अमेरिका के तेरह राज्यों ने 14 जुलाई, 1776 को अपनी आजादी की घोषणा की थी। फ्रांसीसी क्रांति (1789-1799) को दो सौ से अधिक वर्ष बीत चुके हैं। आस्ट्रेलिया, 1901 में ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त होने वाला पहला उपनिवेश था। भारत ने 1947 में अपनी आजादी हासिल की। यूएस, फ्रांस और आस्ट्रेलिया अब स्वतंत्र और लोकतांत्रिक हैं। मगर औपनिवेशिक सत्ता (ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, पुर्तगाल, आदि) से मुक्त हुए सारे देश अभी तक इस अर्थ में ‘स्वतंत्र’ नहीं हो पाए हैं कि उनके नागरिक मानवीय स्वतंत्रता का आनंद ले सकते हैं और स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव में अपनी पसंद की सरकार चुनने में सक्षम हैं। एक अनुमान के मुताबिक, दुनिया की केवल बीस फीसद आबादी आजादी के साथ रहती है। खुशी की बात है कि भारत उनमें से एक है।
लोकतंत्र कोई खैरात नहीं
लोकतंत्र कोई खैरात नहीं है। पाकिस्तान 14 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ, मगर अब तक कई बार फौजी तानाशाही के अधीन रह चुका है। हमारा पड़ोसी बांग्लादेश, जो उस वक्त पाकिस्तान का एक प्रांत था, पाकिस्तान पर शासन करने वाली फौजी तानाशाही के अधीन था; वहां गुरिल्ला आंदोलन ने शक्ति अर्जित की और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष शुरू हो गया; भारत ने उसमें हस्तक्षेप किया; और 1971 में बांग्लादेश एक स्वतंत्र देश बना। मगर 1975 और 1991 के बीच, वहां भी कई सैन्य शासक हुए। दो मुख्य राजनीतिक दलों- अवामी लीग और बांग्लादेश नेशनल पार्टी (बीएनपी)- ने फौजी हुक्मरान को हटाने के लिए हाथ मिलाया और 1991 में एक सिविल सरकार ने सत्ता संभाली।
बेगम शेख हसीना पहली बार 1996 में चुनी गई थीं। उसके बाद 2008, 2014, 2019 और 2024 में वे फिर से चुनी गईं। विपक्षी दलों ने पिछले चुनाव का बहिष्कार किया था। 2024 में चुनाव की ‘स्वतंत्रता और निष्पक्षता’ पर वहां के बौद्धिकों और सरकारी कर्मियों ने गंभीर शंका जाहिर की थी। भारत ने तय किया था कि राजनीतिक रूप से सही होना ही सबसे अच्छा सिद्धांत है।
प्रगति कोई छूट नहीं
शेख हसीना के नेतृत्व में, बांग्लादेश ने उल्लेखनीय आर्थिक उन्नति दर्ज की थी। इसकी प्रति व्यक्ति आय भारत के साथ-साथ श्रीलंका, पाकिस्तान और नेपाल जैसे अन्य दक्षिण एशियाई देशों से भी अधिक है। मानव विकास सूचकांक पर, बांग्लादेश का स्थान श्रीलंका के बाद दूसरा है; और यह भारत, नेपाल और पाकिस्तान से भी ऊपर है। बांग्लादेश अपनी शिशु मृत्यु दर 21-22 तक घटाने में कामयाब हुआ है, जबकि भारत की दर 27-28 है; केवल श्रीलंका की शिशु मृत्यु दर 7-8 से कम है (स्रोत: द हिंदू)।
इसके साथ ही, ‘फ्रीडम हाउस’ ने, चुनाव प्रक्रिया, मीडिया की स्थिति, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बांग्लादेश में खराब स्थिति की आलोचना की है। शासकों को लगता है कि आर्थिक प्रगति लोकतंत्र के पतन या बेरोजगारी, असमानता और भेदभाव को लेकर बढ़ते असंतोष को दबा देगी, मगर यह शायद ही कभी सच होता है। बांग्लादेश में, छात्रों की धारणा के अनुसार, सरकारी नौकरियों में पक्षपातपूर्ण और भाई-भतीजावादी आरक्षण नीति को लेकर उभरे विरोध की बाढ़ से बांध टूट गया।
इस बीच, आर्थिक विकास की गति धीमी हो गई, कीमतें बढ़ गईं और नौकरियां कम हो गईं। शेख हसीना की सरकार लगातार इससे इनकार करती रही- जैसे कि तानाशाह आमतौर पर यह गलती करते हैं। इसकी शुरुआत आरक्षण नीति के विरोध से हुई, लेकिन प्रदर्शनकारियों ने जल्द ही भ्रष्टाचार, पुलिस की बर्बरता और न्यायिक निष्क्रियता जैसी अन्य लंबे समय से चली आ रही शिकायतों को भी उसमें शामिल कर लिया। यह एक चिरपरिचित प्रवृत्ति है।
अभाव को दूर करें
सड़कों पर होने वाले प्रदर्शन हमेशा सफल नहीं होते। मगर इस तरह के विरोध प्रदर्शनों के चलते निस्संदेह कई बार सरकारें गिर गई हैं। मसलन, श्रीलंका की सरकार। इसके उलट, अरब स्प्रिंग, जो होस्नी मुबारक को पद छोड़ने पर मजबूर करने में कामयाब हुआ था, मगर वह आखिरकार तब विफल हो गया जब एक अन्य सैन्य शासक ने निर्वाचित राष्ट्रपति को हटाकर सत्ता संभाल ली। अक्सर बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन तब होते हैं, जब अधिकतर लोगों की यह उम्मीद पूरी तरह टूट जाती है कि निष्पक्ष चुनाव के जरिए सरकार बदली जा सकती है।
जब चुनाव के बाद चुनाव का वह रास्ता बंद हो जाता है, तो विपक्ष की बाढ़ आ जाती है और बांध टूट जाता है। हालांकि, सड़कों पर होने वाले विरोध प्रदर्शनों का एक नकारात्मक पहलू भी है। ऐसे विरोध प्रदर्शनों में सभी तरह के लोग शामिल हो सकते हैं, जिनमें कट्टरपंथी या आतंकवादी समूह भी हो सकते हैं, जैसा कि माना जाता है कि बांग्लादेश में हुआ है। विदेशी नागरिक असुरक्षित हो सकते हैं। अल्पसंख्यक विशेष रूप से असुरक्षित होते हैं और उनके घरों, व्यवसायों और पूजा स्थलों में तोड़फोड़ की जा सकती है।
बांग्लादेश की स्थिति अनोखी नहीं है। कई देशों के लोग ऐसी ही दुर्दशा का सामना कर रहे हैं। यह लोकतंत्र का अभाव ही है, जो लोगों की नाराजगी को सड़कों पर अभिव्यक्त होने के लिए मजबूर करता है। इसका समाधान इस अभाव को दूर करना है। संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन ने इस अभाव को दूर करने की कला में लगभग महारत हासिल कर ली है।
बढ़ते असंतोष का सामना करते हुए, यूके में थैचर, जानसन और मे जैसे प्रधानमंत्रियों ने पद छोड़ दिया और पार्टी को एक नया नेता चुनने की इजाजत दे दी। लिंडन जानसन और जो बाइडेन जैसे अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने उम्मीदवार के रूप में फिर से नामांकन करने से इनकार कर दिया। वहां जवाबदेही लागू की जाती है और इस्तीफे सुरक्षित होते हैं। सीमित कार्यकाल बहुत उपयोगी होता है। एक सच्चा, स्वतंत्र मीडिया प्रकाश की किरण होता है। निडरता से अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने और चौकस प्रहरी के रूप में काम करने वाला सर्वोच्च न्यायालय, बहुत भरोसा पैदा करता है।
दरअसल, स्वतंत्र चुनाव आयोग द्वारा समय पर कराया जाने वाला और गारंटीकृत स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, गरीबों, उपेक्षितों और उत्पीड़ितों के लिए एक मरहम का काम करता है। मेरी राय में, एक संसद, जो हर महीने बैठती और अध्यक्ष के अनुचित हस्तक्षेपों के बिना, सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच हर दिन बहसों की इजाजत देती है, लोकतंत्र के अभाव को दूर करने का अंतिम उपाय है। बांग्लादेश ने लोकतंत्र के अभाव की भारी कीमत चुकाई है। मैं इसमें मारे गए लोगों के प्रति भावभीनी श्रद्धांजति अर्पित करता हूं।