‘जितना हंगामा जियादा होगा
आदमी उतना ही तन्हा होगा’
दिल्ली और उत्तर प्रदेश से दूर बसे पश्चिम बंगाल में चुनाव था। भाजपा से जुड़े उत्तर भारत के कद्दावर नेताओं की तैनाती वहां कर दी गई थी। भाजपा से जुड़े नेता व कार्यकर्ता हर जगह जय श्रीराम के नारे लगा रहे थे और काली पूजकों की संस्कृति के लिए यह राजनीति जरा भी उकसाऊ नहीं थी। बहुत से बंगभाषी तो झंडे पर हिंदी में लिखे जयश्रीराम को पढ़ भी नहीं पाते थे। उसके पहले केरल में जब उत्तर प्रदेश के अग्निदूत नेता भाषण दे रहे थे तो भाजपा समर्थकों की भीड़ में से बहुत लोग पूछ रहे थे, ये कौन हैं। अभी हम राज्यों के विधानसभा चुनाव के इन हादसों से उबरे भी नहीं थे कि अखबार से लेकर जनसंचार का हर माध्यम त्रिपुरा-त्रिपुरा कर रहा था। दिल्ली दरबार से लगी कार्य-सूची को देख कर सबने वहां अपना-अपना मोर्चा संभाल लिया।
नार्थ-ईस्ट में उत्तर भारतीय नेता कर रहे प्रचार कार्य
क्या हमने उत्तर प्रदेश के किसी चुनाव में त्रिपुरा, मेघालय या नगालैंड के किसी नेता को चुनाव प्रचार करते देखा या सुना है? जवाब होगा नहीं। लेकिन अभी त्रिपुरा में वे सभी नेता चुनाव प्रचार कर रहे हैं जो वहां की राजनीति, सभ्यता-संस्कृति को ठीक से जानते भी नहीं। वहां के स्थानीय लोगों को सिर्फ यह पता है कि वे भाजपा समर्थक हैं, भाजपा की रैली है तो बोलने वाला नेता भी भाजपा का ही होगा।
पहली दफा त्रिपुरा चुनाव राष्ट्रीय मंच पर छाया
भाजपा के नेता का वित्त मंत्रालय से कोई नाता नहीं है, लेकिन उनका पूरा भाषण बजट पर केंद्रित है, मानो इस बार का केंद्रीय बजट सिर्फ और सिर्फ त्रिपुरा को ध्यान में रख कर बनाया गया है। यह शायद पहली दफा है जब त्रिपुरा का चुनाव राष्ट्रीय मंचों पर छाया हुआ है। त्रिपुरा को उतनी चर्चा तब भी नहीं मिली थी जब वाम के गढ़ को ढहा कर वहां भगवा झंडा फहराया गया था।
हिमाचल, गुजरात व दिल्ली के निकाय चुनाव खत्म होते ही भाजपा का दल-बल जिस तरह त्रिपुरा पहुंचा और शीर्ष के नेता से लेकर कार्यकर्ता तक जिस तरह चुनावी चर्चा करते देखे गए उससे लगता है कि भारतीय लोकतंत्र चुनावी प्रक्रिया के शुरू और खत्म होने की धुरी पर घूर्णन कर रहा है।
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव प्रक्रिया उसके दिल की धड़कन की तरह है।
राजनीतिक दलों के चुनाव प्रचार में रहने को उसकी सक्रियता का दर्जा दिया जाता रहा है। लेकिन, पिछले समय में यह सक्रियता अति का रूप ले चुकी है और हमारी सनातनी संस्कृति ही कहती है, अति सर्वत्र वर्जयेत। चलो, एक बार तारीफ हो गई कि आप निगम चुनावों को भी इतनी गंभीरता से लेते हैं कि वहां चुनाव प्रचार के लिए राष्ट्रीय नेता को भेजते हैं। हाल ही में संसद भवन में हंगामे को लेकर टिप्पणी की गई कि कृपया इसे नगरपालिका नहीं बनाइए, तो अब चुनाव-चुनाव से थका देश कह सकता है कि कृपया नगरपालिका के चुनाव को लोकसभा का चुनाव मत बनाइए।
निगम चुनावों तक में राष्ट्रीय नेता का दहाड़ना और जीतने पर दिल्ली के राष्ट्रीय मुख्यालय पर जश्न मनाना। लेकिन, अब इसका उल्टा भी होने लगा है कि निगम चुनाव में हार के बाद राष्ट्रीय नेताओं के चेहरों से लेकर पार्टी के राष्ट्रीय मुख्यालय तक सन्नाटा पसर जाता है और सरकार का गरूर से लेकर जीत का सुरूर तक प्रभावित होता है।
दुख इस बात का हो रहा है कि दूध से लेकर रसोई गैस सिलेंडर तक के रोज बढ़ते दाम निगम चुनावों में भी मुद्दा नहीं बन रहे। चुनाव प्रचार राजनीतिकों के जीवन का ऐसा हिस्सा हो गया है कि वे इसके अलावा किसी और मुद्दे पर बात भी नहीं करना चाहते हैं।
कोई सरकार पांच साल के लिए जनता का काम करने के लिए चुनी जाती है। लेकिन, अब नेताओं की पूरी पांच साला ऊर्जा सिर्फ और सिर्फ चुनाव प्रचार के लिए है। उत्तर प्रदेश के नेता अपनी ऊर्जा केरल से लेकर अन्य जगह क्यों झोंक रहे? उन्हें तो अपने राज्य की जनता का काम करने के लिए चुना गया था न कि और राज्यों में चुनाव जितवाने के लिए।
अब अखिल भारतीय पहचान वाले नेता नहीं रह गए
पहले कुछ राष्ट्रीय नेता होते थे जिनकी अखिल भारतीय पहचान होती थी और वे हर राज्यों के चुनाव में पार्टी का प्रतिनिधित्व करते थे। लेकिन, अब एक पूरी फौज है जो एक राज्य के मोर्चे से तुरंत दूसरे राज्य के मोर्चे पर भेज दी जाती है। तहसीलों तक में केंद्रीय मंत्री जी की सेवा-सूची लग जाती है। वोट इकट्ठे करने का स्तर तो पन्ना प्रमुख तक चला गया है। केंद्रीय वित्त मंत्री तक सरकारी राशन की दुकानों पर जाकर पूछने लगती हैं कि यहां पर फलां नेता की तस्वीर क्यों नहीं लगी हुई है।
पार्टी के नेता ये सब काम अपने दैनिक कार्यों को तिलांजलि देकर कर रहे हैं। जाहिर सी बात है कि इन सबका नुकसान देश को झेलना पड़ रहा है। राष्ट्रवाद के इस प्रचंड दौर में हर नेता कुछ दिनों के बाद कहीं का स्थानीय चोला पहन कर वहां की बानी और पानी के बारे में बात करने लगता है। उसे अपने राज्य में किए चुनावी वादों की चिंता नहीं है क्योंकि पांच साल बाद वह अगले मुद्दे के साथ जाएगा। लेकिन, देश की जनता अब थक रही है। अपने हिस्से का वोट देकर उसे दूसरे के हिस्से के वादों पर भाषण सुनना पड़ रहा है।
अति राजनीतिक सक्रियता ने नागरिकों को भी वैचारिक रूप से उग्र बना दिया है, क्योंकि अपने नेता के साथ उनकी भी भावनाएं जुड़ी रहती हैं। अगर आज उत्तर प्रदेश के चौपाल पर त्रिपुरा के चुनाव को लेकर चर्चा हो रही है तो हमें इसके हासिल के बारे में भी सोचना होगा।
पक्ष की अति सक्रियता विपक्ष को भी उग्र बनाती है। विपक्ष सरकार पर इसलिए और ज्यादा हमलावर हो जाता है क्योंकि वह संसाधनों के मामले में कमजोर पड़ता है, साथ ही छोटे चुनावों में बड़े नेताओं के जुटान से प्रचार के मामले में एक असंतुलन तो दिखता ही है। अब निगम के चुनाव में दिल्ली दरबार के सारे चेहरे दिखेंगे तो विपक्ष के पास संसद में हंगामे के अलावा क्या बचता है?
राज्यों के चुनावों को लेकर विपक्ष केंद्र पर हमलावर होता है और फिर केंद्रीय नेता उन आरोपों का खंडन करने के लिए लंबे साक्षात्कार देते हैं, सरकार के मंत्रियों के ट्वीट और प्रेस कांफ्रेंस शुरू हो जाते हैं। एक साल में संसद के तीन सत्र होते हैं। हर सत्र के वक्त कहीं चुनाव चल रहे होते हैं तो विपक्ष का हंगामा भी शुरू हो जाता है।
मानसून सत्र तक दक्षिण में भाजपा का नया दुर्ग बना कर्नाटक के चुनाव आ जाएंगे तो उसके बाद अन्य राज्यों के चुनाव आ जाने हैं। वैसे भी सरकार का आखिरी साल तो पूरी तरह चुनावी साल ही होता है तो जाहिर सी बात है कि 2024 में पूर्ण बजट सत्र भी नहीं होगा, लेकिन चुनावी मैदानों में घोषणाओं की बारिश हो जाएगी। बड़ी छवि के नेता हर छोटी जगह पर अपनी मौजूदगी देने की भागदौड़ करेंगे।
देश के लोकतंत्र ने पहले भी आम और विधानसभा चुनावों को साथ-साथ संपन्न करवाया है। कुछ राज्यों में हिंसा और उग्रवाद को देखते हुए अलग चुनाव करवाने की मुहिम शुरू हुई। अब तकनीकी रूप से जमाना बहुत आगे बढ़ चुका है। पुलिस-प्रशासन के संसाधनों में भी क्रांतिकारी परिवर्तन आ चुका है। कुछ राज्यों के चुनावों में हिंसा तो अभी भी हो रही है जिसे चुस्त पुलिस प्रशासन से काबू पाया जा सकता है।
चुनावों से थक चुकी जनता के लिए शायद अब वह समय आ गया है जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिए एक देश-एक चुनाव के प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार कर लिया जाए। पूरे देश में एक बार चुनाव हो जाएं और उसके बाद सरकारें अपने वादों और इरादों के साथ गंभीरतापूर्वक काम करें। चुनावी प्रक्रिया की अति सक्रियता लोकतंत्र के प्रति जनता की भावना को निष्क्रिय कर सकती है। अब इस पर सार्थक विमर्श हो कि लोकतंत्र चुनाव प्रायोजित इश्तिहार को चिपकाने की दीवार भर न बन जाए।