बिभा त्रिपाठी
क्या न्यायपालिका में आधी आबादी की पूरी हिस्सेदारी का सपना अब सच होने वाला है! ऐसा भारत के इतिहास में पहली बार हुआ है कि सर्वोच्च न्यायालय के पदासीन प्रधान न्यायाधीश ने इस बात की पुरजोर वकालत की है। स्वस्थ, सजीव और सक्रिय लोकतंत्र की बुनियाद की मजबूती के लिए यह विषय अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो गया है। चेतना के धरातल पर क्रांति के बीज बोता है प्रधान न्यायाधीश का कार्ल मार्क्स के शब्दों पर आधारित यह आह्वान कि ‘विश्व की महिलाओं एक हो जाओ, क्योंकि तुम्हें खोने के लिए कुछ नहीं है सिवाय जंजीरों के’।

उन्होंने कहा कि महिलाओं को पचास फीसद आरक्षण की मांग करनी चाहिए, परोपकार के रूप में नहीं, बल्कि अधिकार के रूप में। उन्होंने हजारों वर्षों से महिलाओं के दमन को स्वीकार करते हुए कहा कि अब समय आ गया है कि हमें सर्वोच्च न्यायालय और अन्य अधीनस्थ न्यायालयों में इस लक्ष्य को महसूस करना चाहिए और उस तक पहुंचना चाहिए।

हालांकि न्यायमूर्ति रमण से पहले भी कई अन्य न्यायाधीश और अधिवक्ता इस विषय पर अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं। हाल ही में सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा ने अपने विदाई समारोह में लैंगिक विविधता की बात करते हुए इसे समाज के लिए लाभकारी बताया। उन्होंने कहा कि जब न्यायपालिका में पर्याप्त संख्या में महिलाएं होंगी तब पुरुष और महिलाओं के बीच भेद नहीं किया जाएगा।

सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर, जो पहले केरल हाई कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश रहीं और बाद में सुप्रीम कोर्ट में भी न्यायाधीश रहीं, उनके मुताबिक समस्या की जड़ काफी गहरे तक है। उनके अनुसार “यह एक दुष्चक्र जैसी स्थिति है। पहले तो हमारे पास बड़ी संख्या में प्रैक्टिस करने वाली अच्छी महिला वकील नहीं हैं। हाई कोर्ट में न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति जरूरी है। हाई कोर्ट से ही न्यायाधीशों की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट में होती है। ऐसे में अगर हमारे पास उच्च न्यायालयों में अच्छी महिला न्यायाधीश ही नहीं होंगी, तो सुप्रीम कोर्ट में उनका प्रतिनिधित्व बेहतर नहीं हो सकता है।”

स्वतंत्र भारत के इतिहास में आज तक किसी महिला का भारत के सर्वोच्च न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश न बन पाना, प्रश्न खड़े करता है कि ऐसा महज संयोग था, अवसरों का अभाव था, योग्यता की कमी थी, अनुभव का अकाल था या बस यों ही। सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना के लगभग चालीस साल बाद न्यायमूर्ति फातिमा बीवी को सर्वोच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश बनने का गौरव प्राप्त हुआ था। न्यायमूर्ति हिमा कोहली, न्यायमूर्ति नागरत्ना और न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी के शपथ ग्रहण से वर्तमान में यह संख्या चार हो गई है।

न्यायमूर्ति आरएस नरीमन द्वारा यह शुभेच्छा व्यक्त की गई है कि वह दिन दूर नहीं, जब भारत को जल्द ही सर्वोच्च न्यायालय को महिला प्रधान न्यायाधीश प्राप्त होगी। आने वाले दिनों में न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना का महज कुछ दिनों के लिए भारत की प्रथम महिला प्रधान न्यायाधीश के पद पर पदोन्नत होना एक इतिहास तो अवश्य रचेगा, लेकिन इसे मात्र प्रतीकात्मक विजय माना जाना चाहिए।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि महिला अधिवक्ता संघ द्वारा दायर एक याचिका में महिलाओं की उच्च न्यायालयों में समान भागीदारी की मांग की गई थी और एक प्रक्रिया ज्ञापन तैयार करने की भी मांग की गई थी, जिसकी सुनवाई करते हुए पूर्व प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे ने कहा था कि चूंकि महिलाएं घरेलू जिम्मेदारियों में बंधी रहती हैं, इसलिए अमूमन न्यायाधीश के पद को अस्वीकृत कर देती हैं।

पर सवाल है कि क्या महिलाएं वास्तव में घरेलू जिम्मेदारियों के चलते न्यायाधीश पद को अस्वीकृत कर देती हैं? आंकड़े बताते हैं कि निचली अदालतों में 27 फीसद महिला न्यायाधीश हैं, उच्च न्यायालयों में यह संख्या 10 से 12 प्रतिशत तक ही पहुंच पाती है और सर्वोच्च न्यायालय तक आते-आते यह प्रतिशत इकाई अंकों में सीमित हो जाता है। वतर्मान में चार महिला न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय में अपने कर्तव्यों का निष्पादन कर रही हैं।

सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में चार सौ तीन पुरुषों के अनुपात में महज सत्रह महिलाओं को वरिष्ठ अधिवक्ता का दर्जा प्राप्त हो पाया है। विषमता से भरे आंकड़ों पर प्रधान न्यायाधीश ने भी ध्यान केंद्रित किया और कहा कि सत्रह लाख वकीलों में से केवल पंद्रह फीसद महिलाएं हैं, जबकि वे राज्य बार काउंसिल में निर्वाचित प्रतिनिधियों का केवल दो प्रतिशत हैं। इसमें तत्काल सुधार की आवश्यकता है। लोग उन कठिनाइयों का हवाला देंगे, जिन्हें महिलाओं को पूरी तरह से प्रतिनिधित्व करने के लिए सामना करना पड़ता है। यह सही नहीं है।

सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश द्वारा ऐसी बुनियादी समस्याओं की ओर ध्यान केंद्रित किया गया, जिसने वास्तव में संपूर्ण व्यवस्था को असहज कर दिया। उन्होंने निचली अदालतों से लेकर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में कार्य करते हुए महिलाओं द्वारा संघर्षों का न केवल हवाला दिया, वरन सुविधाओं की कमी का भी उल्लेख किया कि किस प्रकार का वातावरण और सामाजिक परिवेश इन्हें न्यायालयों में मिलता है।

महिला न्यायाधीशों की बढ़ी हुई संख्या न सिर्फ न्यायपालिका को मजबूती प्रदान करेगी, बल्कि जनमानस के भरोसे का मजबूत स्तंभ भी बनेगी। संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित वर्ष 2030 तक संपोष्य विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तैयार ज्ञापन संख्या 5 और 16 विशेष रूप से लैंगिक समानता और महिलाओं की लोक संस्थाओं, जैसे न्यायपालिका में भागीदारी सुनिश्चित करने की बात करते हैं। ऐसा होने पर न सिर्फ कानून के अनुपालन को सुनिश्चित किया जा सकेगा, बल्कि वास्तविक समानता को भी प्रवर्तित कराया जा सकेगा, जिससे राज्य के ऊपर जनमानस का भरोसा और विश्वास बढ़ेगा।

जहां तक राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों की बात है, वहां लड़कियों का प्रतिशत लगभग समान है, पर विधि के पारंपरिक विद्यालयों में यह संख्या अब भी कम है। प्रधान न्यायाधीश ने लॉ स्कूलों में महिलाओं के लिए एक निश्चित प्रतिशत आरक्षण की मांग का जोरदार समर्थन किया। यहां यह प्रश्न उठता है कि भागीदारी सुनिश्चित करने का आधार आरक्षण होगा या सकारात्मक विभेद, यह एक नीतिगत प्रश्न हो सकता है, पर इस पर विमर्श कर लेना और समुचित भागीदारी हेतु हर संभव प्रयास का मार्ग प्रशस्त करना समय की मांग बन गया है।

यह गंभीर प्रश्न है कि महिलाओं के प्रति एक सामान्य पूर्वाग्रह, जिससे देश की हर महिला को दो-चार होना पड़ता है, उससे महिला वकील और न्यायधीश भी अछूती नहीं रहती है। इसलिए ऐसा महसूस किया जाता है कि जब समस्त लोक संस्थाओं में, शक्ति के स्थानों पर महिलाओं की बराबर की भागीदारी होगी, तो शायद समाज की सोच भी बदलेगी। सामूहिक चेतना, सामूहिक सोच, हितों का संतुलन और आधी आबादी की पूरी भागीदारी, उनका प्रतिनिधित्व और विश्व को संप्रेषित होने वाला संदेश ऐसे ठोस आधार हैं, जिनको पुष्ट करने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि ज्यादा से ज्यादा संख्या में महिला न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचें।

वे सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश बन कर एक इतिहास रचें और एक लब्ध प्रतिष्ठित विधि शास्त्री का जो मानक सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश होने की योग्यता का आधार है उसमें महिला विधिशास्त्री की नियुक्ति कर एक स्वर्णिम इतिहास रचा जाए। कोरे और खोखले नारों की जगह जमीनी यथार्थ लाने की कोशिश की जाए।