जिस तरह राष्ट्रीय चेहरे के भरोसे विधानसभा चुनाव (Assembly Elections)जीतने की परिपाटी पर चल रही है हिमाचल (Himachal)में उन्हें इसका खमियाजा भुगतना पड़ा है। चुनावी नतीजे बता रहे हैं कि भाजपा और आम आदमी पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को ‘मैं-मैं’ का एकवचन छोड़ कर ‘हमारी पार्टी’ के बहुवचन में बोलने की आदत डाल लेनी चाहिए। हिमाचल के खामोश से चुनावी संदेश की चीख सुनता बेबाक बोल

‘हम पुरानी पेंशन योजना वापस नहीं लाए, कोई नई घोषणा नहीं की। इसका नतीजा हमारे सामने है। हिमाचल प्रदेश में भाजपा को कीमत चुकानी पड़ी। अन्य कारण भी हो सकते हैं, लेकिन इस चुनाव में हार का मुख्य कारण पुरानी पेंशन योजना (Old Pension Scheme) को वापस नहीं लाना ही है’।

भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी (Sushil Kumar Modi) ने दिल्ली में हुए एक कार्यक्रम में यह बात कही जिसमें पुरानी पेंशन योजना की ओर लौटने के खतरों के बारे में आगाह किया जा रहा था। कार्यक्रम में मौजूद पंद्रहवें वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह (NK Singh) ने पुरानी पेंशन योजना की ओर लौटने की प्रवृत्ति को वर्तमान के लिए भविष्य खराब करना देने जैसा कहा, साथ ही इसे ‘विश्वास का उल्लंघन’ भी करार दिया।

मुख्यधारा के मंचों पर सबसे कम जगह हिमाचल के नतीजों को ही मिली

हाल में संपन्न हुए चुनावों में मुख्यधारा के मंचों पर सबसे कम जगह हिमाचल के नतीजों को ही मिली। इसे एक तरह से हिमाचल के नागरिकों के सरकार बदलने की रवायत करार देकर पल्ला झाड़ लिया गया। लेकिन, पिछले सालों में हम उत्तर प्रदेश से लेकर केरल तक में देख चुके हैं कि ऐसे रस्मो-रिवाज को जनता खारिज कर चुकी है। हर जगह राजनीति का नया अध्याय लिखा जा रहा है।

बहुप्रतीक्षित 2024 के पहले हिमाचल प्रदेश से आए संदेश को शायद भाजपा समझ रही है तभी हार का ठीकरा रेवड़ी यानी पुरानी पेंशन योजना पर फोड़ा जा रहा है। यानी, यह महज पांच साल में सरकार पलटने भर का मामला नहीं है। हिमाचल के सांस्कृतिक व राजनीतिक मिजाज को देखें तो वह भाजपा की राजनीति के अनुकूल बैठता है। एक हिंदू-बहुल राज्य जहां मुसलिम आबादी नाम मात्र की है। जो मुसलिम आबादी है भी वह सांस्कृतिक रूप से अन्य राज्यों की मुसलिम आबादी से अलग है। तो हिंदुत्व और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों से भला यहां क्या परेशानी हो सकती है?

यह परेशानी है, ‘भूखे पेट भजन न होय गोपाला’ वाली। हिमाचल एक ऐसा राज्य है जहां फौज की वजह से घर-घर में एक सरकारी कर्मचारी है। इसके अलावा वहां का आर्थिक आधार सिर्फ पर्यटन और सेब के बागान हैं। सेब के बागान भी राजस्व का उतना बड़ा स्रोत नहीं हैं, जितना पर्यटन।

विकास के लिए केंद्र का सहयोग जरूरी

जाहिर सी बात है कि ऐसे हालात में उस राज्य की निर्भरता इस बात पर होगी कि केंद्र में किसकी सरकार है क्योंकि सड़क कर से होनेवाली कमाई बहुत हद तक केंद्र पर निर्भर करती है। ऐसे राज्य अपनी आर्थिक सुरक्षा के लिए दोहरे इंजन वाली रेल बनना ही पसंद करते हैं। लेकिन, हिमाचल ने इस रेल को भाजपा की जीत की पटरी से उतारने का जोखिम लिया और कांग्रेस की सरकार बनाई।

पुरानी पेंशन योजना के बाद ‘अग्निवीर योजना’ ऐसा मुद्दा थी जिसने हिमाचल जैसे राज्य को हिला दिया। ‘अग्निवीर’ को लेकर जिस तरह बिहार व उत्तर प्रदेश में उग्र प्रदर्शन हुए थे उसका नतीजा हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में दिखा। प्रदर्शनकारी युवा थक-हार कर घर लौट कर ‘अग्निवीर योजना’ में भर्ती के दस्तावेजों पर दस्तखत कर रहे थे तो केंद्र को लगा कि यह मुद्दा बस खत्म हो गया। लेकिन सड़क पर खत्म हो चुका प्रदर्शन ईवीएम पर फिर से शुरू हो गया।

स्थानीय नेतृत्व को भाजपा ने नहीं दी तवज्जो

इसके साथ ही भाजपा ने हिमाचल प्रदेश में स्थानीय नेतृत्व को भी तवज्जो नहीं दी। उत्तराखंड और गुजरात में जनता भाजपा के मुख्यमंत्रियों से नाराज थी तो चेहरे पर चेहरा बदला गया। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर से भी जनता उतनी ही नाराज थी, लेकिन भाजपा आलाकमान ने वहां से आंखें मूंदें रखीं। इसी नाराजगी में भाजपा से बागियों की फौज निकल कर अन्य दलों में चली गई।

हिमाचल से ही वह वीडियो इंटरनेट पर फैला जिसमें एक स्थानीय नेता भाजपा अध्यक्ष पर सवाल उठा रहा था और केंद्रीय नेतृत्व को उसकी बात सुनने के लिए मजबूर होना पड़ा था। दिल्ली निगम से लेकर हिमाचल प्रदेश तक के चुनाव का केंद्रीय संदेश यही है कि अगर विपक्ष फिर चाहे कांग्रेस हो या आम आदमी पार्टी स्थानीय मुद्दों को सही संदर्भ में उठाएगा तो लोग सुनेंगे। दिल्ली में कूड़े के ढेर को सुना, हिमाचल में पुरानी पेंशन योजना और ‘अग्निवीर योजना’ को सुना।

हिमाचल जैसे राज्य में सरकारी नौकरी और पेंशन की सुरक्षा मायने रखती है। वहां आप सुरक्षित व्यवस्था खींच कर विकल्प पर चुप रह जाएंगे तो यह पलट कर आप के ऊपर आएगा। वहां आपको लोगों का भरोसा जीतने के लिए स्थानीय नेतृत्व की मदद करनी थी। जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री के तौर पर नाकाम हो चुके थे, लेकिन पद पर रहते हुए दूसरी पारी की दावेदारी कर रहे थे। राज्य के नेतृत्व की उपेक्षा और जनता का मिजाज देखते हुए भाजपा के कई नेता बड़ी संख्या में बागी होकर दूसरे दलों में चले गए।

एक संदेश मिला कि हर बार राष्ट्रीय मुद्दा नहीं चलेगा

हिमाचल ने संदेश दे दिया है कि हर चुनाव राष्ट्रीय मुद्दे पर नहीं लड़ा जा सकता है। ‘पुरानी पेंशन योजना’ एक ऐसा राष्ट्रीय मुद्दा है जो हिमाचल में जाकर स्थानीय मुद्दा बन गई कि हमारा क्या होगा? 2004 में नई पेंशन योजना लागू हुई थी। अब जब 2034 में नई पेंशन योजना के सेवानिवृत्त इसकी समीक्षा करेंगे इसके पहले ही सबसे पहले हिमाचल प्रदेश ने अपनी समीक्षा पेश कर दी है कि आपको लोगों को एक सुरक्षित विकल्प देना होगा।

2014 के बाद 2019 के चुनाव में कोई खास व्यवस्था विरोधी माहौल नहीं था, सत्तर साल के बदलाव का जादू बरकरार था तो पहले से ज्यादा बहुमत आया। उस वक्त लगा था कि राष्ट्रवाद और हिंदुत्व जैसे मुद्दे पर ही चुनाव लड़ा जाएगा। लेकिन, देश के राजनीतिक नक्शे को देखें तो कई राज्यों में स्थानीय मुद्दे अपनी बात कहते रहे हैं जिसे राष्ट्रवाद के शोर में दबा दिया जा रहा था।

हिमाचल के हिलने का असर अभी हरियाणा में दिख सकता है। मनोहर लाल खट्टर के लिए जिस तरह ‘लग जा गले फिर मुलाकात हो न हो’ जैसे विदाई समारोह हो रहे हैं उससे लगता है कि जनमत के पहले उत्तराखंड और गुजरात की तरह नेतृत्व परिवर्तन किया जाएगा। लेकिन, हरियाणा एक ऐसा राज्य है जहां के लिए ‘अग्निवीर’ और पुरानी पेंशन योजना बड़ा मसला है। पंजाब में अकाली दल का साथ छूटने के बाद भाजपा के लिए वहां जगह बची ही नहीं थी और अब हरियाणा भी हिमाचल की तरह राष्ट्रवाद के राजमार्ग से हट कर ‘अग्निवीर’ और ‘पुरानी पेंशन’ की बात करने लगा तो?

नतीजों के बाद अब स्थानीय क्षत्रपों को तवज्जो

हिमाचल और दिल्ली का असर गुजरात में दिख रहा है कि नतीजों के बाद स्थानीय क्षत्रपों को तवज्जो दी जा रही है, साथ ही उन पाटीदार व आदिवासी इलाके के नेताओं को, जो कांग्रेस का साथ छोड़ कर भाजपा को ऐतिहासिक जीत दिलाने में सहायक हुए। इसके साथ ही भाजपा और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं को विधानसभा चुनावों में ‘एको अहं द्वितीयो नास्ति’ वाले भाव से निकलने की आदत डालनी होगी। आप मुझे वोट दीजिए, मैं यह कर दूंगा जैसे एकवचन से निकल कर ‘हमारी पार्टी’ वाले बहुवचन संबोधन की ओर लौटना होगा। मंच और सड़कों पर स्थानीय नेताओं को भी जगह देनी होगी।

अगर आप किसी भूखे इंसान को व्यायाम के फायदे बताएंगे तो आपकी डाक्टरी पर सवाल उठेंगे। एक-एक राज्य की सरहदों से जुड़ कर भारत का नक्शा बनता है। फिलहाल भारत के राजनीतिक नक्शे को ठीक से देखेंगे तो कम से कम मध्य-प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा को ‘पठान’ फिल्म के मुद्दे पर पत्रकारों से बात करनी छोड़ देनी चाहिए। उन्हें यह समझ जाना चाहिए कि दीपिका पादुकोण और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय को टुकड़े-टुकड़े गैंग का कह कर अब और वोट नहीं मिलने वाला।

अभी जो आपके मतदाता हैं उनके पूर्वज ‘आपातकाल’ से पहले ‘बाबी’ देख रहे थे। मध्यप्रदेश में भी किसान, जवान से लेकर पेंशन का मुद्दा मुंह बाए खड़ा है। जनता अपने दिए जनमत के टुकड़े-टुकड़े कर सरकार बनाने वाले गिरोहों के खिलाफ भी हल्ला-बोल कर सकती है। मध्य-प्रदेश में किस तरह से सरकार बनी थी यह तो नरोत्तम मिश्रा जी को याद ही होगा।

सिनेमा से लेकर समाज और आर्थिक सुधारों को लेकर सरकारों का पीछे की ओर लौटना अच्छा संकेत नहीं है। 2024 तो बाद में, अभी तो राजस्थान, मध्यप्रदेश और कर्नाटक की लड़ाई ही बहुत आसान नहीं है। यह हल्ला तो हिमाचल ने कर दिया है जिस पर खामोशी बरती जा रही है।