इन दिनों किसान आंदोलन की एक खबर नहीं आती। एकाध चैनल पर टिकैत धमकाते-से दिखते हैं कि बैरिकेड तोड़ने होंगे, दिल्ली कूच करना होगा, लेकिन चैनल लिफ्ट नहीं देते! चैनल न चाहें तो खबर जीती है, वरना मर जाती है। आंदोलन खबर की नहीं, तो लगता है कि है भी नहीं! लोग पूछते हैं कि कहां गई किसान क्रांति?

जब तक आंदोलन चैनलों में दिखता है, वह जिंदा रहता है, जब नहीं दिखता तो मर जाता है। आंख ओझल पहाड़ ओझल! सप्ताह की बड़ी खबर कोरोना की दूसरी लहर ने बनाई। एक साल पुराने दिन फिर बहुर रहे हैं। चैनलों में फिर वही वही महामारी एक्सपर्ट खबर बनाते हैं। एक एंकर मेहनत से ग्राफ दिखा कर बताता रहा कि कोरोना की दूसरी लहर पहले से तेज है। अकेला महाराष्ट्र तीन चैथाई मामले दे रहा है। अंत में सभी टीकाकरण तेज करने की सलाह देते हैं। दिल्ली के सीएम पैंतालीस के पार सबको टीका लगाने की सलाह देते नजर आते हैं। यह अच्छा है। एक चैनल पहली बार यूपी से कोरोना की खबर दे रहा है, लेकिन क्या गजब कि वह कोरोना की प्रतिशत की खबर को सिर्फ प्रतिशत के चिह्न से दिखाता है, संख्या नहीं देता। ऐसा लगता है कि यूपी के विकासमूलक विज्ञापनों की वर्षा ने कोरोना को यूपी से गायब-सा कर दिया है।

कोरोना के अलावा दूसरी बड़ी कहानी मनसुख हिरेन की हत्या, उसकी गाड़ी के विस्फोटकों, सचिन वाजे, परमबीर और उनके ‘हैंडलर्स’ की रही। हर चैनल इसे बड़े ‘क्राइम थ्रिलर’ की तरह सीरियलाइज करता है, लेकिन एक एंकर इस कहानी को जिस ‘पर्सनल क्षोभ’ के साथ पेश करता है वैसा कोई नहीं करता। लगे हाथ वह टीआरपी में हेराफेरी करने-कराने के लिए ‘लटयन्स चैनलों’ को भी ठोकता चलता है।

इस ‘क्राइम थ्रिलर’ के भीतर कई कहानियां बोलती हैं, जिनको कुछ नेताओं द्वारा फुटबाल की तरह ‘किक’ किया जाता रहता है। आप साफ देख सकते हैं कि एक ‘किक’ उनका तो एक ‘किक’ इनका। एक ‘किक’ शिवसेना का तो एक भाजपा का तो एक एनसीपी का। दो चार ‘किक’ एंकरों के तो दो चार चर्चकों के! लेकिन न लक्षित सरकार हिलती है और न नेता हिलते हैं। अब तक हम सिर्फ एक ‘वर्दीवाला गुंडा’ को एक जासूसी उपन्यास के मार्फत जानते थे, अब तो न जाने कितने दिखते हैं और वह भी लाइव!

चौतरफा अपराधीकरण का यह ‘नया नार्मल’ है। ऐसा लगता है कि सब जानते हैं कि सच क्या है? कौन किसके पीछे है? लेकिन दोटूक कोई नहीं बताता कि इसने किया कि उसने करवाया कि उसके पीछे ये है कि उसके भी पीछे वो है, लेकिन कोई साफ नहीं कहता कि किसने किसको मारा या मरवाया है? हां, वाजे के मार्फत यह जरूर लिखा दिखा कि उसे बलि का बकरा बनाया जा रहा है! यह ऐसी अपराध कथा है, जो ‘मिलजुल’ कर लिखी जा रही है।

दो चैनलों ने चुनाव पर एक ओपिनियन पोल दिया है। पोल वाला सत्रह हजार के ‘सैंपल’ से बीस-पचीस करोड़ के मूड को भांपता है और बताता है कि पुदुचेरी में एनडीए आ रही है, केरल में लेफ्ट ‘अपवादत:’ (एक बार फिर) सत्ता में आ रहा है। असम में एनडीए को बढ़त है, तमिलनाडु में डीएमके झाडू मार कर जीत रही है और बंगाल में अब भी टीएमसी जमीन पकड़े है।

लेकिन पीएम की रैलियों में औरतों की बेशुमार भीड़ का आना और भाषण के बीच-बीच उनका ‘ओ दीदी’ कह कर कटाक्ष करना भीड़ को जैसे मस्त करता है, वह सर्वे को बेकार करता नजर आता है! और पीएम का वह सीन कि जिसमें एक युवा नेता मंच पर जब उनके पैर छूने आता है तो वे उसको मना करते हुए उलटे उसी के पैर छूते नजर आते हैं। सीन पब्लिक को लूट लेता है! ऐसे सार्वजनिक शिष्टाचार का जवाब नहीं! रकीब इसे लाख ड्रामा कहें, पब्लिक तो इसी पर ताली मारती है! टीएमसी के ‘छिन्नमस्ता’ भाव के विपरीत यह विनम्रता वोटर का मन मोहती है!

खबर चैनल जितनी लिफ्ट बंगाल के चुनाव को देते हैं, उतनी किसी राज्य के चुनाव को नहीं देते, यद्यपि बाकी चार में भी चुनाव कांटे का है। ममता ‘खैला होबे’ कह कर चुनाव में खेल की जगह बना दी है, लोग खेल खेल में कुछ का कुछ बोल देते हैं और सब ‘खैला’ के नाम पर चलता है।

उदाहरण के लिए ममता को लगातार ‘वील चेयर’ पर बैठे हुए पब्लिक की ‘सिंपैथी वेव’ लेते देख भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने एक ‘सेक्सिस्ट कटाक्ष’ कर दिया कि उनको साड़ी की जगह बरमूडा पहनना चाहिए! उम्मीद थी कि इस ‘सेक्सिस्ट कटाक्ष’ पर टीएमसी आसमान सिर पर उठा लेगी, लेकिन ऐसा न हुआ! यह भी ‘खैला होबे’ का हिस्सा होगा!

इसी तरह एक दिन टीएमसी के एक नेता ने धमकी-सी दे दी कि अगर तीस फीसद मुसलमान इकट्ठे हो जाएं, तो हम चार पाकिस्तान बना सकते हैं, तब सत्तर फीसद क्या करेंगे? लेकिन इस पर भी हंगामा न हुआ! उक्त नेता के वचन सुन कर हठात हमें कमलेश्वर का वह चर्चित उपन्यास याद आया, जिसका शीर्षक पूछता है: ‘कितने पाकिस्तान’!