रामचरितमानस की कुछ चौपाइयों को लेकर बिहार से शुरू हुआ विवाद अब देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में गरमा रहा है। इसके केंद्र बिंदु में पिछड़े तबके के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य हैं, जो पिछले विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा छोड़कर सपा में शामिल हुए थे। उन्होंने बयान दिया कि रामचरितमानस की कुछ चौपाइयां दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और महिलाओं को अपमानित करने वाली हैं।
लिहाजा इन चौपाइयों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। रामचरितमानस को लेकर किसी भी रूप में विवाद हो तो भाजपा के लिए उस पर प्रतिक्रिया देना लाजिमी हो जाता है। दरअसल भाजपा की योजना अगले लोकसभा चुनाव से पहले अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा कर उसे अपनी सरकार की उपलब्धि बताते हुए चुनावी मुद्दा बनाने की है।
2014 के बाद से सपा और बसपा का जनाधार भी खिसक ही रहा है। भाजपा के मुकाबले के लिए विरोधी दलों को फिर जातीय कार्ड से ही उम्मीद की रोशनी नजर आई है। इसीलिए राजद के नेता और बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने जब रामचरितमानस के बहाने जातीय कार्ड की सियासत को उभारा तो न तेजस्वी यादव ने उन्हें टोका और न मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस विवाद को गंभीरता से लेने की जरूरत समझी।
इससे पहले जातीय जनगणना का कार्ड तो नीतीश ने खेल ही दिया था। जातीय जनगणना की मांग का सभी मंडलवादी दलों ने समर्थन किया है। पर भाजपा इसके पक्ष में नहीं। तभी तो केंद्र सरकार ने इस मांग को अनसुना कर दिया। तब तो नीतीश भाजपा के साथ ही थे। अलगाव के बाद तो उन्होंने राज्य स्तर पर जातीय जनगणना शुरू करा दी। भाजपा समर्थकों ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी। पर कोई परिणाम नहीं निकला।
मंडलवादी पार्टियों को लगता है कि भाजपा सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास का तो बस नारा लगाती है। अगड़ों की उसे ज्यादा चिंता है। भाजपा अपने विरोधियों के खिलाफ समाज में यह धारणा बनाने में किसी हद तक सफल रही है कि मध्यमार्गीय दल तुष्टीकरण की राजनीति करते हैं। देश के सबसे बड़े हिंदू समाज के साथ भेदभाव करते रहे हैं।
मंडलवादी पार्टियां मानती हैं कि दलितों और पिछड़ों को सत्ता, अवसर और संसाधन उनकी संख्या के हिसाब से नहीं मिल रहे। शायद यही वजह है कि एक तरफ तो अखिलेश यादव रामचरितमानस को प्रतिष्ठित धार्मिक ग्रंथ बता रहे हैं वहीं दूसरी तरफ स्वामी प्रसाद मौर्य का खुलकर समर्थन भी कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि वे विवादास्पद चौपाईयों का अर्थ मुख्यमंत्री से पूछेंगे।
अखिलेश ने इसी विवाद के दौरान स्वामी प्रसाद मौर्य को पार्टी का महासचिव बनाकर अपनी मंशा और स्पष्ट कर दी। जाहिर है कि वे भी इसे चुनावी मुद्दा बनाने की ठान चुके हैं। इस विवाद में घबराहट सबसे ज्यादा मायावती को हुई है। एक दौर में तो बसपा का नारा तिलक, तराजू और तलवार, इनकों मारो जूते चार होता था। पर सत्ता का स्वाद चखने के बाद बसपा भी बहुजन समाज के बजाए सर्व समाज की दुहाई देने लगी।
यह बात अलग है कि भाजपा के उभार के बाद बसपा का वोट बैंक उत्तर प्रदेश में इस कदर बिखर गया कि 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का खाता तक नहीं खुल पाया। सपा से गठबंधन न होता तो बसपा 2019 में दस लोकसभा सीटें कतई न जीत पाती। मायावती दुविधा में फंसी हैं। वे भाजपा से सीधे टकराना नहीं चाहतीं। वजह उनके खिलाफ लंबित अनेक जांचों को माना जाता है। पिछले साल विधानसभा चुनाव में बसपा का जनाधार सूबे में घटकर 13 फीसद से भी नीचे पहुंच गया।
स्वामी प्रसाद मौर्य ने दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और महिलाओं के स्वाभिमान को मुद्दा बनाया तो इस विवाद में संघ प्रमुख मोहन भागवत भी कूद पड़े। संघ की सियासत का तो आधार ही हिंदू एकता रहा है। अगड़े और पिछड़े का बंटवारा राजनीति को फिर बदल सकता है। शायद इसी डर से रविदास जयंती पर मोहन भागवत ने सफाई दे डाली कि भगवान की नजर में तो सब इंसान एक जैसे हैं। उनका जातियों में विभाजन तो पंडितों ने किया है। इस बयान से साधु संतों में उबाल आ गया।
सनातन धर्म के खिलाफ बता दिया इस बयान को कुछ संतों ने तो। ब्राह्मण नाराज न हो जाएं, इस चक्कर में संघ के एक पदाधिकारी सुनील आंबेकर सफाई देने कूद पड़े। फरमाया कि संघ प्रमुख का आशय ब्राह्मणों से नहीं बल्कि विद्धानों से था। कांग्रेस फिलहाल इस सियासी लड़ाई में शामिल नहीं है। उसकी अपनी अलग रणनीति जो ठहरी। क्षेत्रीय दलों से खतरा तो भाजपा की तरह उसे भी रहा ही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इस विवादास्पद मुद्दे पर आने वाले दिनों में कोई रंग चढ़ पाएगा या नहीं।