श्योराज सिंह ‘बेचैन’
हम भारत के लोग संविधान शिल्पी बाबा साहब डॉ. बीआर आंबेडकर को उनके द्वारा देश के लिए की गई सेवाओं के अलग-अलग तरह से याद करते हैं। राजनीतिक लोग सत्ता की चाभी की चर्चा करते हैं, संवैधानिक पदों पर बैठे लोग देश के लिए उनके विधिक प्रदेय की बात करते हैं और आम नागरिक आज उनके उन सपनों की बात करते हैं, जो टूटते नजर आ रहे हैं। लेकिन स्त्रियों के मुक्तिदाता के रूप में उनके स्त्री विषयक योगदान जो रहे हैं, उन पर अलग से बात करने की जरूरत है। सार्वजनिक जीवन में सक्रिय स्त्रियां किसी भी देश की प्रगति का पैमाना होती हैं। इस संदर्भ में आंबेडकर ने कहा था- ‘मैं समाज की प्रगति का अंदाजा उस समाज की स्त्रियों की प्रगति से लगाता हूं।’ यहां यह कहना भी उचित होगा कि जिसने स्त्रियों की मुक्ति के लिए काम किया, प्रकारांतर से उसने संपूर्ण समाज की प्रगति के लिए काम किया।
देश की जनता के हक में की गई आंबेडकर की सेवाओं की फेहरिस्त लंबी है और उनका परिणाम स्त्रियों की जिंदगी पर स्पष्ट दिखाई दे रहा है। आंबेडकर ने सर्वसमाज की स्त्रियों के लिए ‘हिंदू कोड बिल’ दिया। पिता और पति की संपत्ति में अधिकार, समान वोट का अधिकार, पति चुनने, धर्म चुनने, विद्या ग्रहण करने, मातृत्व अवकाश प्राप्त करने, पात्रता आधारित अधिकार पाने वाली स्त्रियों का सामाजिक वर्ग विशिष्ट है। जिन दलित-आदिवासी, गरीब और पिछड़े समाजों की स्त्रियों को पात्रता प्राप्त करने के अवसर नहीं मिले, उनके लिए स्त्री विषयक अधिकार एक किताब में बंद पड़े रह गए और विकास बहत्तर साल आगे चला गया।
भारत अनेक समाजों, संस्कृतियों, धर्मों और विचारधाराओं का देश है और हर जगह हर स्त्री की स्थिति एक जैसी नहीं है। न शिक्षा में उनका समान प्रतिनिधित्व है और न कला-संस्कृति, मीडिया और राजनीति में। इससे पहले कि इस पर विचार किया जाए कि स्त्रियों की प्रगति से आंबेडकर के क्या मायने थे, वैश्विक लैंगिक समानता रिपोर्ट पर एक नजर डालना चाहिए। सात दशक से ज्यादा की आजादी में भारत की स्त्रियों की जीवन गुणवत्ता का स्तर क्या है? ऐसा नहीं है कि आजादी मिलते ही भारतीय स्त्रियों के लिए अवसरों की समानता लागू हो गई थी, जो अचनक लैंगिक असमानता में भारत अट्ठाईस स्थान नीचे गिर गया है।
रिपोर्ट के मुताबिक औद्योगिक क्षेत्रों में भी महिलाओं के अधिकारों में कमी आई है। ऐसे में डॉ आंबेडकर का स्मरण स्वभाविक है। उन्होंने बतौर श्रममंत्री महिला श्रमिकों के कल्याण की आवश्यकता अनुभव की थी। स्त्रियों के हित में वे कई प्रावधान अमल में लाए थे। वे सेवारत स्त्री-पुरुष वेतन में असमानता के खिलाफ थे, जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि की कमी के कारण स्त्रियों को परिवार कल्याण का ज्ञान नहीं हासिल करने की स्थितियां बनती हैं, इसलिए उन्होंने 21 फरवरी 1928 मुंबई विधानसभा में कर्मचारी महिलाओं को उनके प्रसव काल में सवेतन अवकाश दिए जाने की पुरजोर वकालत की।
उन्होंने कहा कि ‘देश की इन माताओं को मातृत्वकाल के निश्चित समय में आराम मिलना ही चाहिए। उन्हें इस समय का वेतन भी मिलना चाहिए। शासन अथवा मालिकों को इनका खर्च उठाना चाहिए।’ मजदूर महिलाओं के बच्चों को पालना गृहों की व्यवस्था कराना, राजकीय स्तर पर स्त्रियों को मुक्त और अनिवार्य शिक्षा-चिकित्सा का सुझाव देना। यह सब स्त्रियों के जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी करना था।
आंबेडकर के सुझावों के उलट आज भी असंगठित महिला मजदूरों को पुरुषों से कम मजदूरी मिलती है, स्त्रियों के शिक्षण-कौशल विकास का बजट भी कम ही होता है और कमजोर वर्ग की स्त्रियों को काम अनुसार दाम भी नहीं दिए जाते हैं। डॉ आंबेडकर ने 1944 में कोयला खदानों में काम करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए श्रमिक बीमा योजना की रुपरेखा पेश की और समान वेतन का निर्धारण किया। 1945 में उन्होंने श्रमिक महिलाओं के लिए सवेतन प्रसव अवकाश देने वाला विधेयक पास कराया था। एक साल बाद 1946 में काम के दस घंटों से घटा कर आठ घंटे कराया। जब तक वह क्रम आगे बढ़ा, स्त्रियों को जहां भी अवसर दिया गया, वहां उन्होंने अपनी बेहतरीन प्रतिभा का प्रदर्शन किया।
आज कम आमदनी की नौकरियों से लेकर उच्च शिक्षा से लैस महिलाएं उच्च पदों पर मौजूद दिख जाती हैं। लेकिन उस क्रम में पूंजी, बाजार, मुनाफे ने प्रवेश किया और पितृसत्तात्मक मूल्यों के साथ अपनी जड़ें जमार्इं। प्रवाह में बाधा आई और नतीजा यह है कि आज उद्योग क्षेत्र में, शिक्षा में, कला साहित्य में, राजनीति में स्त्रियों का अनुपात चिंताजनक स्थिति तक कम है। निजी संस्थानों में शोषण की हकीकत अब छिपी नहीं है।
हालांकि पिछले कुछ सालों में हमारे देश में स्त्रियों को अवसर मिले हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय सेना और नौसेना में महिला अफसरों को स्थायी कमीशन देने के पक्ष में फैसला सुनाया है। महिलाओं को कमांड पद देना सही माना है। हाल ही में ‘विमन राइटर्स’ का विज्ञापन एक दैनिक के पूरे पृष्ठ पर आया। फिल्मों, टीवी चैनलों, समाचार पत्रों में, महाविद्यालयों की प्राचार्य सूची में स्थान, पुरस्कार, साहित्य, मीडिया और शिक्षा में- स्त्रियों हर जगह अपनी काबिलियत साबित की। डॉ आंबेडकर ने पितृसत्ता हो या वर्ण सत्ता, स्त्रियों को सबसे मुक्ति दिलाने का रास्ता तैयार किया।
लेकिन वैश्विक स्तर पर स्त्रियों की जो तस्वीर सामने आई है, वह बेहद निराशाजनक है। खासतौर पर दलित-आदिवासी स्त्रियों की आज जो हालत है, उसे देख कर आंबेडकर शायद बेहद दुखी होते। 22-23 जुलाई 1942 को नागपुर में संपन्न हुई दलित स्त्रियों के एक सम्मेलन में उन्होंने ‘डिप्रेस्ड क्लास’ यानी दमित तबकों की महिलाओं को संबोधित किया कि वे अपने बच्चों को आदर्श शिक्षा दें, पति-पुत्र मद्यपान करें, तो उन्हें घर में न घुसने दें, खान-पान पहनने-ओढ़ने में स्वच्छता अपनाएं। उन्होंने समाज की पढ़ी-लिखी उच्च वर्ण की स्त्रियों का भी आह्वान किया कि आपकी जिम्मेदारी है कि अपनी बहिष्कृत और आदिवासी पिछड़े वर्गों की बहनों को पढ़ाएं-लिखाएं।
दरअसल, अधिकारों को हासिल करने का क्रम आगे बढ़ने में खड़ी हुई अनेक प्रकार की बाधाओं की वजह से दलित-आदिवासी स्त्रियों के सामने कई तरह की चुनौतियां खड़ी हुर्इं। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि पहले ही विपत्तियों से भरी रही है। इस हकीकत के बरक्स स्त्रियों का जिस कोण से मूल्यांकन हो रहा है, उसमें लैंगिक भेदभाव के साथ जातिगत भेदभाव कमजोर वर्ग की स्त्रियों को और कमजोर कर रहा है। सही है कि भूटान, बांग्लादेश, म्यांमा, श्रीलंका की स्त्रियों की भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, पर हम तो अमेरिका की ओर देखते हैं हम तो कमला हैरिस को भारतीय मूल की होने पर गर्व करते हैं। क्या स्त्रियों की प्रतिभा अमेरिका, इंग्लैंड में जाकर ही उड़ान भरेगी? भारतीय धरती के आसमान में स्त्रियां क्या कभी नहीं उड़ सकेंगी?
(लेखक दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं)