पहाड़ भांप रहा था
मिरे इरादे को
वो इसलिए भी कि
तेशा मुझे उठाना था
-अख्तर शुमार
सम्मेद शिखर। पिछले दिनों जब जैन समुदाय के लोग सड़कों पर उतरे, तो यह नाम पूरे देश में गूंजने लगा। देश के जिस भी हिस्से में जैन समुदाय रहता है, वहां लोग सड़कों पर निकले और सम्मेद शिखर को पर्यटक-स्थल बनाने की झारखंड सरकार की योजना का पुरजोर विरोध किया।समुदाय से जुड़े मुनियों ने आमरण अनशन शुरू किया।
वर्तमान में सम्मेद शिखर का पर्यटनस्थल की तरह विकास नहीं हुआ है। पर्यटकों के लिए बहुत सुविधाएं नहीं हो पाने के कारण आस-पास के लोग सप्ताहांत मनाने वहां नहीं पहुंच पाते हैं। वहां मुख्यत: जैन तीर्थयात्री जाते हैं जो इस पहाड़ी को मोक्षस्थली मानते हैं। पारसनाथ की पहाड़ी पर स्थित सम्मेद शिखर को सरकार ने राजस्व कमाने के लिए मुफीद समझा और उसे पर्यटनस्थल बनाने के लिए प्रस्ताव पेश कर दिया। इस फैसले के बाद पूरा जैन समुदाय आंदोलनरत हो गया।
समुदाय का आरोप था कि पर्यटकस्थल बना देने से वहां की पवित्रता खत्म हो जाएगी। जैन समुदाय के आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार को सम्मेद शिखर पर पर्यटन गतिविधियां बढ़ाने की योजना को रोकने का आदेश देना पड़ा। यह दूसरी बात है कि अब आदिवासी समुदाय वहां पर अपना हक मांग रहे हैं।
जब जैन समुदाय सम्मेद शिखर को सरकारी योजना से बचाने की गुहार कर रहा था उसी वक्त पहाड़ से चीखें आने लगीं कि सरकार ने जोशीमठ को बचाने में बहुत देर कर दी। वहां पहाड़ों से लेकर खेतों और घरों तक में आई दरार के बाद लोगों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
जोशीमठ में जो कुछ हुआ, उसके बारे में पहले ही आगाह किया गया था
जोशीमठ को लेकर लंबे समय से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान समेत कई संस्थाओं ने सरकार को आगाह किया था। आज जो हुआ, वह कब और कैसे होगा इसके बारे में शोध-पत्रों में आशंका जताई जा चुकी थी। यह तो 1976 की बात है जब गढ़वाल जिले के उपायुक्त महेश चंद्र मिश्रा की अगुआई में जोशीमठ में भूस्खलन को लेकर जांच-समित का गठन किया गया था। यह बात उसी समय सामने आ गई थी कि हिमालयी जलवायु के खिलाफ हो रहे अनियोजित निर्माण की वजह से जोशीमठ को काफी नुकसान पहुंच चुका है। लेकिन, विकास का परिपत्र जारी कर आगे बढ़ चुकी सरकारों ने मिश्रा समिति की सिफारिशों के खिलाफ ही हर कदम उठाया जो जोशमीठ के विनाश की राह चौड़ी करने लगा।
जोशीमठ बदरीनाथ और हेमकुंड साहिब का प्रवेश द्वार है
खासकर विष्णुगाड़ में तपोवन जलविद्युत परियोजना को जोशीमठ के लिए बड़ा खलनायक साबित होने की आशंका जताई गई थी। जोशीमठ की संरचना परतदार चट्टानों से बनी है। विस्फोटकों का अत्यधिक इस्तेमाल इनकी परतों को अलग कर सकता है। इन सब तकनीकी और वैज्ञानिकी बातों को नजरअंदाज कर जोशीमठ को पर्यटकों के लिए ज्यादा से ज्यादा आसान बनाने की कोशिश की गई। जोशीमठ बदरीनाथ और हेमकुंड साहिब का प्रवेश द्वार है। उसके ऊपर औली को राजस्व का स्वर्ग बनाने के लिए पर्यटकों का कृत्रिम स्वर्ग बनाया जा रहा है। वहां कृत्रिम बर्फ जैसी चीजें अभी से आगाह कर रही हैं कि अभी भी और आगे बढ़ने से रुक जाना चाहिए।
आम तौर पर दुनिया की ज्यादातर सभ्यताओं का विकास नदी किनारे ही हुआ। नदियों के किनारे बसे मैदानी इलाकों की सभ्यताओं को अपने जीवन-यापन के लिए कड़ा संघर्ष नहीं करना पड़ता था। इन जगहों पर बीज बिखेर देने भर से फसल लहलहा उठती थी। आसान जिंदगी जीने वाली मैदानी सभ्यताओं ने कष्ट का महत्व समझने के लिए तीर्थ और तपस्या को अपनाया। कष्ट को ही मोक्ष का द्वार माना गया। लोग तीर्थ और तपस्या के लिए जीवन के उत्तरार्द्ध में जाते थे, गृहस्थ-जीवन की जिम्मेदारी पूरी होने के बाद। संतान का विवाह कर उन्हें गृहस्थी की जिम्मेदारी सौंप कर निकलते थे पहाड़ की ओर। नश्वर शरीर का ईश्वर से मिलन आसान कैसे हो सकता है। दुर्गम रास्तों से बदरीनाथ या केदारनाथ तक पहुंचने में नश्वर शरीर नष्ट हुआ तो उसे ईश्वर प्राप्ति के लिए मोक्ष माना जाता था।
धीरे-धीरे मैदान के लोगों ने पहाड़ पर बसे तीर्थ की राह को आसान बनाना शुरू कर दिया। अब जीवन के उत्तरार्द्ध में नहीं जीवन की शुरुआत में लोग मनोरंजन के लिए वहां जाते हैं। पहले लोग संतान की शादी करने के बाद जाते थे तो अब शादी के बाद मधुमास के लिए पहाड़ पसंदीदा जगह होती है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने कर्मचारियों के लिए पहाड़ों के होटलों की आकर्षक योजनाएं लेती हैं। तीर्थ की जगह पर लोग दफ्तर से मिले अवकाश का उत्सव मनाने के लिए जुटे होते हैं। सप्ताहांत की छुट्टी दो दिनों की होती है, इसके साथ एक-दो-दिन की और छुट्टी लेकर जल्दी दिल्ली और अन्य शहरों की ओर लौटना भी तो है। इसलिए पहाड़ को काट कर समतल सड़क और मैदानी लोगों के लिए होटल और विलासी आश्रयस्थल बनाने की होड़ है। जिन पहाड़ों से निकली नदियों से मैदान में पानी पहुंचा, सभ्यता के बीज फूटे वहां अब प्लास्टिक की नलियों से पानी पहुंचाया जा रहा है।
मैदान के सैलानियों की पसंदीदा शिमला का यह हाल हो चुका है कि गर्मी में मैदान की तरह गर्म हवा चलने लगी है। होटलों के साथ अब आम घरों में भी वातानुकूलित संयंत्र लगने शुरू हो गए हैं। सत्ता और मैदानी समाज ने शिमला के संकट से भी अभी तक आंखें मूंद रखी हैं।
सभ्यता का विकास करने वाले मैदानी लोगों के पास ही सत्ता की चाबी होती है। पहाड़ का क्या और कैसे होगा यह दिल्ली में बैठी सरकारें तय करती हैं। मैदान के चुनावों में बताया जाता है कि किस तरह पहाड़ के तीर्थ तक पहुंचने के लिए हवाईपट्टी और सड़कें बनाई गई हैं। यह चलन और जोड़ पकड़ता जा रहा है। पार्टी ‘अ’ ने अगर केदारनाथ पहुंचने के लिए एक सड़क बनाई तो अगले चुनाव में पार्टी ‘ब’ चार सड़क बनाने का वादा कर देगी।
एक कहेगी आप चौबीस घंटे में पहुंच सकते हैं तो दूसरी कहेगी हमने 12 घंटे में पहुंचाने का इंतजाम कर दिया। इसका असर यह होता है कि मैदान में सप्ताहांत में हर उस सड़क पर घंटों जाम लगता है जो पहाड़ों की ओर जाती है। पिछले दिनों नए साल पर दिल्ली के रास्ते शिमाला-मनाली पहुंचने के लिए लोग दस घंटे तक सड़क जाम में फंसे रहे।
मैदान के पर्यटकों ने शिमला को तो मैदानी गर्म आबोहवा दे दी है, अब इनका रुख बदरीनाथ-केदारनाथ की ओर है। पहाड़ कैसा हो यह बताने का हक पहाड़ से छीन लिया गया है। पर्यटन राजस्व का सबसे आसान जरिया है। लेकिन, 2013 में केदारनाथ में जो हुआ, क्या वह हम आसानी से भूल गए? केदारनाथ में सरकारों ने पर्यटन से जितना कमाया नहीं, उससे ज्यादा 2013 के बाढ़ और भूस्खलन में गंवा दिया।
सीमाई सुरक्षा से लगती पहाड़ी जगहों पर सड़क निर्माण की सामारिक मजबूरी समझी जा सकती है। लेकिन, हर मोड़ पर पहाड़ को काटना, पुल और सड़क का निर्माण पहाड़ों को भूसे की तरह बिखेर रहा है। जो देश केदारनाथ हादसा भूल कर पहाड़ी तीर्थस्थलों पर हवाईपट्टी और सड़क बनने के फीते कटने पर ताली बजा रहा है वह जोशीमठ की दरार की कराह को कितने दिन याद रखेगा? विकास, विकास और विकास की दिल्ली वाली परिभाषा की जुगाली कर पहाड़ जख्मी हो गए। पर्यटक तो अपने मनोरंजन के लिए दूसरी जगह खोज लेंगे, लेकिन जोशमीठ के उन लोगों का क्या होगा जिनके खेत से लेकर घर तक छिन गए। वे सरकार से बस यही कह सकते हैं-हमें बचाइए।
सम्मेद शिखर और जोशीमठ के दो उदाहरण सामने हैं। एक जगह जनता ने कह दिया कि नहीं चाहिए पर्यटकों वाली सुविधा, हम कष्ट झेल कर तप करेंगे। अब सरकार पहाड़ को बचाएगी या पहाड़ों को सरकार से बचाना है, यह तय करने का समय आ गया है। विकास वाले विपरीत मंजर देख कर भी अब नहीं तो कब बस करेंगे? तपस्या के लिए तप कीजिए, पैरों या पहाड़ी जानवरों के सहारे तीर्थ कीजिए, हवाईपट्टी और चौड़ी सड़कों को मैदान तक रहने दीजिए।