संसद का शीतकालीन-सत्र कोई हासिल दिए बगैर ही संपन्न हो गया। लोकसभा अध्यक्ष अपील करती ही रह गर्इं और सांसद काम निबटाए बगैर अपने-अपने घरों को रवाना हो गए। शोर-शराबा, हो-हल्ला और आरोप-प्रत्यारोप ने दोनों ही सदनों की गरिमा को मुद्दों पर वांछित सहमति-असहमति से ज्यादा छींटाकशी और कटुतापूर्ण आपसी वैमनस्य-भाव रखने का अप्रिय सबक दे दिया। जन-हितैषी मुद्दे और राष्ट्र-हितैषी बिल सार्थक बहसों के अभाव में कानून बनने से वंचित रह गए। राष्ट्र-हित गौण हो गए और पार्टी-हित राष्ट्र से भी बड़े हो गए।

विगत दो सत्रों के दौरान संसद के दोनों ही सदनों में घोटालों में लिप्तता के परस्पर आरोपण किए गए। आश्चर्य तो यह है कि घोटालों में लिप्तता के आरोपण के बदले आरोपित पक्ष ने अपनी निर्लिप्तता की प्रतिरक्षण दलीलें प्रस्तुत करने के बजाय प्रतिपक्ष पर ही प्रति-घोटाले आरोपित कर अपना बचाव कर लिया। मतलब घोटाले के जवाब घोटाले के आरोपों ही से दिए गए। या कहें घोटालों की प्रत्युत्तर में घोटालों की ही दलीलें दी गर्इं। बगैर यह सोचे कि इसके परिणामस्वरूप देश की आम जनता कितनी हताहत हुई है। क्या यही पालकीय और राजकीय धर्म से जुड़ी प्रजातांत्रिक जिम्मेदारी है?

सवाल यह भी है कि घोटाला अगर एक सामाजिक या आर्थिक बुराई है तो क्या बुराई का अपना कोई निज-अस्तित्व नहीं होता। आपने घोटाला किया है तो क्या मुझे भी इस बिना पर घोटाला करने का नैतिक अधिकार मिल जाएगा। अगर आप खराब हैं तो क्या मुझे भी खराब होने का लाइसेंस मिल जाना चाहिए। यहां होड़ तो यह लग रही है कि तेरे घोटाले से मेरा घोटाला सफेद (कमतर) कैसे। या फिर, तूने घोटाला किया तो मेरे घोटाले को बदनाम क्यों किया जा रहा है। इस अनैतिक लेनदेन के भाव से एक घोटाले के एवज में दूसरे घोटाले को करेंसी-सा चलाने का उपक्रम किया जा रहा है। किसी ने एक घोटाला उठाया तो क्या जरूरी है कि हम उससे कहें कि तुम्हारे कार्यकाल में भी तो घोटाला हुआ था। क्या इसी बिना पर मेरे घोटाले को क्लीन-चिट मिल जाएगी? हो यही रहा है कि किसी भी बुराई को बुराई के रूप में शिनाख्त करने के बजाय बुराई को बुराई से खारिज करने का गैर-नैतिक प्रयास आपसी-समझदारी के तहत निभाया जा रहा है। दुखद यह भी है कि यह उपक्रम केवल एक दल-विशेष द्वारा नहीं, बल्कि देश के सारे जिम्मेदार दलों द्वारा किया जा रहा है।

इस सत्र में भी विगत सत्र की ही तरह कोई उपलब्धिपूर्ण काम नहीं हो सके। कुछ बिल अवश्य पारित हुए जिन्हें भी जानबूझ कर उत्पन्न किए गए अवरोधों की लोकलाज खातिर पर्दादारी ही कहा जाएगा। यह हमारे देश का दुर्भाग्य हो चला है कि यहां विपक्ष हमेशा ही आपसी सहयोग प्रदत्त करने के बजाय विघ्नसंतोषी अवतार ग्रहण कर लेता है। कल उन्होंने विपक्षी रहते काम न करने दिया था तो आज वे विपक्षी रहते काम नहीं करने देंगे। बस यही एक दुर्भावनापूर्ण मानसिकता दोनों सदनों में हावी रहती है। ऐसे में राष्ट्र-हित और देश की जनता के प्रति जिम्मेदारों के सरोकार काफी हद तक निंदनीय हो चले हैं। (राजेश सेन, अंबिकापुरी एक्सटेंशन, इंदौर)

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खेती की सुध
अगर यों ही चलता रहा तो पेट्रोल, डीजल और हथियारों के आयात के साथ हमें काफी बड़ी मात्रा में खाद्यान्न भी आयात करना पड़ सकता है! यह इसलिए कि कृषि क्षेत्र में वर्तमान पीढ़ी की रुचि दिन पर दिन कम होती जा रही है। आज के किसान खेती को घाटे का सौदा कहते हैं, जिसमें जोखिम ज्यादा और आय कम। एक तरफ रासायनिक खादों के कारण भले ही पैदावार बढ़ रही हो, लेकिन दूसरी तरफ उपजाऊ भूमि बंजर होती जा रही है। ज्यादा खाद्यान्न उत्पादन हो तो सरकार के पास भंडारण की समस्या है। किसान की मेहनत से कमाए हुए धन का एक बहुत बड़ा हिस्सा बिचौलिए खा जाते हैं। जिस तरह से आज खेतिहर भूमि का अधिग्रहण हो रहा है, रियल स्टेट, हाइवे, रेल लाइन और मॉल बन रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि कृषि क्षेत्र में उपजाऊ भूमि का रकबा तेजी से घट रहा है।

यह समझ से परे है कि सरकार राष्ट्रीय राजमार्गों (हाइवे) के विस्तार के लिए उसके दोनों तरफ काफी जमीन क्यों अधिग्रहण करती है। देश में पूरी तरह से कृषि क्षेत्र में कायाकल्प करने की जरूरत है, वरना जिस तरह देश की जनसंख्या में बढ़ोतरी दर्ज हो रही है, उसको देखते हुए न तो पैदावार करने के लिए खेत बचेंगे, न हल जोतने के लिए किसान। (आनंद मोहन भटनागर, लखनऊ)

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कुदरत के साथ
जलवायु परिवर्तन का यह दौर, मानव सभ्यता में संसाधनों की छीना-झपटी का नया दौर साबित हो रहा है। फलस्वरूप कहीं जल ही जल से जन-जीवन त्रस्त है, तो कहीं जल के अभाव में फसले सूख रही हैं। नतीजा? किसान कर्ज और बेबसी में आत्महत्या करने को मजबूर हैं। जलवायु परिवर्तन से प्रकृति का यह कृत्य कहीं से भी अनुचित नहीं है। प्रकृति संतुलन के लिए किसी भी हद तक जा सकती है, चाहे वह सुनामी हो या सैंडी। बहरहाल, अब वह समय आ गया है कि संसार प्रकृति प्रेमी बने, भौतिकतावादी और विलासितावादी जीवन से थोड़ा समझौता कर प्रकृति के साथ चले। तभी प्रकृति के साथ जीवन सुखमय गुजरेगा। (पवन मौर्य, बनारस)

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सूचना के अलावा
कल के विभिन्न समाचार पत्रों में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का बच्चों के नाम पत्र (विज्ञापन) पूरे पृष्ठ का छपा। बच्चे आमतौर अखबार नहीं पढ़ते, और न तो बच्चे कार ही चलाते हैं। हिंदी में छपा विज्ञापन शायद पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के बच्चों के लिए था। हिंदी के पत्र में जानकारी, संदेश, ज्ञान आदि काफी कम था, जबकि इंग्लिश में छपे पत्र में बहुत कुछ था। देश में हर कोई हिंदी वालों को अनपढ़ समझ, कम जगह देकर खानापूरी कर लेता है, जबकि हर कोई अंगरेजी वालों को ज्ञानी समझ और ज्ञानी बनाने का पूरा प्रयास करता है। हिंदी और अंगरेजी में छपे पत्र एक-दूसरे का सौ फीसद अनुवाद नहीं है। सरकार को भाषा के हिसाब से कोई भेदभाव नहीं करना चाहिए। आज भी बहुत-सी सरकारी सूचनाएं हिंदी अखबारों में नहीं छपतीं। ऐसा क्यों? (जीवन मित्तल, दिल्ली)