तमिलनाडु के शिवगंगा से कांग्रेस के सांसद कार्ति चिदंबरम का कहना है कि बीते लोकसभा चुनाव ने संसदीय राजनीति में दक्षिण भारत की अहमियत बढ़ा दी है। दक्षिण से बढ़े कांग्रेस के सांसदों ने संसद का एकतरफा माहौल बदल दिया है। एकध्रुवीय राजनीति में आए इस विकेंद्रीकरण को देख कर ही भाजपा उत्तर बनाम दक्षिण भारत का विवाद खड़ा कर रही है। उनका कहना है कि तमिल समुदाय पारंपरिक रूप से धार्मिक है जिसने धर्म को शुद्धतम रूप में संरक्षित रखा है। जाति जनगणना को लेकर उन्होंने कहा कि नीतिगत फैसले लेने के लिए यह जरूरी कदम है और बहस इन आंकड़ों के उपयोग पर हो। नई दिल्ली में कार्ति चिदंबरम के साथ कार्यकारी संपादक मुकेश भारद्वाज की विस्तृत बातचीत के चुनिंदा अंश।
कार्ति चिदंबरम ने राजनीति को ही क्यों चुना? आपके पास और भी विकल्प थे।
कार्ति चिदंबरम: मेरा जन्म एक ऐसे घर में हुआ जहां मेरे पिता पहले से राजनीतिज्ञ थे। राजनीति की ओर झुकाव का यह बुनियादी कारण तो है। लेकिन, मैं स्कूली समय से ही सार्वजनिक मंचों पर मुखर रहता था। आस-पास की चीजों में रुचि लेना, जहां जरूरत हो वहां नेतृत्व करने के लिए आगे आना मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा रहा। इसलिए विदेश से औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद मुझे अपने व्यक्तित्व के अनुकूल यही क्षेत्र लगा। मैं स्वाभाविक रूप से लोगों के बीच रहने वाला आदमी हूं।
कांग्रेस आपकी स्वाभाविक पसंद रही इसलिए आप यहां आए या आपके पिता यहां स्थापित थे और आप पार्टी को बेहतर तरीके से जानते थे इसलिए इसे चुना।
कार्ति चिदंबरम: यह तो एक तथ्य है कि मेरे जन्म के पहले मेरे पिता युवा कांग्रेस में थे। उनकी पहचान बन चुकी थी। इसलिए यहां के प्रति मेरा झुकाव था। व्यावहारिक स्तर पर मैं स्वतंत्र विचार का उदारवादी व्यक्ति रहा हूं। मैं जिस तरह की स्वतंत्र विचारधारा का, आधुनिक, मुक्त बाजार का समर्थक रहा हूं तो मुझे नहीं लगता कि मेरे लिए कांग्रेस के अलावा किसी और दल में जगह थी। कांग्रेस में ही मुझे वैसा माहौल मिला जहां मेरे जैसे लोकतांत्रिक मिजाज का व्यक्ति आगे बढ़ सकता था।
आज ऐसा माहौल है कि कांग्रेस से बड़े स्तर पर नेताओं का पलायन हुआ है। केंद्रीय सत्ता से दूरी के अलावा इसकी क्या और कोई वजह है?
कार्ति चिदंबरम: कांग्रेस जैसी विशाल पार्टी में यह संभव नहीं है कि हर किसी की महत्त्वाकांक्षा पूरी हो जाए। हर कोई अपने निर्वाचन क्षेत्र में चुनौतियों का सामना कर रहा है। कोई जरूरी नहीं है कि हर पलायन विचारधारा के स्तर पर हुआ हो। ऐसा तो नहीं हो सकता है कि किसी को अचानक कांग्रेस के प्रति बहुत घृणा हो जाए और भाजपा में ही सारा आदर्श दिखे। संघर्ष के समय पार्टी छोड़ कर चले जाना कोई आश्चर्यजनक नहीं है।
एक आरोप अभी यह भी लग रहा है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में दक्षिण भारत का गुट ज्यादा शक्तिशाली हो गया है। इसके साथ ही उत्तर-दक्षिण के बीच टकराव बढ़ रहा है।
कार्ति चिदंबरम: यह उत्तर-दक्षिण का विभाजन भाजपा का खड़ा किया गया है। भाजपा ने क्षेत्रीय व उपक्षेत्रीय पहचानों को हाशिये पर रखने की कोशिश की है। भाजपा का हिंदी-हिंदुत्व पर पुराना जोर रहा है। इसी के खिलाफ दक्षिण से प्रतिरोध की आवाज आती है। राहुल गांधी वायनाड से चुनाव लड़े। वहां से ज्यादा सांसद आ रहे हैं, वे अधिक महत्त्वपूर्ण हो गए हैं तो भाजपा इसे विभाजनकारी स्थिति के रूप में दिखाना चाहती है। भारत के बारे में भाजपा का मानना है कि एकरूपता ही एकता है, वहीं कांग्रेस एकता और विविधता में विश्वास रखती है। हमारे लिए विविधता ही एकता का उत्सव है। भाजपा इस विविधता के खिलाफ रही है। भाजपा हर कानून, हर योजना, हर नाम हिंदी या संस्कृत में रखती है। किसी और भाषा को स्थान क्यों नहीं देती है? भाजपा छोटी क्षेत्रीय पहचानों को दबाना और अपने में शामिल करना चाहती है। यहीं से उत्तर और दक्षिण के बीच प्रतिरोध आता है।
भारत में हर क्षेत्र अपनी भाषा को आगे बढ़ाना चाहता है। लेकिन उनकी हिंदी से ऐसी नफरत नहीं दिखती जैसी तमिलनाडु में दिखती है? ऐसा क्यों?
कार्ति चिदंबरम: यह साठ के दशक की बात है जब हिंदी को अनिवार्य बनाने की बात आई थी। वैकल्पिक से अनिवार्य की ओर बढ़ती हिंदी ने ही तमिलनाडु में पहचान आधारित आंदोलन खड़ा किया। इसी भाषाई पहचान के संघर्ष के कारण द्रमुक जैसी पार्टी खड़ी हुई और वहां भाषाई पहचान जनआंदोलन के रूप में उभरा। तमिल पहचान धर्म या किसी और चीज के इर्द-गिर्द नहीं बल्कि भाषा की पहचान की परिधि में घूमती है।
राष्ट्रीय भाषा की अवधारणा से आखिर दिक्कत क्या है?
कार्ति चिदंबरम: यह अवधारणा ही समस्या की शुरुआत है। आप सुविधा के लिए किसी भाषा को अपना सकते हैं, लेकिन इसे अनिवार्य नहीं कर सकते हैं। मेरे बहुत से सहयोगी नियमित तौर पर दिल्ली में रहते हैं तो सुविधानुसार धाराप्रवाह हिंदी बोलते हैं। लेकिन, तमिलनाडु के ग्रामीण इलाके में रहने वाले लोग जिनका इधर से कोई व्यावसायिक नाता नहीं है या जो मध्य पूर्व जैसी जगहों पर काम कर रहे हैं तो उनके लिए हिंदी क्यों अनिवार्य होनी चाहिए? कोई अपनी सुविधा और पसंद से किसी भाषा को सीखता है तो उसे कोई दिक्कत नहीं होती है। जैसे ही आप भाषा को अनिवार्य करने के नाम पर जबरन थोपिएगा तो फिर प्रतिरोध होगा।
केरल में खाता खोलने के साथ दक्षिण भारत में भाजपा अपनी पैठ बना रही है। इसे आप कैसे देखते हैं?
कार्ति चिदंबरम: केरल में भाजपा को एक सीट सुरेश गोपी ने दिलाई है। गौरतलब है कि सुरेश गोपी लोकप्रिय फिल्म कलाकार हैं। उन्होंने अपनी छवि को एक ब्रांड की तरह स्थापित किया है। लोग उन्हें व्यक्तिगत तौर पर पसंद करते हैं। इसलिए गोपी सुरेश की जीत को भाजपा की बढ़त के रूप में नहीं देखा जा सकता। तमिलनाडु में भी यही स्थिति है। वहां अभी भी भाजपा का वोट फीसद इकाई संख्या में है। भाजपा वहां अपने दम पर कोई भी सीट नहीं जीत सकती है। यही हाल आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी है। कर्नाटक में उसने जगह बनाई है। यह बात सही है कि दक्षिण भारत में भाजपा अपनी स्थिति में सुधार कर रही है, वोट बढ़ा रही है।
दक्षिण भारत में भाजपा की स्थिति में सुधार होना कांग्रेस के लिए खतरे का संकेत तो नहीं?
कार्ति चिदंबरम: बिल्कुल नहीं। आप यह समझिए कि तमिलनाडु में 1967 से कांग्रेस सत्ता में नहीं है। वास्तव में दो द्रविड़ दल वहां मुख्य शक्ति हैं। हम अच्छे समय में वहां तीसरी शक्ति तो बुरे समय में चौथी या पांचवीं शक्ति रहे हैं। हमने वहां मूल्यपरक गठबंधन राजनीति की है। तमिलनाडु में अपने पुराने गौरव को प्राप्त करने के लिए अभी हमें बहुत संघर्ष करना होगा।
भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान राहुल गांधी की ‘मोहब्बत की दुकान’ ने उन्हें अखिल भारतीय स्तर पर लोकप्रिय बनाया। लेकिन ऐसे समय में दक्षिण भारत से ‘सनातन’ के लिए नफरत भरे बोल आए। ‘सनातन’ पर क्या दृष्टिकोण है?
कार्ति चिदंबरम: यह बात पूरी तरह से गलत है। मुझे उम्मीद है कि आज मैं इस गलतफहमी को पूरी तरह से दूर कर दूंगा। पूरे भारत में तमिल सबसे ज्यादा पारंपरिक, आनुष्ठानिक धार्मिक समुदाय है। मैं खुद बिना अपने पूजा कक्ष में गए घर से बाहर नहीं निकलता, रुद्राक्ष की माला पहनता हूं। मैं खुद इतनी बार मंदिर जाता हूं कि आपके कई पाठक भी उतनी बार मंदिर नहीं गए होंगे। सबसे पुराने वैदिक मंदिर तमिलनाडु में हैं। यहां सबसे ज्यादा मंदिर हैं। पूरे भारत की तुलना में सबसे ज्यादा नारियल तमिल फोड़ते हैं। हम सबसे ज्यादा धार्मिक लोग हैं। कृपया यह समझिए कि सनातन एक संस्कृत शब्द है। यह वैसा तमिल शब्द नहीं है जिसे हम अपनी आम बोलचाल की भाषा में इस्तेमाल करते हैं। मुझे धार्मिक संस्कार अपनी दादी से मिले। हमारे यहां कोई यह नहीं कहता कि चलो आओ और सनातन धर्म का पालन करो। मैं फिर से जोर देकर कहता हूं कि तमिलनाडु में सनातन एक खास अर्थ में ही इस्तेमाल होता है। यहां यह सिर्फ जाति पदाक्रम को बताने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह बात उदयनिधि स्टालिन ने कही थी और मैं उनके लिए स्पष्टीकरण देनेवाला कोई प्रवक्ता नहीं हूं। लेकिन मुझे लगता है कि स्टालिन ने यह बात जातिगत भेदभाव को खत्म करने के लिए कही थी न कि धार्मिक प्रथाओं को। अभी ऐसा दिखता है कि गणेश उत्सव सिर्फ महाराष्ट्र का त्योहार है। तमिलनाडु में हजारों साल से गणेश उत्सव होते रहे हैं। मेरे निर्वाचन इलाके में प्राकृतिक चट्टान की संरचना से बना प्राचीन गणेश मंदिर है जो सबसे खूबसूरत गणेश मंदिरों में से एक है। तमिलनाडु के लोगों ने धर्म को उसके शुद्धतम रूप में संरक्षित रखा है।
तमिलनाडु में जातिगत विभाजन भी बहुत ज्यादा है। खास कर ब्राह्मण और गैर ब्राह्मणों के बीच।
कार्ति चिदंबरम: हमारे समाज में ब्राह्मण दो फीसद से भी कम हैं। शिक्षा की परंपरा में उनकी पहुंच के कारण वे विशेषाधिकार प्राप्त समूह बन गए। साठ के दशक में इनके एकाधिकार के विरोध में द्रविड़ आंदोलन ने जन्म लिया। लेकिन पिछले पचास वर्षों में किसी एक भी ब्राह्मण पर उसके ब्राह्मण होने के कारण शारीरिक हिंसा नहीं हुई। राजनीति में ज्यादा न हों लेकिन कला, संस्कृति, नौकरशाही और अन्य जगहों पर उनका अच्छा प्रदर्शन है। उनके साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता है। तमिलनाडु में आज भी ब्राह्मण एक प्रभावशाली समुदाय है।
जातिगत जनगणना की जरूरत क्यों? क्या यह समाज में किसी तरह की सकारात्मकता लाएगा?
कार्ति चिदंबरम: सवाल यह है कि हम जातिगत जनगणना के आंकड़ों का क्या करेंगे? उदाहरण के तौर पर मैं देश में बाएं हाथ से काम करने वालों का डाटा इकट्ठा कर रहा हूं। क्योंकि उन्हें बहुत सी तकनीकी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। ज्यादातर दरवाजे, चाबी दाएं हाथ से ही खुलते हैं। ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो सिर्फ दाएं हाथ को ही प्रमुख मान कर बनाई जाती हैं। इससे बाएं हाथ को प्रमुख रखने वालों के साथ भेदभाव हो रहा है। मैं बाएं हाथ को प्रमुख मानने वालों की दिक्कतों को खत्म करने के लिए आंकड़ा इकट्ठा कर रहा हूं तो इसका मतलब यह नहीं है कि अब दाएं हाथ को प्रमुख मानने वालों से किसी तरह का भेदभाव होगा। बाएं हाथ के आंकड़ों से दाएं हाथ को किसी तरह का खतरा नहीं है। अभी तक उच्च वर्ग से आने वाले लोग ही यह कहते हैं कि मैं जाति में विश्वास नहीं रखता। हमारे देश में जाति एक वास्तविकता है। इसलिए हमें अपनी नीतियों को बनाने के लिए ऐसे आंकड़ों की जरूरत है कि विभिन्न लोगों की सामाजिक स्थिति क्या है। कृपया आंकड़े संग्रह का विरोध मत कीजिए, यह बहस कीजिए कि हम आंकड़ों का इस्तेमाल कैसे करते हैं।
इसका मकसद तो बताया जा रहा है, जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।
कार्ति चिदंबरम: इसका मकसद यही है कि हमें नीति बनानी है। हर तरह के संसाधनों की पहुंच सबके पास हो। यह विस्तृत आर्थिक और सामाजिक अध्ययन भी होगा।
एक समय में जवाहरलाल नेहरू जातिगत आरक्षण के विरोधी थे। आज पार्टी नेतृत्व का जोर इस पर है। लेकिन, जब पार्टी कहती है कि एक समय बिंदु पर जाकर आरक्षण खत्म करने के बारे में सोचेंगे तो इसका क्या मतलब है?
कार्ति चिदंबरम: अमेरिका से लेकर कई जगहों पर आरक्षण से कई सकारात्मक नीतियां बनीं। इसका और भी आधार हो सकता है। तमिलनाडु के मेडिकल कालेजों में उन विद्यार्थियों के लिए 7.5 फीसद का आरक्षण है जो सरकारी स्कूलों से पढ़ कर आए हैं। अब सरकारी स्कूलों में वंचितों, शोषितों के बच्चे ही पढ़ते हैं। तो यह ऐसा मानदंड बन गया जिसका फायदा वंचित तबके के लोगों को ही मिलेगा। हमारे पास कोई आर्थिक आंकड़ा नहीं है तो हमें दूसरे कारकों के साथ आना पड़ेगा। मसलन कोई किस तरह के स्कूल में गया है, उनके माता-पिता के पास किस तरह की शैक्षणिक योग्यता है। अभी हमारे पास आरक्षण ही एकमात्र कारक है। इस संदर्भ में हमें और कारकों को जोड़ना होगा।
भाजपा ने हिंदुत्व के साथ वंशवाद का मुद्दा उठाया और कांग्रेस की छवि को इससे नुकसान भी पहुंचा।
कार्ति चिदंबरम: एक राजनीतिक परिवार से आने के कारण मैं भी इसके लाभार्थियों में हूं और राजनीति में वंशवाद से इनकार नहीं करूंगा। लेकिन कांग्रेस को लेकर भाजपा का दुष्प्रचार है। भारत में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक नजर उठा कर देख लीजिए कौन सी पार्टी में वंशवाद नहीं दिखेगा। और यह सिर्फ भारत की राजनीति तक सीमित नहीं है। पूरे दक्षिण एशिया की यही स्थिति है। आश्चर्यजनक रूप से जापान में 70 फीसद जनप्रतिनिधि राजनीतिक परिवारों से आते हैं। भाजपा या प्रधानमंत्री को लगता है कि वंशवाद भारतीय राजनीति के लिए इतनी बड़ी समस्या है तो उन्हें तुरंत इस पर कार्रवाई करनी चाहिए। अपनी पार्टी से शुरू करना चाहिए।
भाजपा ने कांग्रेस को भ्रष्टाचार का भी पर्याय बना दिया। आप पर भी आरोप है।
कार्ति चिदंबरम: राजनीति एक महंगी प्रक्रिया है। भाजपा के पास अधिक संसाधन थे तो वह अपने संचार साधनों से कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने में कामयाब हुई। दुखद है कि भाजपा के दुष्प्रचार को रोकने में हम नाकामयाब रहे। चुनावी चंदे से लेकर अभी जो साठगांठ का पूंजीवाद चल रहा है, भाजपा का भ्रष्टाचार सबके सामने है। मेरे खिलाफ आरोपपत्र को पढ़ेंगे तो आपको हंसी आएगी। एक आरोपपत्र 9.86 लाख का है टीडीएस काटने और सेवा कर जोड़ने के बाद, दूसरा 25 लाख रुपए का है जिसमें दुर्भाग्य से आठ आइएएस अधिकारी भी आरोपी बनाए गए हैं। ये मामले समय के साथ स्वाभाविक रूप से खत्म हो जाएंगे।
क्या वाकई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुरीद हैं आप?
कार्ति चिदंबरम: प्रधानमंत्री तो प्रधानमंत्री होते हैं और उनकी एक शख्सियत होती है। मैं उनके सामाजिक, राजनीतिक दृष्टिकोण से किसी भी तरह से सहमत नहीं हूं। वे एक ऐसे व्यक्ति हैं जो चुनाव जीतने को लेकर डटे रहते हैं। ऐसा लगता है कि इसके अलावा उनका कोई लक्ष्य और रुचि नहीं है। उनका कोई सामाजिक जीवन नहीं दिखता। वे चौबीस गुणे सात जुटे रहने वाली चुनावी मशीन हैं। चुनाव केंद्रित रहना ही उनकी खासियत है। ऐसा होना आसान नहीं होता है।
क्या आपको लगता है कि भाजपा की अजेय वाली छवि टूट चुकी है?
कार्ति चिदंबरम: लोकसभा चुनाव के नतीजों ने साबित किया कि भाजपा एक घटती हुई शक्ति है। निश्चित तौर पर 2029 में बड़ा राजनीतिक बदलाव दिखेगा।
आप अपने पार्टी नेतृत्व को कोई सलाह देना चाहते हैं?
कार्ति चिदंबरम: कांग्रेस को अपने क्षेत्रीय नेताओं को और सशक्त बनाने पर जोर देना चाहिए ताकि वे अपनी क्षेत्रीय इकाइयों का समाधान कर सकें और वहां की संवेदनशीलता के हिसाब से राजनीतिक फैसले कर सकें।