जंगलराज…। बिहार के संदर्भ में यह उपमा पटना हाई कोर्ट ने बुनियादी नागरिक सुविधाओं को लेकर दी थी। आज दो दशक का समय बीत जाने के बाद भी नीतीश कुमार इस उपमा को किसी खिताब की तरह प्रचारित-प्रसारित करते रहते हैं। शासन-प्रशासन में आमूल-चूल बदलाव के लिए दो दशक का समय पर्याप्त होता है। इतनी लंबी पारी खेलने के बाद भी कथित सुशासन वाले राज्य में कथित जंगलराज ही मुद्दा बनता है। इन दिनों मीडिया के मंचों पर बिहार पहुंचे दिल्ली के पत्रकार व अनंत सिंह छाए हुए हैं। अनंत सिंह अपने वीडियो में जिस तरह की भाषा बोलते हैं, जिस तरह से पत्रकारों को धमकी देते हैं, उसे देख कर लगता है कि आज भी बिहार के संदर्भ में कुछ खास नहीं बदला है। बिहार में मतदान के पहले ही ‘गैंगवार’ जैसी स्थिति में हत्या तक हो चुकी है। पक्ष-विपक्ष के चुनावी काफिले में चालीस से पचास गाड़ियां घूम रही हैं, हमले हो रहे हैं तो लग रहा कि क्या यहां एक बार फिर से टीएन शेषन वाले चुनाव आयोग की जरूरत है? जंगल की उपमा के बरक्स स्वयंभू सुशासन बाबू के मंगल पर बेबाक बोल

अब तक बिहार और विपक्ष का नाम आते ही जंगलराज का जाप करने वाली एंकर बिहार चुनाव में प्रवेश के लिए घोड़े पर बैठती है, और इस तरह की संवाद अदायगी करती है। एंकर को शायद अंदाजा नहीं था कि उसके वीडियो के वायरल होते ही सीवान से लेकर मोकामा तक चुनाव में कट्टे का बोलबाला हो जाएगा। बिहार के ताजा हालात को देखते हुए कथित सुशासन बाबू, सत्ता समर्थक पत्रकार की इस उद्घोषणा को चुनावी पर्यटन कर रहे पत्रकारों के लिए बतौर चेतावनी इस्तेमाल कर सकते हैं।

वैसे, बिहार में जुटे दिल्ली से गए पत्रकारों को चेतावनी दी जा चुकी थी कि कथित जंगलराज कहीं नहीं गया है। यह कहीं भी, कभी भी प्रकट हो सकता है। अब आपकी मर्जी, उसे आप किस तरह के राज से अलंकृत करते हैं।

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पत्रकार को साक्षात्कार देते हुए बाहुबली नेता ठसक से कहते हैं, ‘अभी हम आपको मार दें तो सरकार क्या करेगी?’ कैमरे पर पत्रकार को इतनी बड़ी बात कहने के बाद भी जंगलराज दो दशक पहले खोजा जा रहा है, तो फिर इस अभिव्यक्ति की आजादी के सदके। मार दें…का आह्वान करता यह वीडियो सोशल मीडिया पर हंसी-मजाक का हिस्सा बन कर रह गया। इसमें किसी को जंगलराज का खौफ क्यों नहीं दिखा?

पहला सवाल यह है कि बिहार के इतिहास में महज नब्बे के दशक का जंगलराज पढ़ने-रटने वाला मीडिया ऐसे नेताओं को जंगलराज के प्रतीक के रूप में क्यों नहीं दर्शाता है? पत्रकारों का बस चले तो इन नेताओं के साक्षात्कार को ‘गैंग्स आफ फलांपुर’ के नाम से किसी ओटीटी मंच को बेच दे। इससे जंगलराज 2.0 नाम से यथार्थवादी फिल्म बन सकती है, अगर कोई बनाना चाहे तो।

इन दिनों बिहार में नब्बे के दशक के अखबार की सुर्खियां विज्ञापन का हिस्सा हैं। ढाई दशक पहले की इन सुर्खियों के बरक्स चुनाव प्रचार के दौरान अक्तूबर 2025 में सुशासन बाबू के राज में मोकामा में जनसुराज पार्टी के उम्मीदवार के लिए प्रचार कर रहे इलाके के स्थानीय दबंग माने जाने वाले दुलारचंद यादव की गुरुवार को हत्या कर दी गई।

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वहीं, सीवान जिले में सहायक उपनिरीक्षक की गला रेत कर हत्या कर देने का आरोप है। सहायक उपनिरीक्षक अनिरुद्ध कुमार का शव झाड़ियों में मिला। मीडिया की रपटें कह रही हैं कि शव की पहचान होते ही इलाके में भय का माहौल पसर गया। जाहिर सी बात है कि भय के इस माहौल को जंगलराज 2.0 का नाम नहीं दिया जाएगा।

दुलारचंद यादव की हत्या को मोकामा के इलाके में एक बहुजन नायक की हत्या के रूप में देखा जा रहा है। हत्या के आरोपी का नाम हर तरफ गूंज रहा है, लेकिन शायद नामजद आरोपी नब्बे के दशक की तरह ही बेफिक्र है। आरोपी को पता है कि बिहार के संदर्भ में नब्बे का दशक रूप बदल कर लौट आया है। रूप किस संदर्भ में बदला है? इस हत्या को अब जंगलराज, माफियाराज की तरह नहीं देखा जाएगा। सत्ता समर्थक कहना शुरू कर चुके हैं।अपराध कहां नहीं होते हैं? हमें पता नहीं है कि यह हत्या किसने करवाई?

वाकई! आपको पता है हत्या किसने करवाई? फिर क्यों होने दी हत्या? चुनाव के समय सरकारी खजाने पर तो सुशासन बाबू ने अपना पूरा नियंत्रण रखा, और लोगों के खातों में मुनादी करके पैसे भिजवाए। चुनाव के समय जब सरकारी खजाने पर कब्जा जमाए रखा तो पुलिस व प्रशासन पर से नियंत्रण क्यों खो दिया? बीस साल में कैसी सुशासन व्यवस्था आपने तैयार की है कि अपराधियों को जरा भी डर नहीं लग रहा है।

अपराधियों को आपका समय मंगलराज की तरह लग रहा है। लेकिन चुनावी मैदान की क्या हालत है? दुलारचंद यादव की तो अंतिम यात्रा भी झड़प की शिकार हुई। गयाजी के टिकारी विधानसभा से राजग उम्मीदवार और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के नेता अनिल कुमार की आपबीती पढ़िए जो मीडिया रपटों में दर्ज है-‘मेरे काफिले की आठ गाड़ियों पर हमला किया गया। भारी ईंटें मेरी पीठ और हाथ में लगीं। एक ईंट तो मेरे सिर के पास से छू कर निकल गई। लगभग पांच से सात चक्र गोलीबारी हुई। एक गोली मेरे पास से निकल गई। मेरे गार्ड ने भी जवाबी गोलीबारी की, और हम किसी तरह से वहां से भाग निकले।’

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पिछले दिनों कई राज्यों में चुनाव हुए। लेकिन क्या कहीं भी ऐसा ‘गैंग्स आफ फलांपुर’ वाला दृश्य दिखा? उन राज्यों में दो दशकों तक किसी ने सुशासन का ढोल भी नहीं पीटा। अगर इन अपराधों की घटनाओं को एक साथ समाहित कर सुर्खियां बनाई जाएं तो कुछ समय बाद क्या इसे जंगलराज 2.0 कहा जा सकता है? उस कथित जंगलराज में तो मतदान के दौरान हिंसा होती थी। यहां तो अभी मतदान के पहले चरण में पांच दिन बाकी हैं। आगे कैसे हालात बनेंगे, हम नहीं जानते।

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नब्बे के दशक वाले कथित ‘जंगलराज’ को गुजरे दो दशक से ज्यादा हो गए हैं। लेकिन आज भी सुशासन बाबू के पास चुनाव के समय में गुजरा इतिहास ही है। चुनाव आते ही सत्ता पक्ष से लेकर सत्ता समर्थक मीडिया जंगल-जंगल बात चली है, पता चला है गाने लगता है।

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चुनाव और विपक्ष के संदर्भ में जंगलराज आया, जंगलराज आया का शोर मच जाता है। आरोपों के तहत जंगलराज काला अध्याय था। लगता है कि इस जंगलराज को अब अतीतव्यामोह बना लिया गया है। जो बिहार में दो दशक से सुशासन लाने का दावा कर रहे हैं, वे भुनाने के लिए बिहार की इसी छवि को क्यों चुनते हैं? कथित जंगलराज के खात्मे के बाद आपने बिहार की छवि के लिए क्या किया?

स्वयंभू सुशासन के आपके दावे के बाद भी जनसुराज पार्टी वादा करती है कि छठ के बाद किसी को बिहार से बाहर जाने की जरूरत नहीं है। छठ के समय बिहार जाने वाली ट्रेनों की हालत देख कर शायद तिहरी इंजन वाली सरकार ने आंखें मूंद ली होंगी। छठ का पर्व खत्म हो गया। जितने लोग आए थे, वे सब वापस लौट रहे हैं। ऐसी कोई उम्मीद नहीं, जो रुक जाने को प्रेरित करे।

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आज का बिहार जुड़ता है देश के चारों महानगरों से। बिहार दिखता है महानगरों के रेलवे स्टेशनों पर। दिल्ली, मुंबई के प्लेटफार्म पर तिल रखने की जगह नहीं थी। लोग रेल के डिब्बों के शौचालयों में ठुंस कर यात्रा कर रहे थे। इन सबको अपने पर्व पर बिहार जाना था। ऐसी छवियों को देख कर सत्ता समर्थक इसी क्षेत्र के लोगों से लेकर जनसंख्या तक को कोसने लगते हैं। क्या जरूरत है, सबको एक साथ अपने घर जाने की। जनसंख्या ही इतनी बढ़ गई है कि कोई भी संसाधन पर्याप्त नहीं हो सकता है।

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दिल्ली में जिस वृहद पैमाने पर, सरकारी देखरेख में छठ पूजा मनाई गई, सरकार पर भागीरथी बन कर यमुना के बरक्स शोधित गंगाजल लाने के आरोप लग गए तो ‘जेन जी’ का सामान्य ज्ञान गड़बड़ हो चुका है। अब अगर प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में बिहार की राजधानी का नाम पूछा जाएगा, तो ये कहीं दिल्ली न बता दें।

पिछले दिनों पटना से लेकर बिहार के कई जगहों पर हुए अपराधों को देखते हुए, वहां की चुनावी भाषा सुनते, एंकर के वीडियो का सही संवाद शायद यह होना चाहिए था-लालू यादव का जंगल, नीतीश कुमार का मंगल है। अभी तक का हाल देख कर तो यही लग रहा है, कि जैसे प्रदूषित यमुना के आगे शोधित पानी का नकली तालाब बनाया गया, उसी तरह जंगल के आगे अस्थायी नकली फुलवारी बना दी गई है, जिसके आगे कोई किसी गीत के बोल गा रहा है-
सच्चाई छुप नहीं सकती

बनावट के उसूलों से
कि खुशबू आ नहीं सकती
कभी कागज के फूलों से