नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ग्यारह वर्षों के सफर का मूल्यांकन भारत में ही नहीं, दुनिया भर में विशेष कारणों से हो रहा है। सत्ता परिवर्तन तो लोकतंत्र की सामान्य प्रक्रिया है। अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक, ब्रिटेन में कंजर्वेटिव या लेबर पार्टियों के बीच या किसी अन्य देश में सत्ता हस्तांतरण क्षणिक हलचल पैदा करता है।

क्योंकि, बदलाव का असर राजनीतिक व्यवहार एवं नीतियों तक सीमित रहता है, पर भारत में 2014 में सत्ता परिवर्तन का संदेश भिन्न था। स्वाधीनता के पश्चात भारत मैकालेवाद के संशोधित या परिष्कृत राह पर चल रहा था। मुगल एवं औपनिवेशिक कालों में सृजित सांस्कृतिक पहचान से भारत की मौलिकता दबी कुचली हुई थी। इसलिए 2014 का जनादेश आर्थिक एवं राजनीतिक नीतियों से कहीं अधिक भारत की पहचान और परिभाषा पर केंद्रित था।

पश्चिम के समाजशास्त्र ने पिछले तीन सौ वर्षों में आलोचनात्मक दृष्टि विकसित की

इसे कई बुद्धिजीवी नहीं पचा पाए। वे इस बदलाव को धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता के आगे नहीं देख पाए। इसका कारण है। वे वैचारिक ठहराव के शिकार हैं। अपनी विचारदृष्टि का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने का साहस और इच्छाशक्ति दोनों नहीं होने से व्यक्ति, संगठन या विचार देर-सवेर काल वाह्य हो जाता है। इससे इतर पश्चिम के समाजशास्त्र ने पिछले तीन सौ वर्षों में आलोचनात्मक दृष्टि विकसित की है।

इसलिए वहां स्वार्थ है, पर ठहराव नहीं है। तभी तो यूरोप के बुद्धिजीवियों द्वारा मोदी सरकार का मूल्यांकन भारतीय बुद्धिजीवियों से अप्रभावित है। ब्रिटेन के अखबार ‘द गार्डियन’ ने 18 मई 2014 को संपादकीय में लिखा था- अंतत: ब्रिटेन ने भारत छोड़ दिया। इसका निहितार्थ था कि मोदी की वैचारिक पृष्ठभूमि और उनका व्यक्तित्व गुलामी के सभी चिह्नों, संकेतों, मनोवैज्ञानिक प्रभावों और नकलची परिभाषाओं को मिटाने वाला साबित होगा, और पिछले ग्यारह वर्षों में यही हुआ।

हमारी यात्रा एक सभ्यता के रूप में शुरू हुई और प्रतिकूलता के बाद भी निरंतरता रही

आर्थिक विकास किसी राष्ट्र के लिए निश्चित तौर पर एक अनिवार्य पहलू होता है, परंतु जिस राष्ट्र की आयु को उसके राष्ट्रीय जीवन में उतार-चढ़ाव की अनगिनत घटनाओं, कालजयी नायकों की संख्या दर्शनों की विविधता को इतिहास की पुस्तकों में समेटना कठिन हो, उसको परिभाषित करना आसान नहीं होता है। भारत उसका उदाहरण है। हमारी यात्रा एक सभ्यता के रूप में शुरू हुई और प्रतिकूलताओं के बावजूद उसमें हजारों वर्षों में निरंतरता बनी रही।

इसका कारण दर्शन प्रधान जीवन मूल्यों का होना है। भारत एक सभ्यताई राष्ट्र है। समकालीन कालखंड उसी की अनुभूति करने-कराने की यात्रा है। दुनिया के जाने-माने चिंतक फ्रैंज फेनो ने उपनिवेशवाद को विचार प्रणाली कहा है जो अपने शासितों को उसमें ढाल लेता है। लड़ाई विचार प्रणाली से मुक्ति की होती है। भारत में यह लड़ाई आसान नहीं है। इसका कारण वैकल्पिक परिभाषाओं को व्याख्यायित करने वालों की अल्पता है।

ऐसे में नेतृत्व की भूमिका और भी चुनौतीपूर्ण हो जाती है। प्रधानमंत्री ने ढाई हजार पूर्व के लिच्छवी, शाक्य और दसवीं शताब्दी के उत्तरमेरू शिलालेख को सामने रख कर अंतरराष्ट्रीय बैठकों में आठ फरवरी 2021 और 29 मार्च 2023 एवं 20 मार्च 2024 में भारत को लोकतंत्र की जननी बताने के विमर्श को आगे बढ़ाया। केपी जायसवाल की पुस्तक ‘हिंदू पालिटी 1924’ इस विषय पर श्रेष्ठ रचना है।

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वह भी पुस्तकालयों में धूल चाट रही है। मोदी के भाषणों में दर्शन व साहित्य के उपयुक्त उद्धरणों ने भारतीय ज्ञान परंपरा के ऊपर जमी बर्फ को पिघलाया। वेद, उपनिषद, महाभारत, रामायण, पुराण और जैन दर्शन आदि बौद्धिक विमर्श उपेक्षित रहे। वर्ष 2018 के भाषण में मोदी ने याज्ञवल्य, गार्गी और अष्टवक्र, वर्ल्ड सस्टेनेबल डेवलपमेंट समिट 15-17 फरवरी 2018 में अथर्वेद का ‘मात भूमि: पुत्रोह प्रथिव्याष, अंतरराष्ट्रीय सोलर समिट में वेद में सूर्य के महत्त्व को रखा। उन्होंने कवि दार्शनिक थिरुवल्लुवर की रचनाओं को बार-बार उद्धृत किया। इन सबने विरासत और वर्तमान के बीच की दूरी प्राय:समाप्त कर दी।

नवंबर 2014 में एक भाषण में राजधर्म की व्याख्या उन्होंने राजा रंति देव की पौराणिक कथा द्वारा की। जिसमें राज्य या स्वर्ग की इच्छा तक को नकारा गया। ‘मन की बात’ के सौवें अंक में वेद के श्रम मंत्र ‘चरैवेति. चरैवेति’ को उद्धृत किया, तो 2021 में संसद में उन्होंने वेद की ऋचाओं द्वारा लोकतंत्र का मर्म समझाया। जिसका अर्थ समावेशी होना है। भारतीय दर्शन-संस्कृति की प्रतिनिधि पुस्तकों को दुनिया के राष्ट्राध्यक्षों को भेंट करना सांस्कृतिक विरासत के प्रति आग्रह है।

2014 में जापानी सम्राट और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को भगवदगीता एवं बाइडेन को ‘द टेन प्रिंसिपल आफ उपनिषद’ (जो बटलर येट्स और पुरुहोति स्वामी द्वारा अनुवादित हैं) भेंट की।

प्रधानमंत्री मोदी ने दुनिया के किसी भी हिस्से में भारतीय वांग्मय पर काम करने वालों को प्रोत्साहित किया है। चाहे राबर्ट गैफ्रिक द्वारा स्लोवक भाषा में अनुवादित उपनिषद हो या अब्दुल्ला एल बरौन द्वारा अरबी में रामायण या महाभारत का अनुवाद। पतंजलि के योग को 2014 में अज्ञातवास से निकाल कर मोदी ने वैचारिक हस्तक्षेप की यात्रा शुरू की जो जारी है।

इसमें संकल्प, प्रतिबद्धता और उत्साह तीनों हैं। भारत में योग को हिंदू बहुमतवाद कह कर आलोचना की गई, तो तीन दर्जन मुसलिम राष्ट्रों सहित 175 देशों ने इसे भारत का सर्वोत्तम योगदान माना। यह दिखता है कि भारत में वैचारिक विद्वेष संयमित नहीं है। ग्यारह वर्ष नव मैकालेवाद के अंत और भारतीय अस्मिता के उदय की जीवंत कहानी है, जहां झंझावात भी है, विरोधाभास भी। यही है मोदी का भारतनामा।