Bebak Bol: नब्बे के दशक के बाद से ही हर चुनाव के बाद कुछ और सरकारी अस्पतालों की हालत खस्ता हो जाती है, कुछ और सरकारी स्कूल बदहाली के खाते में दिख जाते हैं। सरकारी क्षेत्रों में कुछ और सुरक्षित नौकरियां खत्म कर दी जाती हैं। लेकिन चुनावों के समय कोई भी राजनीतिक दल यह नहीं बताता कि उसके कार्यकाल में जनता से कितना कुछ ‘सुरक्षित’ छीन लिया गया। शिक्षा और स्वास्थ्य पर घटते बजट पर चुप्पी साध कर जनता को मुफ्त चीजें और सुविधाएं देने का हल्ला मचाते हैं। तमिलनाडु में रंगीन टीवी से शुरू हुआ यह चलन इतना लोकप्रिय हुआ कि हर राजनीतिक दल ने इसे अपना लिया। जनकल्याणकारी योजनाओं पर मुफ्त की पर्ची चिपका कर उसे ‘रेवड़ी संस्कृति’ का नाम दे दिया गया। सरकार कमाई के क्षेत्र खोज नहीं पा रही है तो उसके खर्चे को अर्थव्यवस्था पर बोझ करार दिया जा रहा है। जनता से छीन ली गई सस्ती शिक्षा, सस्ती स्वास्थ्य व्यवस्था के बदले उन्हें कुछ मुफ्त देकर उसे रेवड़ी, भीख की श्रेणी में डाल देने वाली बढ़ती राजनीतिक प्रवृत्ति पर बेबाक बोल।
लोगों को समाज से लेने की आदत हो गई है। अब तो वे सरकार से भीख मांगने के भी आदी हो गए हैं। जब भी नेता लोगों के बीच आते हैं उन्हें मांग पत्रों का ढेर पकड़ा दिया जाता है। मंच पर माला पहनाई जाती है और फिर मांग पत्र दे दिया जाता है। यह अच्छी आदत नहीं है। हमेशा लेने के बजाय देने की मानसिकता विकसित करें।
-प्रह्लाद सिंह पटेल, पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री, मध्य प्रदेश
रेवड़ी से भीख तक…। भारतीय जनतंत्र में राजनीतिक दलों के लिए मुफ्त योजनाएं एक ऐसी भुलभुलैया बन गई हैं, जहां से वे प्रवेश तो कर गए हैं लेकिन यह नहीं मालूम कि अब निकलना कैसे है? जनकल्याणकारी योजनाओं में मुफ्त का घालमेल कर देने के बाद राजनीतिक दलों के नेताओं की जुबान से वही निकल जाता है जो मध्य प्रदेश के मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल बोल गए।
ये वही प्रह्लाद पटेल हैं, जिन्हें विधानसभा चुनाव में एक-एक वोट भाजपा के पक्ष में सुनिश्चित करने के लिए दिल्ली से मध्य प्रदेश भेज दिया गया। सांसद जी को विधायक का चुनाव लड़ने के लिए चुना गया। ऐसी विपरीत तरक्की के बाद भी उनमें कोई शहीदाना भाव नहीं उपजा और वे निकल पड़े घर-घर जनता से वोट मांगने।
आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया यानी कथित मुफ्त वाली राजनीति का हस्र यही
भाजपा या किसी अन्य दल के नेता जनता से वोट मांगते वक्त कुछ भी दावा कर सकते हैं। बात हो रही हो खेतिहर मजदूरों, किसानों की तो वे पाकिस्तान को तेरह दिनों में खाली करने का दावा भी कर सकते हैं। आपके पास आर्थिक नीति का कोई खाका नहीं हो लेकिन आप जनता के खाते में खटाखट, खटाखट, खटाखट पैसे डालने का खटराग शुरू कर सकते हैं। आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया यानी कथित मुफ्त वाली राजनीति का हस्र यही है कि सत्ता मिलते ही नेताओं को जनता भिखारी लगने लगती है। अपने मांग-पत्र थमाते नागरिक समूहों को शहीदों की शहादत याद दिलाई जाती है। जिस मंत्री को यह पता नहीं कि मंत्रिमंडल में उनके पद की उम्र कितनी है, कल वे सांसद रहेंगे या विधायक, वे जनता को इस तरह से भिखारी कह रहे हैं जैसे जनता को जो सुविधाएं दी जाती हैं उसका खर्च उनकी जेब से निकलता है।
पिछले एक दशक में जनता के साथ सबसे बड़ी राजनीतिक विडंबना है चुनाव के मैदान में ‘रेवड़ी’ का आ जाना। आजादी के बाद से ही भारत जैसे देश की राह आसान नहीं थी। देश के लोगों का पेट भरने से लेकर बांग्लादेश के शरणार्थी तक थे। तत्कालीन इंदिरा गांधी भूखी जनता के लिए अमेरिका तक पहुंच गईं थीं। भारत जैसे बड़ी जनसंख्या वाले लोकतांत्रिक देश में जनकल्याणकारी योजनाओं के बिना समावेशी विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: नेकी कर नगाड़ा बजा
भारतीय राजनीति में न तो गरीबी नई है और न बेरोजगारी। नई है वह ‘रेवड़ी’ जो ‘राझां राझां कर दी नी मैं आपै रांझा होई’ की मिसाल बन गई। जिस दल ने एक खास सरकार की योजना को ‘रेवड़ी’ कहा, उसने ही इन मुफ्त की योजनाओं के सहारे भारत के सबसे ज्यादा संसदीय सीटों वाले उत्तर प्रदेश में ‘लाभार्थी’ वर्ग खड़ा कर दिया।
आजादी के बाद से ही कमजोर तबके की जनता के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं आई थीं। ये योजनाएं जनता का हक होती हैं जो उनके दिए आयकर से ही चलती हैं। क्या ऐसा हुआ कि अस्सी करोड़ जनता को मुफ्त राशन देने के लिए किसी भाजपा सांसद या विधायक के वेतन या सुविधाओं में कटौती की गई? क्या किसी नेता को कहा गया कि आपने चुनावी घोषणा-पत्र में जो करोड़ों की संपत्ति का जिक्र किया है उसका आधा सरकारी खजाने में दो क्योंकि जनता को मुफ्त राशन देना है? बल्कि विधायक और सांसद बनने के बाद हर दल के नेताओं की संपत्ति में इजाफा ही होता है। फिर किस हक से कोई नेता ‘भीख’ और ‘फ्री फंड’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं?
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: मस्कसंदेश
राज्यों की अर्थव्यवस्था पर ‘रेवड़ी’ के भस्मासुर बन जाने के बाद उसकी आग से बचने के लिए भाग रहे राजनीतिक दलों के नेताओं से सवाल है कि क्या जनता चुनाव के पहले कागज पर लिखा-पढ़ी कर लाती है कि आपकी पार्टी हमें फलां-फलां चीज मुफ्त देगी तो हम वोट देंगे? होता तो इसका उल्टा है कि आप ऐसे वादों का घोषणापत्र लेकर आते हैं। घोषणापत्र में ज्यादा जान डालने के लिए आपने उसका नाम ‘संकल्प पत्र’ कर दिया। फिर अपनी ही की हुई घोषणा, संकल्प आपको भीख क्यों लगने लगते हैं। जब आपके राजनीतिक दल कथित भिक्षाओं से भरा संकल्प-पत्र लाते हैं तब आपकी आवाज क्यों नहीं उठती कि इस भीख से हम वोट नहीं मांगेंगे।
उसके पहले आपने अपने राज्य में आवाज क्यों नहीं उठाई थी कि बहनों को भीख देकर ‘लाडली’ मत बनाइए। ‘भिखारी’ भांजे-भांजियों के मामा मत बनिए। क्या आपको याद नहीं कि उन्हीं वादों के जरिए मध्य प्रदेश में लाई सीटों से केंद्र में राजग की सरकार बाल-बाल बची थी। आप अपने रणनीतिकारों से यह कहने का साहस क्यों नहीं कर पाते हैं कि राज्य के खजाने में इतने पैसे ही नहीं होंगे कि आप खाते में खटाखट दे पाएंगे।
राजनीतिक दलों को अच्छी तरह से देश की हकीकत पता है कि 2017-22 के दौरान ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय में मात्र नौ फीसद की वृद्धि हुई। पक्ष-विपक्ष किसी के पास भी रोजगार का कोई ढांचा नहीं है। राजनीतिक कार्रवाई के नाम पर या तो चुनाव जीते जा रहे हैं या हारे जा रहे हैं। सत्ता बदल जा रही है लेकिन रोजगार को लेकर हालत कहीं भी नहीं बदल पा रही है।
अर्थव्यवस्था पर भारी-भरकम आंकड़ों में जाने के बजाय जरा अपने मुहल्ले की मुख्य सड़क पर चले जाएं। वहां इतने बैटरी रिक्शा मिलेंगे कि आपका सिर चकरा जाएगा कि मोहल्ले की आबादी जितनी बैटरी रिक्शा हो गई हैं।
सवारियों को बिठाने के नाम पर रिक्शेवालों के बीच झड़प भी हो जाती है। इसके बावजूद ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो सोचते हैं कि पैदल चल कर ही बस पड़ाव तक पहुंच जाएं और दस रुपए बचा लें। वहीं रोजगार पर बात करते ही हमारे नेता कहने लगते हैं कि नौकरी मांगने नहीं देनेवाले बनो। आगे नौकरी मांगना भी भीख मांगने के खाते में डाला जा सकता है।
कहां से आएंगे नौकरियां देनेवाले? एक समय लगा था कि श्वेत और हरित क्रांति, कंप्यूटर क्रांति के बाद भारत में ‘स्टार्टअप’ क्रांति का नाम आएगा। महज एक दशक में ‘स्टार्टअप’ की भी कमर टूटने लगी है। नौकरियां देनेवालों को लग रहा अब हम कहां जाएं नौकरी मांगने।
एक तरफ भीख का ताना, दूसरी ओर जीएसटी की दर ने जनता की कमर तोड़ दी है। इस मामले में कोई भेदभाव नहीं है। गरीब आदमी भी अमीरों के जितना ही जीएसटी देता है। लगातार बढ़ते अप्रत्यक्ष करों को परदे के पीछे कर प्रत्यक्ष दर्शन के लिए मुफ्त योजनाओं को रख दिया जा रहा है। कोई राजनीतिक दल यह नहीं बताता कि उसके कार्यकाल में सरकारी अस्पतालों में इलाज नहीं मिल रहा, सरकारी स्कूल किस तरह बदहाली की हालत में हैं। जनता से सस्ती शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा जैसे बुनियादी हक को छीन कर उनके हाथ में कुछ नकद हस्तांतरित कर जनता को अर्थव्यवस्था पर बोझ बताया जा रहा है।
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सत्ता ढह चुकी है लेकिन उसके विकल्प में आई सरकार इस ढांचे को ढहाने का साहस फिलहाल नहीं कर सकती है। उसे अहसास है कि आम आदमी पार्टी के बरक्स एलान की गईं मुफ्त योजनाएं सरकार की सेहत का आयुष्मान कार्ड हैं। भूखी जनता के गुस्से से बचने के लिए सुरक्षा कवच है। कमजोर तबके की हालत इतनी खराब हो चुकी है कि मुफ्त राशन न दिए जाने से हालात विस्फोटक हो सकते हैं।
आज के राजनीतिक माहौल में जनता के भरोसे जनता को ही दी जा रही वाले ढांचे को देख जनता को यह भी डर लग सकता है कि सरकार अब कहीं भीख पर भी जीएसटी न लगा दे। भीख लेने वाले पर भी और देने वाले पर भी। इसे भी रोजगार का साधन बता हम कहने लगें-भिक्षाम देही…।