बिहार की राजनीति का जिक्र हो और चुनावी किस्से न आएं, ऐसा हो ही नहीं सकता। आज जब बिहार एक बार फिर विधानसभा चुनाव की दहलीज पर खड़ा है, तो चलिए पीछे चलते हैं – उन दिनों में, जब लोकतंत्र की गाड़ी पहली बार यहां पटरी पर चढ़ी थी। आजादी के बाद जब यहां पहली बार चुनाव हुआ था।
पहला चुनाव, पहली बार लोकतंत्र का स्वाद
आज़ादी के बाद देश का पहला लोकसभा चुनाव 1951 में हुआ था। उसी दौर में 1952 में बिहार विधानसभा चुनाव का पहला पन्ना लिखा गया। उस समय झारखंड भी बिहार का हिस्सा था और कुल 330 सीटों पर मुकाबला हुआ। कांग्रेस पार्टी का जलवा ऐसा था कि पहली ही बार भारी बहुमत के साथ उसने सत्ता पर कब्जा कर लिया। बिहार को अपना पहला मुख्यमंत्री मिले—श्रीकृष्ण सिंह, जिन्हें लोग प्यार से ‘श्री बाबू’ कहते थे।
मतदाता करीब 1.8 करोड़ थे, लेकिन वोट डालने पहुंचे करीब 1 करोड़। यानी लगभग 55 फीसदी मतदान। 13 दल मैदान में उतरे थे, पर कांग्रेस के सामने सब फीके पड़ गए। यह चुनाव सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं था, बल्कि लोकतंत्र की नई शुरुआत का उत्सव था। बैलगाड़ियों में मतपेटियां ढोई जातीं, गांव-गांव लोग लाइन में खड़े होकर वोट डालते, मानो कोई बड़ा पर्व मन रहा हो।
1967 से 1985 तक उठापटक का दौर
1967 से लेकर 1985 तक बिहार की राजनीति में लगातार उठापटक चलती रही। 1967 में कांग्रेस को 318 में से 128 सीटें मिलीं, जबकि संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) ने 199 में से 68 और जन क्रांति दल ने 60 में से 13 सीटें जीतीं। इन चुनावों के बाद थोड़े-थोड़े समय के लिए कुल चार मुख्यमंत्री बने। उसी चुनाव में जनसंघ ने भी 271 सीटों पर लड़कर 26 पर जीत हासिल की थी।
1969 में कांग्रेस फिर सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन उसे बहुमत नहीं मिला। 318 सीटों में से कांग्रेस को 118, जनसंघ को 34, एसएसपी को 52 और कम्युनिस्ट पार्टी को 25 सीटें मिलीं। इस दौरान भी राष्ट्रपति शासन और छोटे-छोटे कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री दिखे, जिनमें दारोगा प्रसाद राय, कर्पूरी ठाकुर और भोला पासवान शास्त्री शामिल रहे।
1972 में कांग्रेस ने 259 में से 167 सीटें जीतकर सत्ता पाई, जबकि विपक्ष बुरी तरह पिछड़ गया। उस दौरान भी कुछ समय राष्ट्रपति शासन लगा और फिर केदार पांडे, अब्दुल गफूर और जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री बने।
इसके बाद 1977 का चुनाव आया, जिसमें जनता पार्टी की लहर चली और उसने 311 में से 214 सीटें जीत लीं। कांग्रेस को सिर्फ 57 सीटों पर संतोष करना पड़ा। कर्पूरी ठाकुर और रामसुंदर दास ने इस दौर में मुख्यमंत्री पद संभाला। 1980 में कांग्रेस (इंदिरा) ने वापसी की और 311 में से 169 सीटें जीत लीं। इसके बाद तीन साल तक जगन्नाथ मिश्र और फिर चंद्रशेखर सिंह मुख्यमंत्री रहे। 1985 में कांग्रेस ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की, उसे 323 में से 196 सीटें मिलीं।
इस कार्यकाल में भी बिंदेश्वरी दुबे, भागवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिन्हा और फिर से जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री बने। 1990 के चुनावों में जनता दल ने पहली बार मैदान में उतरकर 276 में से 122 सीटें जीतीं और सबसे बड़ी पार्टी बन गई। कांग्रेस को 71 और भाजपा को 39 सीटें मिलीं। इस चुनाव में लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने और लंबे समय तक सत्ता में रहे। इसी चुनाव के साथ बिहार में बार-बार मुख्यमंत्री बदलने का सिलसिला खत्म हो गया।
नीतीश बनाम लालू: नई सदी की लड़ाई
1990 के दशक में लालू यादव का दबदबा था। उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सौंप दी थी। लेकिन 2003 में समीकरण बदले। शरद यादव का गुट, लोक जनशक्ति पार्टी और नीतीश-जॉर्ज की समता पार्टी मिलकर जदयू बना बैठे। यही पार्टी लालू की ताकत को चुनौती देने उतरी।
2000 का दौर और झारखंड का जन्म
समय बीता, राजनीति बदली। 2000 का चुनाव उस दौर का गवाह बना जब झारखंड अब तक बिहार का हिस्सा था। कुल 324 सीटों पर लड़ाई हुई और 162 सीटों का जादुई आंकड़ा जरूरी था। राजद ने 293 सीटों पर जोर आजमाया लेकिन 124 पर ही सिमट गई। भाजपा को 67, समता पार्टी को 34 और कांग्रेस को महज 23 सीटें मिलीं। इसी साल नवंबर में झारखंड राज्य का गठन हुआ और बिहार की राजनीति का नक्शा बदल गया।
2005: एक साल में दो-दो चुनाव
2005 का साल बिहार की राजनीति का सबसे दिलचस्प किस्सा है। फरवरी में चुनाव हुए। राजद ने 215 सीटों पर किस्मत आजमाई लेकिन 75 पर ही रुकी। जदयू 55 और भाजपा 37 सीटें जीत पाई। कांग्रेस तो 10 सीटों पर ही सिमट गई। नतीजा यह हुआ कि किसी को बहुमत नहीं मिला और राज्य पर राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा।
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लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। अक्टूबर-नवंबर में फिर से चुनाव हुए। इस बार नीतीश कुमार और भाजपा की जोड़ी ने बाजी पलट दी। जदयू ने 88 सीटें और भाजपा ने 55 सीटें जीतकर सत्ता का रास्ता बनाया। यही पल था जब बिहार की राजनीति में लालू का एकछत्र राज ढलान पर आया और नीतीश कुमार का उदय हुआ। लोकतंत्र की जारी दास्तान
1952 से लेकर अब तक बिहार में 17 विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। हर चुनाव एक नया किस्सा, एक नई बिसात लेकर आया। कभी कांग्रेस का दबदबा, कभी लालू-राबड़ी का दौर, और फिर नीतीश कुमार की राजनीति। यह यात्रा बताती है कि बिहार सिर्फ राजनीति का मैदान नहीं, बल्कि लोकतंत्र की जीवंत प्रयोगशाला है।
यानी, जब आप बिहार की चुनावी चर्चा करें, तो याद रखिए—इस किस्से की शुरुआत 1952 से हुई थी। वही पहला चुनाव जिसने बिहार की राजनीति की बुनियाद रखी, और वही परंपरा आज तक जारी है।