चर्चा गरम है कि भारतीय जनता पार्टी हरियाणा में पंचायत चुनाव पार्टी के चुनाव निशान पर न लड़ने की तैयारी में है। ऐसा करने को तीन कृषि कानूनों के विरोध में जारी किसानों के आंदोलन के डर ने मजबूर किया है। तीन बड़े शहरों के हाल में हुए नगर निगम चुनाव के नतीजों से भी पार्टी की चिंता बढ़ी है। पहली बार महापौर पद का चुनाव सीधे मतदाताओं ने किया।
सोनीपत, अंबाला और पंचकूला में से भाजपा बमुश्किल पंचकूला में जीत पाई। जबकि इस चुनाव में उसका अपनी सहयोगी दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी के साथ था। सोनीपत में कांग्रेस को सफलता मिली तो अंबाला में पूर्व कांग्रेसी नेता और इस समय हरियाणा जन चेतना पार्टी के मुखिया विनोद शर्मा की पत्नी शक्ति रानी शर्मा ने भाजपा और कांग्रेस दोनों को धूल चटा दी। भाजपा ने यहां सुषमा स्वराज की बहन वंदना शर्मा को उतारा था। वंदना इससे पहले विधानसभा चुनाव भी हार चुकी हैं।
पंचकूला में भी भाजपा के कुलभूषण गोयल महज 2057 वोट से ही जीत पाए। इससे पहले 2019 में भी भाजपा के दावे की हवा वरोडा सीट पर निकल गई थी। मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने यहां हुए उपचुनाव के वक्त दावा किया था कि वे कांग्रेस से यह सीट झपट लेंगे। लेकिन जीत कांग्रेस की ही हुई थी। हरियाणा में एक तरफ जहां भाजपा और जजपा के बीच शुरू से ही सब कुछ सहज नहीं रहा वहीं दूसरी तरफ जजपा में भी कम असंतोष नहीं है।
भाजपाई दिग्गज कैप्टन अभिमन्यु को हराने वाले नारनौद के पार्टी विधायक रामकुमार गौतम अपने नेता और सरकार में उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला के खुले विरोधी हैं। मुश्किल यह है कि जजपा के विधायक चाहकर भी बगावत नहीं कर सकते। उन्हें आशंका है कि भाजपा निर्दलियों के बूते सरकार बचा लेगी। दुष्यंत के चाचा निर्दलीय विधायक रणजीत सिंह को भाजपा ने पहले ही मंत्री पद दे रखा है। दुष्यंत भी बखूबी जानते हैं कि किसान आंदोलन के कारण हो रहे नुकसान से बचने के लिए वे अगर मनोहर लाल सरकार से समर्थन वापस ले भी लेंगे तो भाजपा उनकी पार्टी में ही सेंध लगा देगी।
हालांकि सिरसा में जब किसान संगठनों ने दुष्यंत चौटाला के घर के बाहर प्रदर्शन किया था और उनके इस्तीफे की मांग की थी तो दुष्यंत इस्तीफे के मूड में आ भी गए थे। जो भी हो लोकप्रियता की कसौटी पर हरियाणा की भाजपा सरकार लगातार पिछड़ती ही जा रही है, इसमें कोई संदेह नहीं।
साखदार
त्रिवेंद्र सिंह रावत और उनका परिवार कोरोना संक्रमित हुआ तो सरकार के काम में शिथिलता आना स्वाभाविक ही है। फेफड़ों में संक्रमण को देख देहरादून के चिकित्सकों ने उन्हें बेहतर इलाज के लिए दिल्ली जाने की सलाह दी तो मुख्यमंत्री ने मान लिया। मुख्यमंत्री संक्रमित हों तो सियासी गहमा-गहमी क्यों न तेज होती। पहली चर्चा उनके उत्तराधिकारी को लेकर हुई।
गनीमत है कि विधानसभा के सत्र को सरकार की तरफ से संसदीय कार्य मंत्री मदन कौशिक ने बखूबी संभाला। मुख्यमंत्री के औद्योगिक सलाहकार पर विपक्ष ने आरोप लगाए तो कौशिक ने चतुराई से विपक्ष की बोलती बंद कर दी। एक तरह से उनके कार्यवाहक मुख्यमंत्री होने का संकेत भी साफ दिखा। मुख्यमंत्री का सबसे भरोसेमंद मंत्री भी कौशिक को ही माना जाता है। अड़चन बस यही है कि वे पर्वतीय क्षेत्र के बजाए हरिद्वार के मैदानी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। अपने मधुर व्यवहार के बूते विपक्षी नेताओं से भी उनका अच्छा रिश्ता है।
कांग्रेस के सूबेदार प्रीतम सिंह हों या विधायक दल की नेता इंदिरा हृदेश, यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत भी उन पर निजी तौर पर कभी ज्यादा आक्रामक नहीं दिखे। आरएसएस से निकटता भी उनके लिए ढाल का काम करती है। कौशिक के विरोधी गाहे-बगाहे उनके खिलाफ मुख्यमंत्री के कान भी भरने से नहीं चूकते पर उन्होंने मुख्यमंत्री का भरोसा इस कदर जीत रखा है कि हैसियत घटने के बजाए लगातार बढ़ी ही है।
खेल संभावना का
नीतीश कुमार भाजपा की मेहरबानी से मुख्यमंत्री बन तो जरूर गए पर वे इस पारी में ज्यादा खुश नहीं दिख रहे। अपने चहेते आरसीपी सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। जो 2010 में सियासत में आने से पहले यूपी में आइएएस अफसर थे। सबसे बड़ी खूबी नीतीश के जिले का निवासी और उनकी जात का होना मानी जा रही है। इससे पहले नीतीश ने जब मुख्यमंत्री पद छोड़ा था तो महा दलित जीतनराम मांझी को उत्तराधिकारी बनाया था। जिनके साथ बाद में नीतीश की कटुता भी हुई थी।
बहरहाल अब तो भाजपा ने अरुणाचल में नीतीश की पार्टी के छह विधायकों को तोड़कर साफ कर दिया कि चलेगी बड़े भाई की ही। सियासी असमंजस को राजद के श्याम रजक ने यह बयान देकर और बढ़ा दिया कि जद (एकी) के 17 विधायक राजद में आने के इच्छुक हैं। जद (एकी) ने इसे कोरी अफवाह बेशक बता दिया पर रांची जेल में बैठे लालू यादव के बारे में कही जा रही इस बात में कोई संदेह नहीं कि उन्होंने पार्टी नेताओं को नीतीश पर कोई वार नहीं करने की हिदायत दी है। राजनीति में नई संभावना को कभी भी नकारा नहीं जा सकता है। (प्रस्तुति: अनिल बंसल)