आप में से क्या किसी को याद है आज कि एक जमाना था जब बिहार आर्थिक तौर पर कर्नाटक और गुजरात से आगे था? यकीन करना मुश्किल है, लेकिन साठ के दशक में ऐसा था। सच यह भी है कि मैंने जब से बिहार जाना शुरू किया, तब से देश के इस सबसे गरीब राज्य में सिर्फ गुरबत देखी। पहली बार गई थी मैं 1982 में जब ‘संडे मैगजीन’ के संपादक एमजे अकबर ने मुझे भागलपुर भेजा यह जानने कि जिन कथित अपराधियों को पुलिस ने कुछ महीने पहले उनकी आंखों में तेजाब डाल कर अंधा किया था, उनको न्याय मिला कि नहीं। कोई तीस अपराधियों के साथ पुलिस ने यह बर्बरता की थी उनको सबक सिखाने के लिए। दुनिया उनकी क्रूरता देख कर हैरान थी, लेकिन बिहार में ऐसी घटनाएं ‘सामान्य’ थीं।

भागलपुर में उन दिनों रहने के लिए कोई होटल नहीं था। एक ‘मेहमानगृह’ नाम की जगह हम ठहरे थे। ऐसे कमरे में जहां पलंग नहीं, सीमेंट के फट्टे थे जिन पर न चादरें थीं, न गद्दे, न ओढ़ने के लिए कंबल। याद है मुझे आज भी कि ठंड कितनी लगी उस रात। इसके बाद बिहार जाना कई बार हुआ। मैंने इस राज्य की तरक्की और तरक्की न होने के कारण करीब से देखे हैं। वे दिन भी देखे हैं जब जातीय सेनाएं थीं देहातों में जो एक दूसरे पर हमले इतनी क्रूरता से करती थीं कि उन पर लिखना मुश्किल था।

खासतौर से याद है मुझे रणवीर सेना का 1997 में लक्ष्मणपुर-बाथे वाला हमला, जिसमें 58 दलित मारे गए थे, इनमें गर्भवती महिलाएं और बच्चे भी थे। मैं जब तक पहुंची वहां, दलितों की कच्ची झुग्गियों को जला दिया गया था। इतिहास के पुराने पन्ने मैंने इसलिए खोले हैं कि अब जब बिहार में फिर से चुनाव होने वाले हैं, उनको इतिहास के पर्दे के सामने रख कर देखना जरूरी है। जरूरी है याद करना न सिर्फ हिंसक घटनाएं, याद करना यह भी जरूरी है उस जंगलराज को जो लालू यादव के नाम से जोड़ा जाता है। पटना की सड़कों पर उन दिनों रात में घूमना मौत को दावत देने के बराबर था।

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पटना के पांचसितारा मौर्य होटल में मेरे बगल वाले कमरे में रह रहे थे माफिया किस्म के लोग जो होटल के नियमों का उल्लंघन कर अपने कमरों में खाना पकाया करते थे। उस बार गई थी मैं नई मुख्यमंत्री राबड़ी देवी का इंटरव्यू करने। लालू यादव को जब चारा घोटाले में दोषी पाकर जेल भेजा गया था, तो उन्होंने राज्य को अपनी पत्नी के हवाले छोड़ दिया था। याद है मुझे कि मैंने जब राबड़ी देवी से पूछा था कि क्या शासन संभालने के लिए शिक्षित होना जरूरी नहीं है, तो वे भड़क गई थीं और मुझे और मेरी टीवी टीम को घर से बाहर निकाल दिया था।

जब नीतीश कुमार का दौर शुरू हुआ और बिहार में थोड़ी बहुत शांति आई और शासन भी काफी हद तक ठीक चलने लगा, तो उनको सुशासन बाबू के नाम से जाना गया। उनके बीस साल लंबे दौर में बिहार में गुरबत कम जरूर हुई है, लेकिन आज भी यह देश का सबसे गरीब राज्य है। आज भी जाति के नाम पर वोट डालते हैं बिहार के मतदाता और आज भी यहां विकास इतना कम हुआ है कि देश के महानगरों में आपको धनवानों के घरों में नौकर बहुत सारे बिहारी मिलेंगे।

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नीतीश कुमार के दौर में कुछ हद तक ही परिवर्तन आया और अब वे थके-हारे से लगते हैं इतने कि अनुमान लगाया जाता है कि उनका जीतना मुश्किल है इस बार। बावजूद इसके कि उनके साथ खड़े हैं नरेंद्र मोदी। इस गठबंधन को सबसे ज्यादा मुकाबला दे रहा है, ऐसा गठबंधन जिसका नेतृत्व कर रहे हैं उन लोगों के वारिस जिन्होंने बिहार का सबसे ज्यादा नुकसान किया है।

राहुल गांधी और तेजस्वी यादव हैं यह वारिस और अगर जीत जाते हैं इस बार, तो बिहार के वही पुराने दिन देखने को शायद मिलेंगे। इस दफा नए चेहरे और उम्मीद के रूप में अगर है तो प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी। उम्मीद है कि जन सुराज को इतना समर्थन मिलेगा कि बिहार की राजनीति में उसकी जगह बने।

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मेरा मानना है कि देश को ऐसे राजनेताओं की सख्त जरूरत है, जो सिर्फ जनता की सेवा करने आएं राजनीति में। प्रशांत किशोर ने पिछले तीन वर्षों में बिहार के तकरीबन हर जिले में पदयात्रा कर लोगों के साथ संपर्क जोड़ा है और उनकी समस्याओं को समझने की कोशिश की है। साथ ही उनको समझाने की कोशिश की है कि उनको जातिवाद के पिंजरे से निकल कर वोट करना चाहिए ऐसे लोगों को जो वास्तव में उनके लिए कुछ करना चाहते हैं और जो बिहार के विकास के लिए जी-जान से काम करेंगे। ऐसे लोगों की देश को जरूरत है, लेकिन बिहार को ज्यादा।

बिहार के मतदाताओं के पास इस बार विकल्प है, लेकिन क्या इस विकल्प को चुनेंगे उन पुराने राजनीतिक दलों की जगह, जिनके बारे में कम से कम इतना तो कहा जा सकता हैं कि ये पहचाने हुए लोग हैं? कहना मुश्किल है कि बिहार के मतदाताओं में अब इतनी राजनीतिक सूझबूझ आ गई है कि वे जन सुराज को जिताएंगे। मगर इतना तो कहा जा सकता है कि पहली बार बिहार के मतदाताओं के सामने एक विकल्प है और इतना भी होना बहुत बड़ी बात है।

निजी तौर पर मैं इतना कहना चाहती हूं कि अगर मैं बिहार में मतदाता होती, तो मेरा वोट जन सुराज को जाता। आगे यह भी कहना चाहूंगी कि इस देश की सबसे बड़ी राजनीतिक जरूरत है कि हर राज्य में किसी चमत्कार से सामने आ जाएं आम जनता के लिए ईमानदारी से काम करने वाले नेता, ताकि वास्तव में विकसित भारत का सपना साकार होता हम देख सकें।