कई राज्यों में पॉलीथिन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। लेकिन आज भी इसका प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। न तो किसी व्यक्ति को बढ़ते प्रदूषण की चिंता है और न सरकार को। जबकि इसकी चारों ओर चर्चा है कि प्रदूषण से किस तरह के खतरे पैदा हो रहे हैं। सच यह है कि सरकारें जितना कर रही हैं, उससे ज्यादा आम जनता को भी जागरूक होने की जरूरत है। इसके लिए सरकार को भी जन जागरूकता अभियान चलाना चाहिए। प्लास्टिक थैलियों का निपटान अगर सही ढंग से नहीं किया जाता है तो वह नालियों में जाकर जमा हो जाती है। इसका नतीजा यह होता है कि ये नालियों में रुकावट पैदा कर पर्यावरण को हानिकारक बना देती हैं। इससे कई तरह की बीमारियां भी पैदा होती हैं। दुबारा उपयोग किए गए अथवा रंगीन प्लास्टिक थैलियों में ऐसे विषैले पदार्थ होते हैं जो छन कर जमीन में पहुंच जाते हैं और इससे मिट्टी और भूमि के अंदर का जल विषैला बन सकता है।
जिन उद्योगों में पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर तकनीक वाली रि-साइकिलिंग या पुनर्चक्रण की सुविधाएं नहीं लगी होतीं, वे काम के बाद पैदा होने वाले विषैले धुएं से पर्यावरण के लिए समस्याएं पैदा कर सकते हैं। प्लास्टिक की जिन थैलियों में बचा हुआ खाना पड़ा होता है या जो अन्य प्रकार के कचरे में जाकर गड्डमड्ड हो जाती हैं, उन्हें पशु अपना आहार बना लेते हैं। इसका नतीजा पशुओं की भी सेहत के लिए नुकसानदायक हो सकता है, क्योंकि प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जो आसानी से मिट्टी में घुल-मिल नहीं सकता। उसे अगर मिट्टी में छोड़ दिया जाए तो वह भूमि के अंदर के जल की रिचार्जिंग को रोक सकता है।
इसके अलावा, प्लास्टिक उत्पादों के गुणों के सुधार के लिए और उन्हें मिट्टी से घुलनशील बनाने के इरादे से जो रासायनिक पदार्थ और रंग आदि उनमें आमतौर पर मिलाए जाते हैं, वे मनुष्य, जंतुओं के जीवन पर बुरा प्रभाव डालते हैं। विडंबना यह है कि प्लास्टिक और पॉलीथिन पर पाबंदी के नियम घोषित रहते हैं, लेकिन उस पर अमल की जरूरत बहुत कम लोगों को महसूस होती है। अगर हम पर्यावरण को स्वच्छ बनाएं तभी प्रदूषण की चिंता से मुक्त हो सकते हैं।
शशांक वार्ष्णेय, दिल्ली</strong>
न्याय का स्वर: समाज में सामाजिक न्याय का सवाल हमेशा से ही उठता रहा है। सामाजिक विकास की सीढ़ी को वर्गीय आधार पर जिस तरह परिभाषित किया जाता रहा है, उसने हाशिये के समाज को जन्म दिया। यह आधार जुड़ा हुआ है राजनीति से। राजनीति में सामाजिक न्याय की परिभाषा में आने वाले वर्ग को बड़ा वोट बैंक माना जाता है। यों समूचे देश की तस्वीर कोई बहुत अलग नहीं है, लेकिन मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में हाशिये पर रहने-जीने वालों की एक बड़ी तादाद है। इस बार लगभग हर पार्टी के नेताओं ने इन राज्यों का जातीय समीकरण के आधार पर यह आकलन कर रखा है कि किस जाति की कितनी जनसंख्या है और उनके कितने वोट हो सकते हैं। उन्हें यह देखने की जरूरत नहीं लगती कि समाज में कितने प्रतिशत लोग बेरोजगार हैं, अभाव से जूझ रहें हैं। बहुत सारे लोगों को अभी भी अपने अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं है। इसीलिए राजनीतिक पार्टियां लोगों को जागरूक करने की कोशिश करें तो ज्यादा बेहतर हो।
आरक्षण की मनमानी व्याख्या के बजाय अगर इसी ऊर्जा का उपयोग वंचित तबकों की समस्या के समाधान करने में किया जाता तो अच्छा होता। संविधान में आरक्षित सीटों की व्यवस्था इसलिए की गई है कि हाशिये पर जीने वाले लोग यानी अन्य पिछड़ी जातियां या अनुसूचित जाति-जनजाति के लोग खुद को सामान्य से कम नहीं समझें। हर पार्टी उनकी जनसंख्या और उन्हें उपलब्ध संसाधन देख रही है। उनके बीच बेरोजगारी क्यों बढ़ती जा रही है? उन्हें सामान्य साधन भी नहीं मिल पाते क्यों? कमी जागरूकता की है। उन्हें उनके अधिकार के बारे में जानकारी ही नहीं। इस पर ध्यान देने की जरूरत है।
शादमा मुस्कान, दिल्ली
खतरे का बुखार: निमोनिया के कहर से आज भी दुनिया को निजात नहीं मिल पायी है और और निकट भविष्य में यह मुश्किल कम होने के आसार नहीं है। फिर भी इसके प्रति लोग सजग नही हो रहे है! ब्रिटेन के अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन ‘सेव द चिल्ड्रेन’ द्वारा बारह नवंबर, यानी विश्व निमोनिया दिवस पर जारी रिपोर्ट के मुताबिक निमोनिया के चपेट में आकर 2030 तक भारत में लगभग सत्रह लाख बच्चों की जान जा सकती है। हाल ही में आई रिपोर्ट के मुताबिक संक्रामक रोगों के इलाज के इंतजाम के बावजूद भारत, पाकिस्तान, नाइजीरिया, और कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य जैसे देशों में निमोनिया से होने वाले मौतों का आंकड़ा सबसे अधिक है।
यह सोचने वाली बात है कि दुनिया में 2030 तक पांच साल से कम उम्र के लगभग 1.10 करोड़ बच्चों की जान इस संक्रमण से जा सकती है! डॉक्टरों का मानना है कि इसकी दवा बहुत सस्ते दामों पर उपलब्ध है, लेकिन लोगों की लापरवाही और उपचार के अभाव में बच्चे की मौत हो रही है। इसलिए हर समय सतर्क रहने की जरूरत है और अपने बच्चों का खयाल रखा चाहिए। अगर बच्चे में निमोनिया के शुरुआती लक्षण दिखाई देते है तो बिना देर किए उसका इलाज कराना चाहिए। रोग होने से पहले उससे बचाव सबसे अच्छा रास्ता है।
रवि रंजन मैक्यू, पंजाब
बेलगाम बोल: आजकल कई छुटभैये नेताओं के मुंह से असीमित अनर्गल शाब्दिक बाण निकल रहे हैं! इससे सामाजिक माहौल दूषित होने के साथ-साथ ‘ध्वनि प्रदूषण’ भी आसमान छू रहा है। काश, ऐसे बोल-वचन पर भी ‘जीएसटी’ लग जाता, ताकि ये लोग सीमा में ही बोलते।
समरथ पाटीदार, रांकोदा, रतलाम
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