सुकरात मनुष्यता को ऐसा दर्जा बताते हैं जो अर्जित किया जाता है। यही बात समानता पर साबित होती है। समानता एक ऐसा दर्जा है जिसे विभिन्न सभ्यता व संस्कृतियों ने अपने संघर्ष से अर्जित किया है। सामंती युग में लोगों को जब समानता की जरूरत महसूस हुई तो उन्होंने अपने संघर्ष से लोकतंत्र को अर्जित किया और संविधान को इसकी सुरक्षा का जिम्मा दिया। हर लोकतंत्र की बुनियाद में समानता ही है। संसद में संविधान पर हुई बहस के बाद संतोष जताया जा सकता है कि सत्ता व विपक्ष दोनों संविधान के पाले में खड़े होने की कोशिश करते दिखे। मेरी कमीज तेरी कमीज से सफेद मार्का बहस में भी संविधान को लेकर सम्मान था। फिर संविधान को खतरा किससे है? खतरा है इसी के समांतर टीवी पर बहस कर रहे समाचार प्रस्तोताओं से जो जनतंत्र को बहुमतवाद में तब्दील करने की दलील दे रहे हैं। ये समाचार प्रस्तोता आजादी की लड़ाई से अर्जित संविधान की बुनियाद समानता के खिलाफ ध्वनि विस्तारक यंत्र की तरह काम कर रहे हैं। संविधान की बुनियाद समानता को समझने की कोशिश करता बेबाक बोल

विधान, संविधान, संविधान…विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका हर जगह इस शब्द की गूंज है। यह इतना आमफहम लग रहा जैसे बालपोथी में स से स्लेट नहीं स से संविधान पढ़ाया गया हो। खास कर पिछले आम चुनाव से लेकर राज्यों के चुनाव तक इसे सबसे ज्यादा बोला गया। हमारा संविधान वैसा ही है जैसा दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों का संविधान। इन दिनों संविधान को लेकर एक समानता और दिख रही है। भारत से लेकर अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक दल संविधान बचाने की बात कह चुनावों में उतर रहे हैं।

‘एंकरों’ के ध्येय से हिलती है संविधान की बुनियाद

सवाल यह है कि जब सत्ता और विपक्ष दोनों संविधान को बचाना चाहता है तो फिर संविधान को खतरा किस बात से है? चुनाव एक संवैधानिक प्रक्रिया है, संसद एक संवैधानिक संस्था है, फिर इन क्षेत्रों में संविधान खतरे में कैसे आ गया? ऊपर हमने संविधान, संविधान, संविधान रटने वाली तीन संस्थाओं की बात की तो कोई सजग पाठक पूछ सकता है कि चौथे खंभे यानी प्रेस को क्यों भूल गए? मकसद था आगे उसे विस्तार देना। आज संविधान जिस जगह सबसे ज्यादा खतरे में दिखता है वह है चौथे खंभे का अद्यतन रूप यानी समाचार चैनल और उसके समाचार प्रस्तोता। ‘एंकरों’ ने जिस तरह सत्ता पक्ष की पक्षकारिता को एकमात्र ध्येय मान लिया है उसी ध्येय से हिलती है संविधान की बुनियाद।

समाचार प्रस्तोताओं ने संविधान की किताब पढ़ी होती, या पढ़ कर उस पर चलने का इरादा किया होता तो आज समाचार चैनलों की स्क्रीन पर चलनेवाली सुर्खियां वैसी नहीं होतीं जैसी दिखती हैं। सवाल यही है कि क्या है संविधान की मूल भावना?

आओ एंकरों तुम्हें सुनाएं कहानी संविधान की…

कभी किसी समय इस देश में आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी। ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ। भारतीयों को क्यों जरूरत महसूस हुई आजादी की? आजादी की लड़ाई एक मूल्य आधारित लड़ाई थी। औपनिवेशिक शासन यानी गुलामी की अवस्था में नागरिकों से सबसे पहले छीना जाता है समानता का हक। जब आपके आस-पास नैतिक मूल्यों का उठान होता है तो सबसे पहले समानता का भाव ही आता है। एंकरों जरा याद करो, महात्मा गांधी की लड़ाई की कहानी की शुरुआत भी तो रेलगाड़ी के ‘दर्जे’ से हुई थी।

समानता के इसी मूल भाव के साथ शुरू हुई आजादी की लड़ाई। आजादी मिलने के बाद देश के नवनिर्माण में समानता को तीन संदर्भों में जोड़ कर देखा गया। एक राजनीतिक समानता और दूसरा सामाजिक समानता। आर्थिक समानता एक वृहत्तर बुनियाद की मांग रखती है तो इसे भविष्य के संदर्भ में ही देखा गया।

मानव समुदाय ने सामंतवाद से मुक्ति की राह तभी खोजी जब उसके लिए समानता का भाव सबसे अहम हो गया। आखिर कोई राजा क्यों हो और कोई प्रजा क्यों हो? सामंतवाद के खिलाफ समानता की इसी खोज ने लोकतंत्र की बुनियाद रखी। अंग्रेजों के खिलाफ भी भारतीय मानस की बुनियाद इसी तरह खड़ी हुई और हमारे इतिहास में आजादी का आधुनिक युग आ गया। इसी के साथ आया भारतीयों का अपना संविधान। संविधान ने समानता का भाव लाने के लिए ही संघवाद का ढांचा रखा।

पिछले दिनों संविधान के समांतर और उससे जुड़ा अहम मुद्दा रहा एक देश एक चुनाव का। पिछले कुछ सालों में टीवी एंकरों के लिए ‘एक’ इतना हसीन शब्द हो चुका है कि वो ‘अनेक’ शब्द को ही राष्ट्रविरोधी घोषित करने लगते हैं। अगर हम ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि अक्सर टीवी एंकरों का ‘राष्ट्रविरोधी’ विमर्श संविधान विरोधी दिखने लगता है। जब कथित विपक्ष के लोग उन्हें संंविधान की याद दिलाते हैं तो वो इसे अंगूर खट्टे हैं सरीखा बता देते हैं। क्या एंकर एक देश, एक चुनाव के बरक्स संघवाद के ढांचे को समझने और समझाने की कोशिश करते देखे गए?

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संविधान में संघवाद की अवधारणा विविधता में एकता को सुनिश्चित करने के लिए ही रखी गई थी। क्या आपने मुख्यधारा के समाचार प्रस्तोताओं से कभी यह सुना-चलिए आज समझते हैं क्या है संघवाद? हमारे देश में पंचायतों से लेकर राज्य और केंद्र के चुनाव होते हैं। एंकरों की बहस में सिर्फ लोकसभा केंद्रीय हो जाती है। पंचायत स्तर की बात करना शायद ‘राष्ट्रीय एंकरों’ के स्तर की ही न होती हो। लेकिन पंचायत का स्तर संविधान के लिए कितना अहम है यह तो हमें स्कूली किताबों में ही पढ़ा दिया जाता है।

जब एंकर एनसीईआरटी की किताब में मुसलिम शासकों के बारे में ये पढ़ा दिया गया, वो पढ़ा दिया गया, इतना महान बता दिया गया पर ध्वनि विस्तारक यंत्र लेकर गुंजायमान होते हैं तो क्या हम उनसे एक चीख-चिल्लाहट की फरमाइश संघवाद, समानता पर भी कर सकते हैं? भारतीय संविधान में बहुमत एक जटिल शब्द है लेकिन टीवी एंकरों ने उसका अति सरलीकरण कर दिया है। भारत विविधताओं से बना देश है। यहां अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक की पहचान भी जटिल है। कोई एक कौम फलां राज्य में बहुसंख्यक है तो फलां राज्य में वह अल्पसंख्यक हो जाती है।

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आज के दौर में सबसे अहम संदर्भ यही है कि आप बहुमत को कैसे देखते हैं? इसे केंद्रीकृत रूप में देखते हैं या विविध पहचानों के संघीय संदर्भ में। समाचार प्रस्तोता अपनी चीख-चिल्लाहट में संवैधानिक मूल्य को ही बदल दे रहे हैं। इसी वर्चस्ववादी बदलाव से मूल्यों की रक्षा करता है संविधान। टीवी का समाचार कहता है संख्या अहम है, मूल्य नहीं। संविधान हर नागरिक की निजता को सुरक्षा देता है। जब एंकर यह तय करते हुए दिखने लगें कि कहां पर नागरिक की निजता को कुचल देना ‘राष्ट्रहित’ में है तो संविधान खतरे में नजर आने लगता है।

उच्च कक्षाओं की पांच साल की शिक्षा विद्यार्थियों को समानता के बारे में जितना सिखा पाती है ये एंकर अपने एक घंटे के ‘विशिष्ट समय’ में विद्यार्थी सहित पूरे घर को समानता के मूल्यों यानी संविधान के खिलाफ खड़ा कर देते हैं।

संविधान पर सबसे बड़ा खतरा महसूस तब होता है जब एक न्यायमूर्ति तक समाचार प्रस्तोताओं की भाषा बोलने लगते हैं। वे संविधान को भूल कर बहुमतवाद को ही जनतांत्रिक मूल्य बताने लगते हैं। ध्यान रहे असंवैधानिक बात बोलने के लिए जज साहब महाअभियोग के आरोप से घिरे, सुप्रीम कोर्ट उनसे सवालतलब हुआ। जज की भाषा के खिलाफ जब सुप्रीम कोर्ट सवाल उठाता है तब हमें संविधान के प्रति आस जगती दिखती है। भयावह है कि ऐसी ही भाषा समाचार प्रस्तोता चौबीस घंटे बोल रहे हैं जो देश के नागरिकों के टीवी से लेकर मोबाइल तक में गूंजती रहती है।

चाहे लैंगिक आधार पर समानता का सवाल हो, जाति के आधार पर या धार्मिक आधार पर समानता का सवाल हो। समानता के ये अधिकार क्या इस बात से तय होंगे कि ज्यादा लोग क्या मानते हैं? औरतों को क्या पहनना चाहिए, किसी को क्या खाना चाहिए, किसी को कैसे रहना चाहिए क्या यह सब बहुसंख्यकवाद के आधार पर तय होगा?

देश की संसद में संविधान पर बहस हुई। बहस को सत्ता पक्ष और विपक्ष ने तेरी कमीज मेरी कमीज से सफेद वाली भावना से निपटा दिया। संतोष इस बात का है कि दोनों पक्ष संविधान के साथ खड़ा दिखने की कोशिश कर दूसरे को संविधान विरोधी बताता रहा। हम जानते हैं कि संविधान, संविधान, संविधान कहने वालों के लिए यह किताब भगवान सरीखी नहीं है। होती तो आज देश के समाचार प्रस्तोताओं की हालत यह नहीं होती कि वे हर शाम संविधान के खिलाफ खड़े हो जाते। कहानी का कथ्य-समाचार प्रस्तोताओं तक समाचार पहुंचे कि संविधान की मूल भावना समानता है।