1971 India-Pakistan War: भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 के युद्ध के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ कहकर सम्मानित किया था। साथ ही बांग्लादेश की आजादी और पाकिस्तान को करारी सैन्य हार से निपटने में उनकी भूमिका की सराहना की थी। हालांकि, हाल ही में संसद में ऑपरेशन सिंदूर पर हुई बहस के दौरान, भाजपा नेताओं ने युद्ध के दौरान श्रीमती गांधी की भूमिका पर सवाल उठाए। साथ ही दावा कि किया कि इंदिरा गांधी अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के सामने पाकिस्तान को पीछे हटाने के लिए गिड़गिड़ाईं थीं।
विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने मंगलवार को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के इस दावे को लेकर सरकार पर निशाना साधा कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम की मध्यस्थता की थी। राहुल ने कहा कि अगर ट्रंप सीजफायर के बारे में झूठ बोल रहे हैं, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उन्हें बताना चाहिए, अगर उनमें इंदिरा गांधी का 50% भी साहस है।
गांधी ने कहा कि मोदी सरकार में पाकिस्तान के साथ युद्ध छेड़ने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है। उन्होंने कहा, ‘अगर आप भारतीय सेना का इस्तेमाल करना चाहते हैं, तो आपके पास 100% राजनीतिक इच्छाशक्ति होनी चाहिए… (रक्षा मंत्री) राजनाथ सिंह ने 1971 (पाकिस्तान के साथ युद्ध) और ऑपरेशन सिंदूर की तुलना की। 1971 में राजनीतिक इच्छाशक्ति थी… तत्कालीन प्रधानमंत्री (इंदिरा गांधी) ने कहा था, ‘हम बांग्लादेश में जो चाहें करेंगे’… बिना किसी भ्रम के राजनीतिक इच्छाशक्ति।”
जवाब में भाजपा के गोड्डा सांसद निशिकांत दुबे ने कहा कि 5 दिसंबर, 1971 को श्रीमती गांधी ने निक्सन को पत्र लिखकर सचमुच उनसे पाकिस्तान के साथ युद्ध रोकने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने की विनती की थी। पूर्व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने सदन को बताया कि इंदिरा गांधी ने निक्सन को इस तरह पत्र लिखा था कि ऐसा लग रहा था कि वह निक्सन के आगे गिड़गिड़ा रही हैं। देश को तय करना चाहिए कि वह सरकार मजबूत थी या विडंबना।
यह सब कैसे घटित हुआ
इतिहासकार श्रीनाथ राघवन ने अपनी पुस्तक इंदिरा गांधी एंड द इयर्स दैट ट्रांसफॉर्म्ड इंडिया में लिखा है कि 19 मार्च 1971 तक पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में सैन्य कार्रवाई की तैयारी चल रही थी।
श्रीमती गांधी सरकार पर कुछ करने के लिए संसदीय और जनता के भारी दबाव से वाकिफ थीं। उन्होंने 26 मार्च की शाम को विपक्षी नेताओं से मुलाकात कर अपनी सोच स्पष्ट की। राघवन लिखते हैं कि उन्होंने यह भी अनुरोध किया कि इस मामले पर सरकार की नीति सार्वजनिक बहस का विषय न बने।
राघवन लिखते हैं कि अगले कुछ दिनों तक संसद में तनाव बना रहा। विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह ने संसद को पूर्वी पाकिस्तान की स्थिति से अवगत कराया और दोनों सदनों को बताया कि सरकार स्थिति को लेकर बेहद चिंतित है और हमारी संवेदनाएं उन लोगों के साथ हैं जो कष्ट झेल रहे हैं।
लेकिन उनकी तीखी आलोचना हुई और कई सांसदों, जिनमें से कई बंगाल से हैं और जिनकी जड़ें बांग्लादेश में हैं। उन्होंने स्थिति पर चिंता व्यक्त की। प्रधानमंत्री को हस्तक्षेप करना पड़ा और संसद को आश्वस्त करना पड़ा कि हम स्थिति से पूरी तरह वाकिफ हैं।
राघवन लिखते हैं कि बांग्लादेश को मान्यता देने के लिए भारी दबाव था। कई राजनीतिक दलों ने बांग्लादेश को तत्काल मान्यता देने की मांग करते हुए प्रस्ताव पारित किए। उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, नागालैंड और त्रिपुरा की विधानसभाओं ने केंद्र सरकार से बांग्लादेश को औपचारिक मान्यता देने का आग्रह करते हुए प्रस्ताव पारित किए। कांग्रेस की प्रमुख सहयोगी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की मान्यता की मांग और भी असहज करने वाली थी । इन मांगों की प्रेस में गूंज हुई और पंडितों ने भी इन्हें मान्यता दी।
वरिष्ठ नेता जयप्रकाश नारायण, जिन्होंने बाद में आपातकाल के दौरान श्रीमती गांधी का विरोध किया था। उन्होंने भी सरकार पर कार्रवाई के लिए दबाव डाला।
राघवन के अनुसार, प्रधानमंत्री को लगा कि चूंकि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पूर्वी पाकिस्तान को अपना आंतरिक मामला मानता है, इसलिए भारत को प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है। उनकी रणनीति पड़ोसी देश में गुरिल्ला आंदोलन को समर्थन देना था। 7 मई तक यही रुख रहा, जब उन्होंने विपक्ष के साथ एक और बैठक की। गुरिल्ला अभियान का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि हम सशस्त्र हस्तक्षेप के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोच सकते।
लेकिन जल्द ही शरणार्थी संकट आ गया, और कुछ अनुमानों के अनुसार, लगभग एक लाख शरणार्थी भारत पहुंच गए। राघवन लिखते हैं कि श्रीमती गांधी ने तत्कालीन भाजपा के पूर्ववर्ती जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी से संपर्क किया और उनसे इस मुद्दे का राजनीतिकरण न करने का अनुरोध किया, क्योंकि इससे पाकिस्तान को शरणार्थी समस्या को हिंदू-मुस्लिम और भारत-पाकिस्तान समस्या के रूप में पेश करने में मदद मिलेगी।
इंदिरा गांधी ने अपना विचार बदला
कुछ ही दिनों में प्रधानमंत्री के रुख में बदलाव आ गया। 24 मई को उन्होंने संसद में शरणार्थी संकट की गंभीरता पर बात की। उन्होंने कहा कि इतने कम समय में इतना बड़ा पलायन, इतिहास में अभूतपूर्व है। पिछले आठ हफ़्तों में लगभग साढ़े तीन लाख लोग बांग्लादेश से भारत आए हैं। वे हर धर्म के हैं – हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध और ईसाई… वे उस अर्थ में शरणार्थी नहीं हैं, जैसा हमने विभाजन के बाद से समझा है। वे युद्ध के पीड़ित हैं, जिन्होंने हमारी सीमा पार सैन्य आतंक से बचने के लिए शरण ली है।
उन्होंने कहा कि भारत ने पाकिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की कोशिश नहीं की है, हालांकि उन्होंने भी ऐसा संयम नहीं दिखाया है। और अब भी, हम किसी भी तरह से हस्तक्षेप नहीं करना चाहते।
लेकिन असल में क्या हुआ है? जिसे पाकिस्तान की आंतरिक समस्या बताया गया था, वह भारत की भी आंतरिक समस्या बन गई है। इसलिए, हम पाकिस्तान से यह कहने के हकदार हैं कि वह अपने घरेलू अधिकार क्षेत्र के नाम पर उन सभी कार्रवाइयों से तुरंत बाज आए जो वह कर रहा है और जो हमारे अपने लाखों नागरिकों की शांति और कल्याण को गंभीर रूप से प्रभावित करती हैं। पाकिस्तान को भारत की कीमत पर और भारतीय धरती पर अपनी राजनीतिक या अन्य समस्याओं का समाधान खोजने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
अक्टूबर 1971 के मध्य तक, सरकार के भीतर यह भावना बढ़ती जा रही थी कि उसे विद्रोहियों का पूरा समर्थन करना होगा। अंतर्राष्ट्रीय समर्थन जुटाने के लिए प्रधानमंत्री ने नेतृत्व को मनाने के लिए सितंबर में मास्को की यात्रा की। उन्होंने प्रमुख पश्चिमी राजधानियों का भी दौरा किया, जहां से उन्हें बहुत कम सहानुभूति और समर्थन मिला। राघवन लिखते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के साथ उनकी मुलाकात ठंडी थी।
निक्सन ने चेतावनी दी थी कि सैन्य कार्रवाई के परिणाम ‘बेहद खतरनाक’ होंगे। निक्सन के विदेश मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने स्थिति का जायज़ा लेने के लिए एक बैठक की। यहीं पर निक्सन ने टिप्पणी की कि श्रीमती गांधी ‘कुतिया’ बन रही हैं और किसिंजर ने जवाब दिया कि ‘भारतीय तो वैसे भी कमीने होते हैं।’ उसी दोपहर श्रीमती गांधी ने राष्ट्रपति के साथ एक बैठक की। राघवन लिखते हैं, ‘उन्होंने दक्षिण एशियाई संकट का ज़िक्र ही नहीं किया। इसके बजाय, उन्होंने निक्सन से दुनिया भर में अमेरिकी विदेश नीति के बारे में पूछताछ की। किसिंजर ने बाद में लिखा कि उनके रवैये ने ‘निक्सन की सारी छिपी हुई असुरक्षाओं को उजागर कर दिया।’
3 दिसंबर को पाकिस्तान द्वारा हवाई हमले के बाद भारत ने युद्ध की घोषणा कर दी। दो दिन बाद श्रीमती गांधी ने निक्सन को पत्र लिखकर स्थिति से अवगत कराया। उन्होंने लिखा, “मैं आपको ऐसे समय में लिख रही हूं जब मेरे देश और मेरे लोगों पर गंभीर संकट और ख़तरा मंडरा रहा है। बांग्लादेश में स्वतंत्रता आंदोलन की सफलता अब पाकिस्तानी सैन्य तंत्र के दुस्साहस के कारण भारत के विरुद्ध युद्ध में बदल गई है।”
इंदिरा ने कहा, ‘संकट की इस घड़ी में, भारत सरकार और भारत की जनता आपसे सहानुभूति की अपेक्षा करती है और आपसे आग्रह करती है कि आप पाकिस्तान को उस अनियंत्रित आक्रमण और सैन्य दुस्साहस की नीति से तुरंत बाज आने के लिए मनाएं, जिस पर वह दुर्भाग्य से चल पड़ा है। मैं महामहिम से अनुरोध करती हूं कि आप पाकिस्तान सरकार पर अपने प्रभाव का प्रयोग करके भारत के विरुद्ध उसकी आक्रामक गतिविधियों को रोकें और पूर्वी बंगाल की समस्या की जड़ से तुरंत निपटें, जिसने न केवल पाकिस्तान, बल्कि पूरे उपमहाद्वीप के लोगों को बहुत कष्ट और परेशानी दी है।
लगभग दो हफ़्ते के अभियान के बाद पाकिस्तानी सेना ने 16 दिसंबर को सरेंडर कर दिया। ढाका के पतन के तुरंत बाद श्रीमती गांधी संसद पहुंचीं और घोषणा की कि अब यह एक ‘आज़ाद देश’ की टआज़ाद राजधानी’ है। राघवन लिखते हैं, ‘संसद में जयघोष गूंज उठा और उनकी हर पंक्ति पर तालियां बजीं। आने वाले दिनों में संसद में इंदिरा गांधी की प्रशंसा श्रद्धा के साथ की जाती… उनकी तुलना दुर्गा से की जाती।