हम 79वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहे हैं। यह भविष्य के लिए संकल्प के साथ इतिहास के पिटारे से भूले-बिसरे, उपेक्षित घटनाओं को स्मृति पटल पर लाने का भी अवसर है। इतिहास का फलक जितना बड़ा और अन्वेषी होता है, पीढ़ियों की बुनियाद उतनी ही मजबूत बनती है। भारतीय इतिहास को निष्पक्ष बनाना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। इसका अर्थ है अति सामान्य लोगों ने कैसे उपनिवेशवाद का मुकाबला किया, उसे उजागर करना है। वैसा ही 1921 में राष्ट्रद्रोह का मुकदमा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार पर था। इस मुकदमे का महत्त्व दो कारणों से है। पहला, हेडगेवार ने पूर्ण स्वतंत्रता का तर्क रखा था।
उन्नीस अगस्त 1919 को नागपुर न्यायालय के न्यायाधीश ने हेडगेवार पर फैसला सुनाते हुए कहा, ‘आपके भाषण में राजद्रोह है। आप अगले एक साल तक भाषण नहीं करेंगे। इसके लिए दो हजार रुपए की जमानत और एक हजार रुपए की गारंटी देनी होगी।’ डॉ. हेडगेवार पर असहयोग आंदोलन के दौरान भाषणों से लोगों को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ भड़काने का आरोप था। मुकदमा धारा-108 के अन्तर्गत था। न्यायाधीश स्मेली के फैसले पर हेडगेवार ने साम्राज्यवाद को ललकारते हुए कहा, ‘आप कोई भी फैसला दीजिए। मैं निर्दोष हूं। यह मेरी अंतरात्मा की आवाज है। विदेशी शासकों के अपने पापों का पश्चाताप का समय शीघ्र ही आएगा। मैं जमानत भरने से इनकार करता हूं।’ हेडगेवार द्वारा न्यायाधीश से कहे गए शब्दों में एक वैश्विक लोकतंत्र और समानता की स्थापना थी।
‘हम हिंदुस्तान के लोग हिंदुस्तान का मालिक बन कर राज करना चाहते हैं’
उन्होंने कहा, ‘इंग्लैंड को परतंत्र करके उनके ऊपर राज करने की हमारी इच्छा नहीं है, लेकिन जिस तरह इंग्लैंड के लोग इंग्लैंड में, जर्मनी के लोग जर्मनी में राज करते हैं ,उसी तरह हम हिंदुस्तान के लोग हिंदुस्तान का मालिक बन कर राज करना चाहते हैं। अंग्रेजी साम्राज्य के अंदर रह कर अंग्रेजों के स्थायी गुलाम बन कर रहने की हमारी कतई इच्छा नहीं है।’ उनके ये शब्द जितना भारत पर लागू होते थे, उतना ही अफ्रीका पर भी।
हेडगेवार की साम्राज्यवाद-विरोधी आक्रमकता को देखने और सुनने सैकड़ों लोग जिरह के दिन आते थे। वे तब बड़े नेता नहीं थे। न ही बड़ा नाम था। मगर उनमें राष्ट्रभक्ति की चेतना का सूचकांक जरूर बड़ा था। उसका स्वरूप उनकी ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ प्राप्त करने की उद्घोषणा में दिखाई दिया। कांग्रेस ने दिसंबर 1929 में अपने लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित किया। इसने साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन को नया स्वरूप और दिशा देने का काम किया। मगर जमीनी स्तर पर यह भावना पहले से विद्यमान थी। लाहौर प्रस्ताव से आठ वर्ष पूर्व हेडगेवार ने पांच अगस्त 1921 को नागपुर न्यायालय में कहा, ‘हमें पूर्ण स्वतंत्रता चाहिए और हम लेकर रहेंगे।’
पूर्ण स्वतंत्रता पर कांग्रेस के 750 शब्दों के प्रस्ताव में भारतीयों के दमन, शोषण और राज करने के अधिकार को छीने जाने का तर्क था। मगर हेडगेवार ने साम्राज्यवाद पर नैतिक प्रश्न खड़ा कर इसकी बुनियाद पर कुल्हाड़ी चलाने का काम किया। उन्होंने सरकारी वकील से पूछा, ‘इस प्रश्न का उत्तर दे सकेंगे क्या ? क्या ऐसा एक भी कानून है, जिसमें एक देश के लोगों को दूसरे देश के लोगों पर शासन करने का अधिकार मिलता है? हिंदुस्तान के लोगों को पैरों तले कुचल कर और उसके ऊपर शासन करने का अधिकार किसने दिया है? अंग्रेजों का दावा करना कि वे हिंदुस्तान के मालिक हैं, नैतिकता और धर्म का कत्ल करना नहीं है तो और क्या है?’
उनके शब्दों का अभिप्राय सिर्फ भारत की ही स्वतंत्रता नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में अंग्रेजी, फ्रांसीसी और पुर्तगाली साम्राज्यवादी ताकतों पर सीधा प्रहार था। अखबार ‘महाराष्ट्र’ ने 24 अगस्त 1921 को 19 अगस्त के फैसले की रपट प्रकाशित की थी। हेडगेवार ने जब जमानत के प्रस्ताव को ठुकरा दिया, तब न्यायाधीश ने उन्हें एक साल सश्रम कारावास की सजा सुनाई, जिसे उन्होंने स्वीकार किया।
सांप्रदायिकता की गहराई और उसका चरित्र, इतिहास से अनदेखी गलतियां और भविष्य के लिए चेतावनी
जेल जाने से पूर्व उन्होंने उपस्थित सैकड़ों लोगों को संबोधित करते हुए जो कहा वह राष्ट्रभक्ति की मिसाल है, वह यह कि ‘राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए कारावास क्या कालेपानी की सजा या फांसी पर चढ़ जाने की अपनी तैयारी होनी चाहिए।’
किसी भी आंदोलन और साम्राज्यवाद विरोधी कार्यक्रमों की अपेक्षा अदालत में साम्राज्यवाद को तर्क शून्य कर देना, सजा मिलने के भय को उपजने नहीं देना और न्यायालय की वैधानिकता को चुनौती देना उनका प्रभावी हथियार था। इसलिए हेडगेवार ने जेल से बाहर एकत्रित लोगों के माध्यम से संदेश प्रसारित किया कि ‘अपने ऊपर मुकदमा होने पर अपना बचाव नहीं करते हुए खटमल जैसे कुचल कर मरना मुझे उचित नहीं लगता है। अपना पक्ष रखते हुए विरोधियों की कुनीतियों को हमें दुनिया के सामने उजागर जरूर करना चाहिए। वैसा करना देश की सेवा है, नहीं करना आत्मघात जैसा है।’
हेडगेवार से पूर्व और बाद में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 12 मई 1930 को न्यायालय में देशभक्ति का गीत गाकर और इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगा कर क्रोधित न्यायाधीशों को और भी उत्तेजित कर दिया। 23 जुलाई 1909 में लंदन की अदालत में मदन लाल ढींगरा ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में साम्राज्यवाद को दुत्कारा था। अफ्रीका के घाना में क्वामे नक्रूमा ने और दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला ने इसी मार्ग को अपनाया था। डा हेडगेवार का यह मुकदमा स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास के आईने की तरह है। उनकी दृष्टि की तार्किक व्यापकता उन्हें साम्राज्यवादी आंदोलन का एक जीता जागता उदाहरण बना देती है।