Caste Politics in Bihar: बिहार के जनमानस पर राजनीति हावी है। जीत-हार का हिसाब लगाया जा रहा है। यह तो पहले भी होता था, पर तब और अब में गुणात्मक अंतर साफ दिखाई पड़ता है। इसके लिए किसी शोध की जरूरत नहीं है। प्रगतिशीलता और वैचारिक लड़ाई को प्रतिक्रियावाद और जातीय समीकरणों की व्यूहरचना ने विस्थापित कर दिया है। सामाजिक-आर्थिक न्याय के प्रश्न पर बिहार एक कदम आगे रहता था। उसका उदाहरण जमींदारी का अंत करने के लिए स्वतंत्रता के तुरंत बाद कानून का बनाया जाना था। श्रीकृष्ण सिंह मंत्रिमंडल में राजस्व मंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय का 1949 में विधानसभा में इस पर दिया गया भाषण सामाजिक-आर्थिक समानता की इच्छाशक्ति पर आधारित एक प्रगतिशील दस्तावेज है, जिसे पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए था। पर वह अभिलेखागार तक सीमित रह गया है।

उधर स्वतंत्रता आंदोलन में बिहार की भूमिका का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां से बड़ी संख्या में लोगों ने स्वाधीनता संग्राम में हिस्सा लिया था। यह संख्या पच्चीस हजार के आसपास आंकी जाती है। बिहार को इस बात का भी गौरव प्राप्त है कि संविधान सभा के पहले (अंतरिम) और स्थायी अध्यक्ष क्रमश: सच्चिदानंद सिन्हा और डा राजेंद्र प्रसाद भी इसी प्रांत से थे। इतना ही नहीं, बिहार लोकतंत्र की ऐतिहासिक परंपरा का संदर्भ बिंदु भी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब दुनिया के मंचों से भारत को लोकतंत्र की जननी कहते हैं, तो उनका सीधा मतलब ढाई हजार साल प्राचीन वैशाली का गणराज्य होता है। अभिषेक पुष्करणी सरोवर इसकी जीवंत कहानी कह रहा है। गणराज्य के चुने हुए प्रतिनिधि इसी सरोवर में स्नान कर पद और गोपनीयता की शपथ लेते थे।

मेरा समाज-तेरा समाज’ का अर्थ अपनी-अपनी जाति हो गया है

बिहार की विरासत तो अखंडित है, पर वर्तमान खंडित है। समकालीन बिहार की राजनीति ने समाज शब्द को पुनर्परिभाषित कर दिया है। इसके अर्थ का क्षरण इस हद तक हो गया है कि ‘मेरा समाज-तेरा समाज’ का अर्थ अपनी-अपनी जाति हो गया है। यानी समाजबोध की समग्रता जाति बोध की विपन्नता में तब्दील हो गई है। इस विरोधाभास के पीछे का कारण क्या है?

राजनीति का अपना स्वभाव होता है। वह सुलभ और आसान रास्ते से सफर करना चाहती है। जाति की पीठ की सवारी राजनीतिकों की सभी न्यूनताओं को ढक देती है। राजनीतिक पात्रों को सार्वजनिक जीवन के लिए अपेक्षित मापदंडों की आवश्यकता नहीं रह जाती है। स्थिति कितनी गंभीर है कि शिक्षित लोग ही नहीं, बल्कि कोई सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन भी अपवाद के रूप में नहीं बचा है जो इस जातिबोध की विडंबना से नहीं जूझ रहा हो। ऐसा नहीं है कि सीवान से लेकर सहरसा तक सभी लोगों द्वारा इस गिरावट का अनुमोदन है। राजनीतिक संस्कृति का विकल्प उनके सामने नहीं है। प्रचलित राजनीति को नियति मानकर वे चल रहे हैं। मगर संभावनाएं मरी नहीं है।

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लोग जयप्रकाश, दिनकर, फणीश्वरनाथ रेणु, कर्पूरी ठाकुर की जाति में रुचि नहीं लेते हैं। यह सुनहरे भविष्य के लिए चिंगारी की तरह है। 1974 में जयप्रकाश नारायण ने परिवर्तन के लिए ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया था। उसका अभिप्राय सिर्फ राजनीतिक परिवर्तन नहीं था। सामाजिक परिवर्तन इसका अहम हिस्सा था। पर राजनीति की नई पीढ़ी के लिए वह दुरूह और लंबा रास्ता था। उन्हें नारों और कार्यक्रमों का प्रशिक्षण था। लोकतंत्र में विचार और दर्शन को जब तक कार्यकर्ता आत्मसात नहीं करता है, तब तक वह परिवर्तन का सारथी नहीं बन पाता है। इसके लिए स्वाध्याय, समर्पण और सामाजिक सरोकार की घुट्टी पीनी पड़ती है। बिहार का पिछले चार दशकों का इतिहास जातीय चेतना के प्रशिक्षण और प्रयोग का इतिहास रहा है। इसने राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय, जगजीवन राम जैसे महानायकों को आज के संदर्भ में अप्रसांगिक बना दिया है।

बिहार के प्राचीन काल का इतिहास बताता है कि राजनीति ही जीवन का सार नहीं होती है। इसके प्राचीन काल में दो उदाहरण मिलते हैं उसमें से एक बिहार का है। ढाई हजार साल पूर्व रोमन राजा लुसियन क्विंटियस सिनसिनैटस ने रोम को सबसे कठिन शत्रु से विजय दिलाकर सत्ता त्याग दी थी। लगभग उसी कालावधि में मगध साम्राज्य के सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य लोकप्रियता के चरम पर सत्ता त्याग कर कर्नाटक के हासन जिले में श्रवणबेलगोला की एक पहाड़ी पर जैन साधु भद्रबाहु की शरण में चले गए। वह पहाड़ी चंद्रगिरि हिल्स के नाम से प्रसिद्ध है। सिनसिनैटस का नाम तो इतिहास में इसके लिए आता है, पर चंद्रगुप्त का नहीं।

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जो समाज या व्यक्ति अपने स्व को एकांगी बना देता है, उसे हमेशा उपलब्धियों के बावजूद खालीपन महसूस होता है। अभी बिहार कुछ वैसी ही स्थिति में है। इसके सांस्कृतिक-बौद्धिक प्रवाह पर संकीर्णतावादी राजनीति विद्यमान है।

2021 में तमिलनाडु के कांची कामकोठी में शंकराचार्य ने गर्व से बताया था कि मंडन मिश्र की प्रतिमा मंदिर में स्थापित है। मंडन मिश्र ने आदि शंकराचार्य से शास्त्रार्थ किया था, लेकिन मिश्र का महिषी गांव, जो सहरसा जिले में है, उपेक्षित है। पड़ोस में मधुबनी जिले में सरिसब पाही गांव है। वह नव-न्याय दर्शन का केंद्र था। वास्तव में इन दोनों गांवों को भारतीय ज्ञान परंपरा का केंद्र होना चाहिए था। बक्सर के पंचकोशी परिक्रमा का इतिहास यूरोप के इतिहास से प्राचीन है। ताड़का वध के बाद भगवान राम यहीं गंगा नदी में स्नान कर पांच ऋषियों- गौतम, नारद, भार्गव, उद्दालक और विश्वामित्र के आश्रम गए थे।

आमतौर पर तात्कालिकता के प्रभाव में वैचारिक आग्रह में कमी और जीवन मूल्यों की उपेक्षा से ऐसे पात्र उपजते हैं। ऐसी स्थिति में बिहार का अपना स्वर्णिम इतिहास लड़खड़ाते वर्तमान के लिए औषधि के समान है। प्रगतिशीलता को प्राप्त करना ही अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। उद्दालक ने स्वयं के अन्वेषण का सिद्धांत का दर्शन दिया है- अर्थात ‘मैं कौन हूं?’ इसी का उत्तर बिहार को शायद विडंबना से बाहर कर पाएगा।