राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या किसी भी विचार से असहमति स्वाभाविक है। पर जब यह संवाद की प्रक्रिया और सामाजिकता के भाव को कुचलने का कारण बनता है, तब यह हमारे आचरण और बौद्धिकता के ह्रास का कारण बन जाता है। संघ का विरोध 1930 और 1970 के दशक में भी था और आज भी है, लेकिन विरोध के स्वर में फर्क है। तब असहमति रखने वाले तर्क और तथ्य से सुसज्जित होते थे। समझने और समझाने का भाव छिपा होता था। अब विरोध के लिए मानसिक श्रम की आवश्यकता नहीं है। सस्ते में सब कुछ हो जाता है। यही आरोपवादी संस्कृति है।

संघ में जाने से रोकना साम्राज्यवादी दृष्टिकोण का परिणाम

सरकारी कर्मचारियों/ अधिकारियों को संघ में सम्मिलित होने से रोकने का नियम संघ के प्रति साम्राज्यवादी दृष्टिकोण का परिणाम है। वे इसे राजनीतिक और सांप्रदायिक मानते थे। इसका कारण संघ का सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930 ) में भागीदारी उपनिवेशवादियों को नापसंद था। सरकारी कर्मचारियों को संघ की गतिविधियों में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया। यह प्रश्न मध्य प्रांत के विधान परिषद में उठा। तीन मार्च 1934 को सदस्यों ने सरकारी पक्ष से सांप्रदायिकता का अर्थ जानना चाहा। घंटों लग गए, सदस्य संतुष्ट नहीं हुए। जो भी हो, सदन में सदस्यों की गंभीरता और उच्च बौद्धिक स्तर उभर कर सामने आया। सात और आठ मार्च को सरकारी आदेश के खिलाफ वीडी कोलते के सामान्य बजट पर एक रुपए की कटौती के प्रस्ताव पर बहस में नागपुर विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि डा मंगलमूर्ति से लेकर एमएस रहमान सहित चौदह सदस्यों ने हिस्सा लिया। सभी आदेश के विरोध में थे।

भाजपा की सरकार पर नौकरशाही को कमजोर करने का आरोप

आखिर सरकार को निर्णय वापस लेना पड़ा। नब्बे साल बाद यही प्रश्न उभरकर सामने आया। सरकारी कर्मचारियों की संघ में भागीदारी पर प्रतिबंध को हटा लिया गया तो भाजपा की सरकार पर नौकरशाही को कमजोर करने का आरोप लगा। विडंबना यह है कि हम साथ रहकर भी साथ नहीं रहते। जिस विचार का विरोध करते हैं, उसे तनिक भी समझने की रुचि नहीं रखते। सब कुछ चित्त या पट की तरह देखते हैं।
संघ की ताकत संख्या में नहीं, विचारधारा में है। तभी सौ वर्षों में इसका आकर्षण दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। इसलिए इसके विरोधी जिन चुनिंदा शब्दों- सांप्रदायिक, राजनीतिक, फासीवादी- द्वारा इस पर आरोप लगाते रहे, वे आज स्वयं अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। पिछली तीन-चार पीढ़ियों ने जबसे होश संभाला है, तबसे उन्हें इन्हीं शब्दों द्वारा संघ से परिचय कराया जाता रहा है। यह बौद्धिक क्षरण का सूचक है। फिर भी पहले विरोध और समर्थन के पीछे अनुभव, अध्ययन, चिंतन रहता था।

तीन जुलाई, 1968 को संघ पर राज्यसभा में बहस हुई। एसके वासमपायन ने संघ के एक प्रस्ताव को राजनीतिक बताते हुए इसके सांस्कृतिक रहने की वचनबद्धता का उल्लंघन बताया। तत्कालीन गृहमंत्री वाईबी चव्हाण सहित आधे दर्जन सदस्यों ने अपने-अपने तर्क रखे। बहस का अंत चव्हाण और संघ विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी के बीच सौम्य पर गंभीर विचारों के आदान-प्रदान से हुआ। गुजरात के कच्छ पर भारत और पाकिस्तान के अधिकार को लेकर ब्रिटेन की मध्यस्थता में वहां के ट्रिब्यूनल का फैसला आया, जिसे ‘कच्छ अवार्ड’ के नाम से जानते हैं। संघ ने इसका विरोध किया था। चव्हाण ने ठेंगड़ी से पूछा, ‘दिल पर हाथ रखकर कहिए कि कच्छ पर प्रस्ताव सांस्कृतिक है?’ ठेंगड़ी ने पूछा, ‘क्या राष्ट्रीय एकता और अखंडता की बात करना राजनीतिक है? फिर राष्ट्रवादी संघ द्वारा कच्छ पर प्रस्ताव कैसे राजनीतिक है?’ न चव्हाण के पास जवाब था, न ही कम्युनिस्ट भूपेश गुप्ता कुछ बोल पाए। चव्हाण ने बहस का अंत किया, ‘यह दार्शनिक सवाल है। इस पर कभी अलग से बात करेंगे।’

संघ को राजनीतिक मानने वाले भारतीय जनसंघ और भाजपा के साथ संबंधों को प्रमाण के रूप में रखते हैं। वे भूल जाते हैं कि संबंध में वैचारिक पक्ष है। राजनीति में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को स्वर देने वाली दूसरी कोई पार्टी नहीं है, इसलिए यह संबंध नैसर्गिक है। संघ संस्कृति को राष्ट्रीय चेतना के विकास में देखता है। यही संघ को समाज के सभी क्षेत्रों तक ले गया। ऐसे में आर्थिक और राजनीतिक प्रश्न अछूते नहीं रह सकते हैं। संघ भारत के जिस विचार को लेकर चल रहा है, जिस प्रकार कार्य करता है, उसका जमीन पर अनुभव राष्ट्रीय नेताओं के अनुभव से भिन्न है। इसीलिए आदिवासियों, मजदूरों और वंचित लोगों के बीच कार्यों का नक्सली भी विरोध नहीं कर पाते हैं। सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ता की बात तो दूर।
विरोध की अमरबेल राजनीतिक स्वार्थ से उपजती है।

यही प्रतिबंध 1977 में जब हटाया गया, तब आज विरोध करने वाले कांग्रेस के अधिकांश सहयोगी दल मौन व्रत में थे। सांस्कृतिक संगठन में राजनीति और अर्थनीति को प्रभावित करने की क्षमता होती है। चुनौती सिर्फ राजनीति की छाया से उपजने वाली न्यूनताओं से बचने की होती है। वोट बैंक का लोभ दलों को उनकी स्वेच्छा से संघ पर नासमझ बनाए रखता है। जाहिर है, ऐसे में संवाद स्थगित रहता है और विचार प्रणाली कमजोर होती जाती है। आज वे इस बात को नकार नहीं सकते हैं कि संघ का वैचारिक प्रभाव उन्हें हिंदुत्व के प्रति धारणा बदलने के लिए बाध्य कर रहा है।

सरकारी कर्मचारियों का संघ में आना बाध्यता नहीं है, पर उनको स्वेच्छा से सांस्कृतिक रचनात्मकता का हिस्सा बनने से रोकना, न तो उदारवाद के अनुकूल है, न ही लोकतांत्रिक है। संघ हो या अन्य विचारधारा, विमर्श को पुनर्जीवित कर एक-दूसरे को समझना ही भारत के विचार को समृद्ध करना होगा। आचरण और विचार, दोनों स्तरों पर मजबूत पहल ही निदान तक ले जाती है।