‘चलिए नई शुरुआत करते हैं’
भारत की अकादमिक संस्थाओं के अग्रदूत जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों और शिक्षकों पर नकाबपोशों के हमले के बाद दुनिया भर में साख गिरने के बाद कुलपति यह बयान देते हैं। उनका बयान बदला हुआ है। अपने पिछले बयान तक में वो फीस वृद्धि के खिलाफ सड़कों पर उतरे विद्यार्थी को अपराधी और दुश्मन की तरह देख रहे थे। पूरी दुनिया ने देखा कि जेएनयू के मुख्य द्वार पर छात्रों को मदद पहुंचाने के लिए पहुंची एंबुलेंस को तोड़ दिया गया। जंग के मैदानों में भी एंबुलेंस और घायलों को रास्ता देने की रवायत रही है। घायल विद्यार्थी और शिक्षकों के लिए पहुंची एंबुलेंस पर चलीं लाठियां और उसके बाद प्रदर्शनकारी विद्यार्थियों में ही अपराधी ढूंढ़ता जेएनयू प्रशासन। जिस जेएनयू के कारण हम वैश्विक जगत पर ज्ञान और विज्ञान के लिए नवाजे जाते हैं आज हम उसके अपराधी हैं।
अपने इसी स्तंभ में हमने जामिया मिल्लिया इस्लामिया की कुलपति को इस बात के लिए सलाम किया था कि वहां हिंसा के बाद उनकी भाषा एक अभिभावक की तरह थी। उन्होंने विद्यार्थियों को देश की सबसे बड़ी सार्वजनिक पूंजी बताते हुए पूछा था कि मेरे बच्चों के साथ ऐसी क्रूरता क्यों की। देश के विश्वविद्यालय राजनीतिक विचारधारा के संघर्ष के केंद्र बनते रहे हैं। कुलपति की यही भूमिका होती है कि वह संवाद का रास्ता अपना कर राह तैयार करें। लेकिन जेएनयू के कुलपति सूक्ष्म प्रबंधन में भी नाकाम रहे। घायल विद्यार्थियों और शिक्षकों के बारे में हमदर्दी के दो बोल भी इतनी देरी से बोले कि उसे न बोले में ही गिना जाएगा। समय बीतने के बाद निकली आवाज चुप्पी के खाते में दर्ज तो होती ही है उसे पीड़ितों के खिलाफ भी माना जाता है।
एचसीयू, एएमयू, जाधवपुर विश्वविद्यालय और जेएनयू को बंद करने की मांग ऐसे होने लगती है जैसे इस देश को शिक्षण संस्थानों की जरूरत ही नहीं है। सत्ता पक्ष के किसी से भी बात करो तो जेएनयू को बंद कर दो, एएमयू को बंद कर दो के नारे लगा देता है। बंगाल से जुड़े भाजपा के नेता जाधवपुर विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के प्रति अपनी नफरत जाहिर करते रहे हैं। जिस जेएनयू के कारण वैश्विक अकादमिक मंचों पर हमारी नाक बची हुई है आखिर उससे इतनी नफरत और भय क्यों है?
अरावली की वादी में लाल पत्थरों से बने भवन में छात्र निर्भीक होकर कहते हैं कि व्यवस्था को हमसे डर इसलिए लगता है क्योंकि जेएनयू सोचता है, जेएनयू सवाल करता है। जेएनयू कठपुतली नहीं नागरिक तैयार करता है। जेएनयू छात्र आंदोलन की मशाल लेकर चलता है जो देश भर के नागरिक आंदोलन में तब्दील हो जाता है। जेएनयू के छात्रसंघ का ढांचा देखिए। लड़कियां आंदोलन का नेतृत्व करती हैं, लड़के उनके पीछे डफली बजाते, गीत गाते चलते हैं। यहां के विद्यार्थी आंदोलन में तोड़-फोड़ नहीं करते हैं लेकिन जब अराजक तत्त्व इन विद्यार्थियों पर पत्थर चलाते हैं तो उस पत्थर के आगे वहां के शिक्षक अपना सिर आगे कर देते हैं। सवाल उठता है कि क्या पूरे देश में जेएनयू ही एक मुद्दा है। बिल्कुल नहीं। सवाल यह है कि पूरे देश के शहरों, कस्बों, गांवों में जेएनयू क्यों नहीं है। जेएनयू के छात्रों की यही मांग है कि फीस और शिक्षा नीति ऐसी हो कि भारत के हर नागरिक को एक जेएनयू मिल सके।
भाजपा की अगुआई वाले राष्टÑीय जनतांत्रिक गठबंधन के दो बार के कार्यकाल में बस मानव संसाधन विकास मंत्रालय के चेहरों पर नजर डाल ली जाए तो सत्ता और विश्वविद्यालयों के बीच के टकराव का चित्र साफ उकेरा जा सकता है। सबसे पहले स्मृति ईरानी को यह महकमा मिला था और उन्होंने विश्वविद्यालय परिसरों के लिए आक्रामक तेवर और भाषा अख्तियार किया। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय से लेकर जेएनयू तक पर सत्ता पक्ष से जुड़े नेताओं की ओर से हमले होने लगे। अपने एक पांच साल और इधर छह महीने के कार्यकाल में इस सरकार ने कितने नए विश्वविद्यालय दिए यह तो नहीं पता नहीं लेकिन जो भी कम संसाधनों से जूझ रहे बचे हुए हैं उन्हें बंद करने, वहां के विद्यार्थियों को पाकिस्तान भेजने की बात जरूर होने लगी।
सत्ता ने अहंकार और संवादहीनता का जो रास्ता अख्तिायर किया है, उसके द्वारा नियुक्त कुलपति उनके प्रतिनिधि के रूप में ही काम करते लग रहे हैं। ऐसा हर सत्ता में होता है। लेकिन इससे पहले तक कुलपति एक समावेशी चेहरा रख सबसे बातचीत का माहौल तो तैयार करने की कोशिश करते थे। लेकिन अब तो चलन हो गया है कि अपराधी नकाबपोश हो जाएं और कुलपति हर तरह के नकाब उतार कर सीधे बताएं कि हां जी हम कठपुतली हैं। अखबार की पड़ताल बताती है कि जेएनयू के कुलपति उस फर्जी ट्वीट को आगे बढ़ाते हैं जिसे सत्ता पक्ष से जुड़ा आइटी सेल बढ़ाता है।
जेएनयू प्रशासन के साथ दिल्ली पुलिस ने गैरजिम्मेदारी का इतिहास रचा है। दुनिया के विख्यात विश्वविद्यालय में उपद्रवी तीन घंटे तक शिक्षकों और छात्रों पर जानलेवा हमले करते रहे और सौ से ज्यादा की संख्या में पुलिस विश्वविद्यालय गेट के बाहर तमाशा देखती रही। यह वही पुलिस है जिसने जेएनयू के दृष्टिबाधित छात्र को भी इसलिए पीटा क्योंकि वह प्रदर्शन के लिए निकला था। पुलिस का सारा बल विद्यार्थियों के खिलाफ खड़ा कर दिया गया और अराजक तत्त्वों को खुली छूट दे दी गई। पुलिस के इसी रवैए के कारण आश्चर्यजनक तरीके से कोई गुमनाम सा हिंदू रक्षा दल सामने आकर विश्वविद्यालय परिसर में हमले की जिम्मेदारी भी ले लेता है।
सत्ता की कठपुतली बने कुलपति के शासन में जेएनयू ने पिछले पांच दशक का सबसे हिंसक हमला झेला है। आरोप है कि कुलपति की नियुक्ति खास तौर से जेएनयू का चरित्र बदलने के लिए की गई थी। लेकिन जेएनयू की बुनियाद इतनी मजबूत है कि उसने कुछ ही महीनों में पूरे देश का चरित्र बदल दिया। नकाबपोश अपराधियों के हमले के बाद कुलपति बेनकाब हो गए और पूरी दुनिया के अकादमिक संस्थान उन्हें खारिज कर जेएनयू के साथ खड़े हो गए हैं। पिछले कुछ समय से आम लोग जो जेएनयू को शक की निगाहों से देखने लगे थे ताजा हमले के बाद अब इन सोचने-समझने वाले विद्यार्थियों के साथ खड़े हो गए। फीस वृद्धि और नई शिक्षा नीति के बाद जेएनयू के विद्यार्थियों ने नागरिकता कानून पर भी सवाल उठा कर इस मुद्दे को उन कॉलेजों तक पहुंचा दिया जहां मलबा बनने के स्तर पर इमारत है। शिक्षकों और पुस्तकालय से महरुम कॉलेजों के विद्यार्थी जेएनयू बचाने की मांग कर रहे हैं।
विश्वविद्यालय संस्थान लोकतंत्र की पौधशाला होते हैं। सत्ता और उसके प्रतिनिधियों को नागरिकशास्त्र का अहम सिद्धांत याद रखना चाहिए कि नागरिकों को सरकार का विरोध करने का अधिकार होता है, सरकारें नागरिकों के विरोध में खड़ी नहीं हो सकती हैं। जैसे ही वे अपने ही विद्यार्थी और शिक्षकों के विरोध में खड़े हुए दिखाई दिए तो पूरी दुनिया उनके खिलाफ खड़ी हो गई है।
लोकतंत्र तब सबसे कमजोर होता है जब विश्वविद्यालय परिसर असुरक्षित हो जाते हैं। जो जेएनयू भारत की विविधता और संविधान का आईना बना आज कराह रहा है। अब यह सत्ता और उसके प्रतिनिधि के हाथ से निकल कर अवाम का मामला बन गया है। जेएनयू ने देश को जो दिया, देश ने उसे लौटाया है। अब तो सत्ता पक्ष के मार्गदर्शक भी यह कह चुके हैं कि सरकार जेएनयू में संवाद चाहती थी लेकिन कुलपति ने ऐसा होने नहीं दिया। सरकार जेएनयू के विद्यार्थियों की मांग अपने स्तर पर मानने को तैयार हो रही थी तो कुलपति ने वहां भी हठधर्मिता दिखाई। शायद ऐसे ही बेसाख और बेनकाब शासक-प्रशासक को लेकर कभी लिखा गया था
‘कुर्सी है तुम्हारी ये जनाजा तो नहीं है
कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते’
अफसोस है कि पूरी दुनिया ने कठपुतली नचाने वालों के हाथ देख लिए। अब भी कुर्सी से उतरेंगे या नाकामी के बाद आपकी डोर ही काट दी जाएगी।