अनुराग सिंह
पिछले दिनों नोएडा में एक सोसाइटी के फ्लैट से बदबू आने व कई दिन से फ्लैट अंदर से बंद होने की शिकायत पुलिस में की गई तो नजारा मानवता को शर्मसार करने वाला था। उस फ्लैट में एक महिला का शव लगभग बीस दिन से सड़ रहा था जिसकी सुध लेने वाला कोई नहीं था। जांच में पता चला कि उस बीमार महिला का तलाक हो चुका था और बंगलुरु में नौकरी करने वाले उसके इंजीनियर पुत्र को अवकाश नहीं था कि आकर मां की देखभाल कर सके। अफसोसनाक बात यह कि पुत्र ने पिछले बीस दिनों में फोन पर भी मां की सुध लेने की कोशिश नहीं की। ऐसी ही एक घटना पिछले साल महाराष्ट्र में हुई जिसमें महिला का पुत्र विदेश में रहता था। आज हमारे समाज में वृद्धों के साथ घटने वाली ऐसी घटनाओं ने उनके प्रति हमारे व्यक्तिगत व सामाजिक दायित्व पर बड़े प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
किसी के पुत्र-पुत्री होने के कारण यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वृद्धावस्था में उनकी देखभाल करें। लेकिन जब लोग अपनी नैतिक जिम्मेदारी से पीछे हटने लगें तो समस्या केवल नैतिक नहीं रह जाती बल्कि एक सामाजिक समस्या बन जाती है। कमोबेश आज यह एक प्रमुख समस्या बनकर हमारे समाज में उभरी है। इसके कारणों की पड़ताल करें तो एक प्रमुख वजह लोगों का बड़े शहरों में नौकरी करने जाना व वहां की भागमभाग भारी जिंदगी में अति व्यस्तता, नए शहर में अपना एक आशियाना बनाने के लालच में हाड़तोड़ मेहनत है। इस नए तरह के परिवेश में मनुष्य आज अलगाव व अजनबीपन से पीड़ित है। कम होती संवेदनाओं के कारण आज वह मशीन होता जा रहा है। ऐसे में इन संवेदनहीन घटनाओं का होना कोई बड़ी बात नहीं लेकिन बड़ी समस्या अवश्य है। इसका हल केवल अपने स्तर पर नहीं किया जा सकता बल्कि हमारी सरकारें इसे समझें और इसके निदान के प्रयास करें यह बहुत आवश्यक है।
इस सिलसिले में राहत की बात है कि केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने नई नीति को मंजूरी दी है जिसके तहत भारत के सभी जनपदों में वृद्धाश्रम खोले जाएंगे। ऐसे जनपदों पर अभी विशेष ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया जा रहा है जहां एक भी वृद्धाश्रम नहीं है। मंत्रालय की ही रिपोर्ट के अनुसार देश के 718 में से 488 जनपदों में एक भी वृद्धाश्रम नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वहां वृद्धों के साथ इस तरह की समस्याएं नहीं हैं। देश के 488 जनपदों में एक भी वृद्धाश्रम का न होना बेहद खराब स्थिति का परिचायक है। पहले वृद्धाश्रमों को हमारे समाज में बहुत नकारात्मक भाव से देखा जाता था और कुछ रूढ़िवादी लोगों का मानना था कि इनके खुलने से पुत्र-पुत्रियां अपनी जिम्मेदारियों से और ज्यादा भागेंगे। तब वृद्धों के साथ संवेदनहीनता की स्थितियां ऐसी नहीं थीं। शहरी मध्यवर्ग की लालसाओं का विकराल रूप भूमंडलीकरण के बाद अधिक मुखरित हुआ है। जब समस्याएं बढ़ीं तो धीरे-धीरे उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ी और आज की स्थितियों को देखते हुए वृद्धाश्रम उन्हीं वृद्धों को जरूरी भी लगने लगे।
भारत को आज युवाओं का देश कहा जा रहा है और इसकी 60 प्रतिशत से ज्यादा आबादी युवा है। पर स्थितियां हमेशा ऐसी ही नहीं रहने वाली हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में वृद्धों की संख्या कुल आबादी का 8.6 प्रतिशत थी। अब 2018 में यह संख्या बढ़ कर लगभग 12 प्रतिशत तक पहुंच गई है। 2020 तक इसके लगभग 14 प्रतिशत तक पहुंच जाने की उम्मीद जताई जा रही है। आज हमारे देश में जितनी अधिक संख्या में युवा हैं आने वाले समय में वृद्धों की संख्या भी उतनी ही अधिक होगी। भविष्य में जिस अनुपात में इनकी संख्या बढ़ेगी उसी अनुपात में समस्याओं में भी इजाफा होगा। इसलिए हमने अगर अभी से तैयारी नहीं की तो वृद्धों की परेशानियां बढ़ेंगी। लिहाजा, सरकार द्वारा की गई यह एक आवश्यक पहल है।
इतना ही नहीं, सरकार ने वृद्धाश्रम खोलने से पहले के बेतरतीब नियमों को भी दुरुस्त करने का प्रयास किया है। पहले जब वृद्धाश्रम खोलने के लिए कोई अनुरोध आता था तो सरकारें सामान्यत: उसे स्वीकार कर लेती थीं। इसका परिणाम यह हुआ कि वृद्धाश्रमों का वितरण न्यायपूर्ण नहीं था। कई जनपदों में इनकी संख्या बहुत अधिक थी तो कई जनपदों में एक भी वृद्धाश्रम नहीं था। वर्तमान में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक ही वे राज्य हैं जहां सबसे अधिक वृद्धाश्रम संचालित हो रहे हैं। अगर मौजूदा स्थिति का जायजा लिया जाए तो देश के करीब 230 जनपदों में लगभग 400 वृद्धाश्रम संचालित हो रहे हैं।
वृद्धाश्रमों का न होना एक समस्या तो थी ही जिसे दूर किया जा रहा है लेकिन एक अन्य समस्या यह है कि जो वृद्धाश्रम संचालित हो रहे हैं उनमें भी अनेक प्रकार की अनियमितताओं की खबर आती ही रहती हैं। इन अनियमितताओं को दूर किया जाना चाहिए ताकि जिन वृद्धों को उनके घर में उनका हक नहीं मिला एक सभ्य समाज के रूप में हम उन्हें उनका हक दे पाएं।
बिहार सरकार के समाज कल्याण विभाग के अंतर्गत वृद्धों के लिए कार्यरत सीनियर सिटिजन काउंसिल की बोर्ड की बैठक में हाल ही में वृद्धों की सुध लेते हुए अपने बच्चों से परेशान माता-पिता को शिकायत करने के लिए गांव में ही सुविधा उपलब्ध कराई गई। पहले ऐसी शिकायत के लिए उन्हें एसडीओ के दफ्तर जाना पड़ता था जो वृद्धों के लिए एक मुश्किल कार्य हो जाता था। वहां एक बड़ी समस्या यह आ रही थी कि कमाने के चक्कर में पूरा परिवार बूढ़े मां-बाप को छोड़ कर शहर चला जाता था और उनकी देखरेख के लिए कोई नहीं बचता था। काउंसिल ने फैसला किया कि ऐसे मामलों की सुनवाई ग्राम कचहरी के स्तर पर ही की जाएगी।
चीन के शंघाई शहर ने बुर्जुगों की हालत सुधारने के लिए एक अनोखी सकारात्मक पहल की है। वहां अगर बुजुर्ग माता-पिता अपने बच्चों द्वारा किए गए दुर्व्यवहार की शिकायत करते हैं तो उनकी संतानों की ‘क्रेडिट रिपोर्ट’ पर असर पड़ता है। क्रेडिट रिपोर्ट खराब होने से वित्तीय सुविधाओं व ऋण आदि लेने में समस्या उत्पन्न होती है। हाल में ‘हेल्प एज इंडिया’ के एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में बुजुर्गों के साथ सबसे कम दुर्व्यवहार दिल्ली में होता है। इसके पीछे कारण उनका खुद सचेत होना है। पर यह ठीक स्थिति नहीं है कि अगर वृद्ध स्वयं सचेत न हों तो उन्हें सम्मान न दें, उनकी इज्जत न करें।
सभी जनपदों में वृद्धाश्रम खोलने की सरकार द्वारा की गई पहल बेशक सार्थक है पर यह इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। वृद्धाश्रम एक मजबूरी वाला समाधान है जहां अधिकतर वृद्ध स्वेच्छा से रहना पसंद नहीं करते हैं। जीवन के अंतिम क्षणों में एक वृद्ध को जिस लगाव और अपनत्व की आवश्यकता होती है वह उसका परिवार ही दे सकता है। वृद्धाश्रमों में वह मानसिक शांति और सुख उन्हें नहीं मिल सकता जो वे अपने परिवार में प्राप्त करते हैं। लेकिन परिवार के दायित्वहीन होने पर उन्हें किसी अन्य सहारे से बेहतर वृद्धाश्रम दिखाई देता है। ऐसे में सामाजिक ताने-बाने को बेहतर बनाए रखने के लिए हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी है कि अपने बुजुर्गों का सम्मान करें। वृद्धावस्था में उन्हें प्रताड़ित करने के बजाय उन्हें स्नेह से सिंचित कर उनके जीवन को सुखद बनाएं।