शिवेंद्र राणा
अक्सर अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने के दावे तो किए जाते हैं, पर हकीकत में ऐसा नहीं हो पाता। यही वजह है कि 2004 के मुकाबले 2019 में बयासी प्रतिशत अधिक सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं। ऐसा नहीं कि इन सारे तथ्यों से हमारे राजनीतिक दल अनजान हैं। पर इन समस्याओं का निराकरण किसी नेता या राजनीतिक दल की प्राथमिकता में नहीं है। अब तक जो चुनाव सुधार हुए भी हैं, वे सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता और चुनाव आयोग की तत्परता के कारण संभव हो पाए हैं।
मताधिकार लोकतंत्र का आधारभूत तत्त्व है। इसका वास्तविक अर्थ तभी है जब चुनाव में निष्पक्षता हो। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने आठ राजनीतिक दलों पर इसलिए जुर्माना लगाया कि उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवारों के आपराधिक ब्योरे सार्वजानिक करने के उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन नहीं किया था। इस पर तल्ख टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘राजनीतिक व्यवस्था के अपराधीकरण का खतरा बढ़ता जा रहा है। इसकी शुद्धता के लिए आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को कानून निर्माता बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।’
इस मसले पर देश में संसद से सड़क तक गंभीर बहस होनी चाहिए थी, मगर इसे एक आम फैसले की तरह लिया गया। हमारे राजनेता मूल मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने और गैर-जरूरी मसलों पर बहस की कला बखूबी जानते हैं। अपराध और चुनाव का संबंध बड़ा पुराना है। सत्तर और अस्सी के दशक में जब जातिवादी राजनीति का प्रभाव बढ़ने लगा तब जातिवाद के सहारे उभरने का प्रयास कर रहे नेताओं ने अपने जाति विशेष के अपराधियों का इस्तेमाल बूथ लूटने, मतदाताओं को डराने-धमकाने, विरोधी दलों के प्रत्याशियों की हत्या कराने आदि में किया। फिर ये अपराधी राजनीतिक दलों और नेताओं की जरूरत बनते गए।
इन अपराधियों ने भी अपने राजनीतिक रिश्तों का इस्तेमाल करके अपनी समांतर सत्ता स्थापित कर ली। फिर इन अपराधियों को लगने लगा कि जब वे किसी को चुनाव जितवा सकते हैं तो खुद भी जीत सकते हैं, इससे उनको कानूनी संरक्षण भी मिल जाएगा। फिर नब्बे के दशक में इन अपराधियों ने स्वयं लोकसभा और विधानसभा चुनावों में ताल ठोंकनी शुरू कर दी। शुरू में क्षेत्रीय दलों ने इन्हें अधिक प्रश्रय दिया। इसके दो कारण थे। पहला, समाजवाद के परोक्ष प्रभाव में जातिवादी राजनीति का तेजी से उभार। ऐसे में जाति विशेष के अपराधी इन दलों के प्रभाव प्रसार में विशेष लाभकारी सिद्ध हुए। जो काम भाषणों, वादों, धन वितरण, प्रसिद्ध व्यक्तित्व या फिल्मी सितारे नहीं कर पाते थे, वह आसानी से बंदूक के बल पर हो जाता था। जब क्षेत्रीय दलों ने यह तीका अपनाया तो राष्ट्रीय दलों ने भी असामाजिक तत्वों को झाड़-पोंछ कर अपने यहां भर्ती करना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि धड़ल्ले से हर राजनीतिक दल के मार्फत गुंडे और डकैत ‘माननीय’ बनने लगे।
सबसे आश्चर्यजनक, जेल से चुनाव लड़ने का अधिकार है। अगर सजायाफ्ता लोग चुनाव लड़ सकते हैं, तो फिर देश के सारे कैदियों को मतदान का अधिकार दे दिया जाना चाहिए। आज तक किसी भी पार्टी ने इस विषय पर कोई गंभीर विचार नहीं किया। बल्कि उच्चतम न्यायालय के फैसले का सर्वदलीय बैठक में वामपंथी और दक्षिणपंथी सभी दलों ने एक स्वर में विरोध किया था। बात न्यायपालिका द्वारा अपने अधिकारों के अतिक्रमण तक पहुंच गई थी। कोई भी इन अपराधियों को संसद और विधानसभा जाने से रोकने के मूल मुद्दे पर बात करने को तैयार नहीं था। इन अपराधियों को पोसने वाली पार्टियों के पास एक सरल तर्क होता है कि ये मुकदमे फर्जी और विरोधियों की साजिश हैं। इस तरह समय के साथ लोकतंत्र के मंदिर में अपराधियों की आमद बढ़ती गई।
अक्सर अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने के दावे तो किए जाते हैं, पर हकीकत में ऐसा नहीं हो पाता। यही वजह है कि 2004 की चौदहवीं लोकसभा में 128 दागी उम्मीदवार संसद पहुंचने में सफल रहे। इनमें से अट्ठावन माननीय सांसद ऐसे थे, जिनके खिलाफ हत्या, हत्या की कोशिश या बलात्कार जैसे गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे। 2009 की पंद्रहवीं लोकसभा में चुन कर आए 162 (29.83 प्रतिशत) सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। इस लोकसभा में चौदहवीं लोकसभा के मुकाबले छब्बीस प्रतिशत अधिक आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसद चुन कर आए थे। इनमें से छिहत्तर माननीयों के खिलाफ गंभीर प्रकृति के आपराधिक मामले दर्ज थे। 2014 की सोलवीं लोकसभा में चुन कर आए कुल सांसदों में से 185 (34 प्रतिशत) के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। इनमें से 112 के खिलाफ गंभीर प्रकृति के मामले थे। 2019 की सत्रहवीं लोकसभा में चुन कर आए कुल सांसदों में से 233 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 159 के विरुद्ध गंभीर प्रकृति के मामले हैं। यानी 2004 के मुकाबले 2019 में बयासी प्रतिशत अधिक सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं।
ऐसा नहीं कि इन सारे तथ्यों से हमारे राजनीतिक दल अनजान हैं। पर इन समस्याओं का निराकरण किसी नेता या राजनीतिक दल की प्राथमिकता में नहीं है। अब तक जो चुनाव सुधार हुए भी हैं, वे सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता और चुनाव आयोग की तत्परता के कारण संभव हो पाए हैं। मसलन, अक्तूबर 2018 में चुनाव आयोग ने प्रत्याशियों के लिए अनिवार्य कर दिया था कि वे पूरे चुनाव के दौरान कम से कम तीन बार टेलीविजन और अखबारों में अपने आपराधिक ब्योरों का विज्ञापन करें। साथ ही आयोग ने यह भी स्पष्ट किया था कि इन विज्ञापनों का खर्च भी प्रत्याशियों को वहन करना होगा, क्योंकि यह ‘चुनाव खर्च’ की श्रेणी में आता है। मगर देश के राजनीतिक दल इन सुधारों को पलटने की कला भी बखूबी जानते हैं। मसलन, वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने पटना उच्च न्यायालय के उस आदेश को बहाल रखा, जिसमें कहा गया था कि एक व्यक्ति को जेल या पुलिस हिरासत में होने पर मतदान का अधिकार न हो, वह निर्वाचक नहीं है।
इससे अपराधियों के निर्वाचन पर अंकुश लगने की संभावना बढ़ी। पर राजनीतिक दलों को यह पसंद नहीं आया इसलिए संसद या विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में नए प्रावधान जोड़े गए। इसमें पहला प्रावधान था कि हिरासत में होने के कारण मतदान से रोके जाने पर भी अगर व्यक्ति का नाम मतदाता सूची में दर्ज है, तो उसे चुनाव लड़ने से नहीं रोका जा सकता। दूसरा प्रावधान था कि किसी सांसद और विधानसभा सदस्य को तभी अयोग्य माना जाएगा जब उसे इस अधिनियम के तहत अयोग्य ठहराया जाए, किसी अन्य आधार पर नहीं। इन संवैधानिक प्रावधानों को इन अपराधियों और इनके संरक्षक दलों ने अपनी ढाल बना लिया है।अब चुनाव सुधार की दिशा में कुछ उपाय तुरंत किए जाने की आवश्यकता है। पहला, विधानसभा और लोकसभा के उम्मीदवारों के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता स्नातक निर्धारित होनी चाहिए। दूसरा, उन्हें पंचायत और निकाय चुनावों का अनुभव होना चाहिए। तीसरा, अगर कोई प्रत्याशी या विधायक-सांसद किसी न्यायालय द्वारा दोषी करार दिया जाता है, तो उसे टिकट देने वाले राजनीतिक दल पर दंड रोपित किया जाना चाहिए। चौथा, चुनाव को पूरी तरह सरकार के खर्च पर संपन्न कराया जाना चाहिए। 1998 में इंद्रजीत गुप्ता समिति ने इसे जनहित में कानूनी रूप से उचित माना था।
पांचवा, चुनावी हलफनामे में फर्जी सूचना पाए जाने पर प्रत्याशी को आजीवन प्रतिबंधित करने और उसके दल पर भी जुर्माना लगाया जाना चाहिए, क्योंकि उस दल की प्राथमिक जिम्मेदारी थी उसे उम्मीदवार बनाने से पहले उसकी पृष्ठभूमि के बारे में जानना। छठवां, जनता को ‘राइट टु रिकॉल’ की सुविधा प्रदान की जाए। क्योंकि इसके बिना माननीय जनप्रतिनिधि सुधरने वाले नहीं हैं। सातवां, नोटा को प्रभावी रूप से लागू किया जाए, ताकि राजनीतिक दल प्रत्याशियों की चयन प्रक्रिया में सुधार करें। इसके अलावा इन सुधारों में जनता की भागीदारी। संविधान निर्माण के समय संविधान सभा की प्रक्रिया को जनापेक्षी बनाने के लिए जनता से भी सुझाव मांगे गए थे, तो फिर आज ऐसा क्या हो गया कि एक सौ तीस करोड़ से अधिक आबादी के भविष्य का निर्धारण चार-पांच सौ ‘माननीय’ ही करेंगे।