Parliament: जब मैंने संसद का एक और सत्र विपक्षी दलों के सड़क-छाप बहस के अंदाज के कारण बर्बाद होते देखा, तो मेरे दिमाग में एक षडयन्त्र सिद्धांत कुलबुलाया कि क्या कांग्रेस पार्टी नरेंद्र मोदी के गुप्त एजेंट के रूप में काम कर रही है? या फिर इसके नेता वास्तविकता से इतने दूर हैं कि उन्हें यह नहीं पता कि जब वे कानून बनाने के बजाय नारे लगाते हैं, तो वे खुद को नुकसान पहुंचाते हैं, न कि प्रधानमंत्री को? प्रधानमंत्री चुपचाप बैठकर एक आत्ममुग्ध मुस्कान के साथ तब तक यह सब देखते रहते हैं,जब तक कि नारेबाजी इतनी अनियंत्रित न हो जाए कि दोनों सदनों को स्थगित करना पड़ जाए। बार-बार, सत्र दर सत्र, यही हो रहा है।
एक बहुत लंबे नाम वाले थिंक टैंक द्वारा मुझे भेजे गए ‘महत्वपूर्ण आंकड़ों’ के अनुसार, लोकसभा ने अपने निर्धारित समय का 29% और राज्यसभा ने 34% समय ही काम किया। विपक्षी दल के सांसद जब संसद में व्यवधान डाल रहे थे, तब नेता विपक्ष एक और ‘यात्रा’ के लिए बिहार में घूम रहे थे। नेता विपक्ष शायद यह भूल गये कि उस दौरान कुछ बहुत महत्वपूर्ण विधेयक सदन में बिना बहस के पारित हो रहे थे। आपको यह सुनकर आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए कि दिल्ली के कुछ गंभीर राजनीतिक विद्वान, अपने माथे से पसीना पोंछते हुए थकान भरे लहजे में कहते हैं कि नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी ताकत राहुल गांधी हैं।
प्रधानमंत्री ने अपने तीसरे कार्यकाल की एक विनम्र शुरुआत की क्योंकि मतदाताओं ने उन्हें पूर्ण बहुमत से वंचित कर दिया था। हम में से जो लोग (ग्लैमर जगत के आकर्षक फिल्मों सितारों के बजाय) राजनेताओं पर नजर रखने का नीरस काम करते हैं, उन्होंने देखा है कि जब मोदी को पता चला कि बीजेपी को 400 से अधिक सीटों के साथ वापस लाने का उनका दावा भारतीय मतदाताओं ने कूड़ेदान में फेंक दिया, तब ऐसा लगा जैसे उनकी देह सिकुड़ गयी हो। उसके बाद बीजेपी और संघ परिवार के शीर्ष स्तर पर गंभीर आत्ममंथन किया गया। विनम्रता को राजनीतिक रणनीति का हिस्सा बनाया गया। आरएसएस प्रमुख ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि जो लोग वास्तव में राष्ट्र की सेवा करते हैं, वे व्यक्तिगत श्रेय नहीं लेते और हास्यास्पद दावे नहीं करते। मैंने उस बयान की भाषा बदल दी है ताकि हिन्दुत्ववादी सनकी एक बार मेरे निजी चरित्र और देशभक्ति पर हमला न करने लगें।
संसदीय लोकतंत्र में,संसद से अधिक महत्वपूर्ण कोई संस्था नहीं है क्योंकि यह जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए,जब हमारे चुने हुए प्रतिनिधि बहस के बजाय विरोध करिै और तख्तियाँ लहराने में समय बिताते हैं, तब वे उन लोगों को निराश कर रहे होते हैं जिन्होंने उन्हें वोट दिया है। जब भारत बाहरी रूप से घुटनों पर और आंतरिक रूप से बिखरता हुआ प्रतीत होता है, ऐसे समय में महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है । खराब प्रशासन और भ्रष्टाचार, विशेष रूप से नगरपालिका और राज्य स्तर पर, हिमालय में समूचे कस्बों को बहा ले गई हैं और मुंबई पिछले पूरे सप्ताह पानी में डूबता रहा।
दिल्ली में,जहां एक बरसात वाले दिन में बैठकर यह लेख लिख रही हूँ, मैंने ऐसी बेहद गंदी सड़कों पर गाड़ी चलाई कि मुझे इस बात की खुशी थी कि मुझे अपनी कार से बाहर नहीं निकलना पड़ा। एक पूरी सड़क कचरे से भरी हुई थी जिसे देखकर लग रहा था कि दोनों तरफ से कूड़े के ढेर बहकर वहाँ आ गये हैं। वह घृणित दृश्य शहरी कूड़े का उबकाई ला देने वाला मंजर तैयार कर रहा था। अगर आप गाड़ी चला रहे हों तब भी स्थिति ज्यादा खुशनुमा नहीं थी क्योंकि बारिश ने सड़कों को खतरनाक गहरे गड्ढों की टूटी-फूटी पट्टियों में बदल दिया था। हमारे सम्मानित सांसदों को ये साधारण नगरपालिका जनित समस्याएं लग सकती हैं, लेकिन आखिरी बार इस पर कब बहस हुई थी कि हम अपने नगरपालिका प्रशासन को कैसे बेहतर बना सकते हैं?
जब इस विषय पर बात हो रही है, तो क्या मैं यह जोड़ सकती हूं कि मुझे याद नहीं कि आखिरी बार संसद के किसी भी सदन में कब प्रशासनिक स्थित पर चर्चा कब हुई थी। विपक्षी नेता इन मुद्दों पर बहस न होने के लिए यह दलील देते हैं कि उन्हें ‘बोलने की अनुमति नहीं दी जाती’, लेकिन संसद के बाहर चीखने-चिल्लाने और नारेबाजी करने के बजाय संसद के अंदर दबाव डालकर सरकार को बहस के लिए मजबूर करने के और भी तरीके हैं। संसद के अंदर चर्चा के लिए नियम हैं, लेकिन नेता विपक्ष शायद यह मानते हैं कि वे यह तय कर सकते हैं कि ये नियम क्या होने चाहिए।
चिंताजनक बात यह है कि विपक्ष द्वारा अनुपस्थित रहने के निर्णय के कारण ये सारे विधेयक बिना किसी बहस के पारित होते जा रहे हैं। अपराधियों को उच्चतम राजनीतिक पदों से दूर रखने वाले विधेयक को थोड़ा संदेहास्पद कहना इसकी गम्भीरता को कम करना होगा। मोदी सरकार ने अब तक के कार्यकाल में दिखा दिया है कि कानूनी एजेंसियों को राजनीतिक हथियार के रूप में वह कैसे उपयोग कर सकती है। ऐसे में यह सोचना डरावना है कि किसी मुख्यमंत्री को अदालत में अपराध सिद्ध हुए बिना उसके पद से बर्खास्त किया जा सकता है।
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इंडियन एक्सप्रेस अखबार को बिहार में चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) पर अपनी उत्कृष्ट रिपोर्टिंग के लिए पूरा श्रेय मिलना चाहिए। यह स्पष्ट रूप से एक जल्दबाजी भरा और अटपटा प्रयास है। विपक्षी नेताओं द्वारा इसपर उचित सवाल खड़े किये जा रहे हैं लेकिन सार्वजनिक सभाओं में घूम-घूमकर ‘वोट चोर’ चिल्लाने से बेहतर होता कि विपक्ष चुनाव आयोग के साथ इसपर सार्वजनिक चर्चा करता। संसद के क्रियान्वयन पर वापस लौटते हुए मैं अंतिम रूप से केवल इतना कहना चाहूँगी कि संसद के और बर्बाद सत्र अब मुझसे बर्दाश्त नहीं होते।
हमारे सांसदों को सदन के अंदर रहने के लिए चुना गया है और उन्हें वहीं होना चाहिए। लोकसभा के अध्यक्ष उन्हें अच्छे व्यवहार पर व्याख्यान देना पसंद करते हैं और अक्सर उन्हें याद दिलाते हैं कि पूरा देश देख रहा है। मगर क्या इससे बेहतर यह नहीं होगा कि वे व्यवधान पैदा करने वालों को सांसदों को मिलने वाले दैनिक भत्ते और अन्य लाभ से वंचित कर दें?करदाता उन चुने हुए प्रतिनिधियों को भुगतान क्यों करें जो अपना काम नहीं कर रहे हैं? और शुरुआत में किंचित विनोद वश मैंने जो बिंदु उठाया था उसपर थोड़ी गंभीरता से लौटती हूँ। यह समय है कि हमारे विपक्षी नेता इसपर विचार करें कि उन्होंने प्रधानमंत्री की कितनी मदद की है।
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(यह लेख चैटजीपीटी द्वारा अनूदित एवं जनसत्ता डेस्क द्वारा संपादित है।)