भारत समेत विश्व के तमाम देश तालिबान की कामयाबी के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनका यह साफतौर पर मानना है कि चरमपंथियों को पाकिस्तान ने खासकर उसकी बदनाम खुफिया एजेंसी आइएसआइ ने तैयार किया है। साल 2018 में इमरान खान के प्रधानमंत्री बनने के बाद पाकिस्तान और तालिबान के रिश्ते अच्छे रहे हैं। कई देशों की सरकारें फिलहाल तालिबान से संबंध स्थापित करने के लिए स्पष्ट रूप से सकुचा रही हैं। इस चरमपंथी गुट के सऊदी अरब और खाड़ी के अन्य देशों से संबंध रहे हैं, हालांकि वे उतने करीबी नहीं कहे जा सकते हैं।

जिस एक देश के साथ तालिबान का रिश्ता सबसे नजदीकी वाला कहा जा सकता है, वह चीन है, जिसने तालिबान को लेकर जरा-सा भी संकोच नहीं दिखाया। जिस तरह से आम अफगान लोग देश छोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, यह तय है कि अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था धराशायी होने जा रही है। सन 1996 से 2001 के बीच तालिबान जब सत्ता में था, तब भी ऐसा ही हुआ था। ऐसे हालात में अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था को पटरी पर रखने के लिए उसे चीन की आर्थिक मदद की जरूरत पड़ेगी। इसका मतलब यह होगा कि तालिबान की नीतियों पर चीन का खासा असर होने जा रहा है।

यह बात पक्के तौर पर कही जा सकती है कि चीन अपनी मुसलिम आबादी और वीगर लोगों के साथ किस तरह का बर्ताव करता है, तालिबान उसे इन मुद्दों पर चुनौती नहीं देगा। पिछले बीस साल तक अफगानिस्तान की मदद करने वाले अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, भारत और दूसरे देशों के लिए तालिबान का सत्ता में आना दुर्भाग्यपूर्ण साबित हुआ है। इस बदलाव ने भारत की अफगान नीति को भी ऐसे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां से आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता है।

भारत ने अफगानिस्तान में काफी निवेश कर रखा है। हामिद करजई और अशरफ गनी की सरकार पर भारत का अच्छा प्रभाव रहा था। दोनों ही नेताओं ने पाकिस्तान को साधने के लिए भारत का सहारा लिया था। लेकिन अब यह सब कुछ खत्म हो गया है। पिछली बार तालिबान जब सत्ता में था तो अंतरराष्ट्रीय ताकतों का रवैया उसे लेकर अछूत की तरह था। अगर चीन यह फैसला करता है कि उसे अफगानिस्तान में आर्थिक और राजनीतिक बढ़त हासिल करनी है तो तालिबान और अधिक सशक्त हो जाएगा।
’आशीष कुमार मिश्रा, चित्रकूट, उप्र

अंग्रेजी के रास्ते

एक मैकाले द्वारा थोपी अंग्रेजी से हम भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश सहित दुनिया के अनेक देशों में रहने वाले तमाम शासित रहे लोग आज तक चिपके हुए हैं। वजह सिर्फ इतनी है कि हमारे अंदर उस ‘मैं’ की कमी है जो मैकाले के नाम और वर्ग में था और जो इंसान को खुद्दार बनाता है। जितनी मेहनत हम लोगों ने लगभग पिछले एक सौ छियासी वर्षों में अंग्रेजी को सीखने के लिए की, उससे लगभग एक चौथाई मेहनत हम हिंदी के विकास के लिए करते तो आज हिंदी बोध और शोध, दोनों में अग्रणी होती और हमें हिंदी दिवस और पखवाड़े मनाने की रस्म अदायगी न करनी पड़ती।
’सुभाष चंद्र लखेड़ा, द्वारका, नई दिल्ली</p>