पिछले सप्ताह खूब चर्चा रही ‘इमरजेंसी’ यानी आपातकाल की। जून 25 के दिन उस काले दौर के पचास साल बीत गए थे, तो चर्चा क्यों न हो। मैंने राजनेताओं, पत्रकारों, राजनीतिक पंडितों को सुना टीवी पर और कई लेख पढ़े अखबारों में, जिनमें इन ज्ञानियों ने गंभीर शब्दों में उन अठारह महीनों का जिक्र किया, जब इस देश में लोकतंत्र को ताक पर रखकर एक अति-लोकप्रिय प्रधानमंत्री ने अपने आप को तानाशाह बनाकर हमारे सारे बुनियादी अधिकार छीन लिए थे।
मेरे लिए वे काले दिन खास महत्त्व रखते हैं, इसलिए कि एक भारतीय अखबार में काम करने का मौका पहली बार मिला मुझे आपातकाल के घोषित होने से एक महीने पहले। इन ज्ञानियों ने ध्यान दिलाया कि उन अठारह महीनों में तानाशाही इतनी थी कि दिल्ली में लोग दोस्तों, रिश्तदारों से भी राजनीति पर बात करने से डरते थे। इंदिरा गांधी के खिलाफ पत्रकार एक शब्द नहीं लिख सकते थे। जब गरीब मर्दों को भेड़ों की तरह रात के अंधेरे में ट्रकों में भर कर ले जाया जाता था उनकी नसबंदी करने। न शिकायत कर सकते थे, न विरोध। यह सब बातें सच हैं, लेकिन जो भारतीय राजनीति को सबसे बड़ा नुकसान हुआ था उन अठारह महीनों में, उसका जिक्र तक मैंने नहीं सुना। शायद इसलिए कि इस हमाम में अब हमारे सारे राजनीतिक दल नंगे हैं।
संजय अपनी मां के बाद देश के सबसे बड़े राजनेता बन गए थे
आपातकाल का सबसे बड़ा नुकसान, मेरी नजर में यह हुआ कि परिवारवाद की नींव रखी गई थी उसी दौर में। इंदिरा गांधी ने अपने छोटे बेटे, संजय गांधी को न सिर्फ अपना सबसे अहम सलाहकार बनाया था, बल्कि उसके हवाले देश की बागडोर दे डाली थी। संजय अपनी मां के बाद देश के सबसे बड़े राजनेता बन गए थे। मंत्रियों से लेकर भारत सरकार के सारे आला अधिकारी संजय के आदेश का पालन करते थे। जिन्होंने संजय का हुकुम मानने से इनकार किया, उनकी फौरन छुट्टी कर दी जाती थी।
इंद्र कुमार गुजराल उन दिनों इंदिरा गांधी के करीबी माने जाते थे और उनके सूचना प्रसारण मंत्री भी थे, लेकिन जब उन्होंने संजय का हुकुम मानने से इनकार किया तो उनको मंत्रिमंडल से निकाल दिया गया और उनकी जगह संजय ने बिठाया विद्याचरण शुक्ला को, जिन्होंने दिखाया हम पत्रकारों को कि प्रेस सेंसरशिप का उल्लंघन करने की कीमत क्या है।
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संजय गांधी पहले व्यक्ति थे जो राजनीति में आए सिर्फ इसलिए कि उनकी मां प्रधानमंत्री थीं और उनके नाना देश के पहले प्रधानमंत्री। इंदिरा गांधी के बारे में भी कहा जा सकता है कि वे प्रधानमंत्री बनीं, सिर्फ इसलिए कि उनके पिता भारत के पहले प्रधानमंत्री थे।
सच यह है कि इंदिरा गांधी को नेहरू ने अपने जीवन में अपना वारिस नहीं बनाया था। नेहरू के बाद दो प्रधानमंत्री और बने थे। तो इंदिरा गांधी काफी हद तक अपने बल पर राजनीति में सबसे ऊंचे ओहदे पर पहुंचीं थीं। संजय गांधी के साथ ऐसा नहीं था। जब उनकी मां ने देश और कांग्रेस पार्टी को उनके हवाले किया तो उनको न राजनीति में कोई अनुभव था और न शासन में।
आपातकाल के बाद जब इंदिरा गांधी जनता पार्टी की गंभीर गलतियों और झगड़ों के कारण फिर से 1980 का चुनाव जीतीं, तब असल में संजय गांधी ने उनको उस बार चुनाव जिताने में सहायता की थी और सीटों के बंटवारे में भी उनका दखल था। इंदिरा गांधी की सफल राजनीतिक वापसी को देख कर देश के बाकी छुटभैया राजनेता भी अपने परिवार से वारिस चुनने लगे।
नतीजा यह है कि आज एक भी राजनीतिक दल नहीं है, भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों के अलावा, जो एक परिवार की निजी संपत्ति न बन चुका हो। जो परिवार चलाते हैं इन दलों को, उनका कहना है कि उनके बेटे-बेटियां चुनाव लड़ कर आते हैं तो यह लोकतंत्र ही तो है।
यह बात बिल्कुल गलत है। अक्सर इन राजनीतिक राजकुमार और राजकुमारियों का लोकसभा में प्रवेश होता है ऐसे जनपदों से जो उनकी मां या पिता का गढ़ माने जाते हैं। राजीव गांधी को जब राजनीति में लाया गया, उनके भाई के हवाई दुर्घटना में देहांत के बाद, तो उन्हें रायबरेली से लड़ाया गया जो उनकी मां की पक्की सीट मानी जाती थी। वैसा ही होता है हर नए वारिस के साथ।
उनको सौंपी जाती हैं अक्सर उनकी मां या उनके पिता की कोई पक्की सीट। इसलिए जीत कर तो आते हैं लोकसभा में, लेकिन थोड़ी गड़बड़ी करके।
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इस परंपरा का नुकसान भारतीय लोकतंत्र को यह हुआ है कि कई काबिल लोग, जिन्होंने समाज सेवा की है और जिनके लोकसभा में आने से देश को लाभ हो सकता है, उनको टिकट नहीं मिलता है, क्योंकि युवराज साहब से काबिल लोगों को आगे बढ़ने नहीं दिया जाता है उन राजनीतिक दलों में, जो किसी परिवार की निजी जायदाद बन कर रह गए हैं।
जब लोग राजनीति में आते हैं देश की नहीं, अपने परिवार की सेवा करने, तो राजनीति कारोबार बन जाता है, धन कमाने का सबसे आसान तरीका। ऐसा हुआ है अपने इस बेहाल देश में, इसलिए जब प्रधानमंत्री परिवारवाद को गलत बताते हैं, तो वे बिल्कुल ठीक कहते हैं। उनकी समस्या यह है कि उनके अपने दल में भी अब वारिसों की बहार आई हुई है तो जनता की सेवा करने वाले लोग कम होते जा रहे हैं राजनीति में और अपने परिवार की सेवा करने वाले जरूरत से बहुत ज्यादा।
विकसित भारत का सपना हमको नरेंद्र मोदी दिखाते हैं जब भी किसी आम सभा को संबोधित करते हैं, लेकिन शायद भूल गए हैं प्रधानमंत्री कि विकसित देशों में परिवारवाद बहुत कम देखने को मिलता है। वही लोग ऊंचे ओहदों तक पहुंचते हैं, जिन्हें वास्तव में जनता की सेवा करने की इच्छा है। आपातकाल के बिना इंदिरा गांधी परिवारवाद की नींव नहीं रख सकतीं थीं।