‘बेरहम बिसात’ ने मुझे अंदर से झकझोर दिया। लखनऊ के बाबा साहब भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय में मैंने रोहित वेमुला जैसों को देखा है। रोहित सी वेमुला और इन वेमुलाओं में अंतर सिर्फ इतना है कि इनके पास जिजीविषा है, आंबेडकर के जीवट संघर्ष का आदर्श है, ज्योतिबा फुले और बिरसा मुंडा के विचार हैं, बुद्ध के संस्कार हैं। इन्हें विश्वास है आंबेडकर के बनाए संविधान पर। इन्हें विश्वास है कि इनका जन्म लेना अभिशाप नहीं है। लखनऊ के आंबेडकर विश्वविद्यालय के शोधार्थी हों या फिर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के, सभी की स्थिति एक जैसी ही मिलेगी।
इनमें उन शोधार्थियों की स्थिति और भी खराब है जो राजीव गांधी राष्टीय फेलोशिप प्राप्त करते हैं। उनका ध्यान शोध पर कम फेलोशिप की कागजों से लदी फाइलों पर ज्यादा रहता है। वे अपने सुपरवाइजर से कम मिलते हैं विश्वविद्यालय के प्रशासनिक भवन और बैंक के चक्कर ज्यादा काटते हैं। ऊपर से विश्वविद्यालय के कुलपति का बयान आता है कि विद्यार्थी मोटरसाइकिल खरीद कर फेलोशिप का दुरुपयोग करते हैं। समान्यत: हर शोधार्थी गृहस्थ आश्रम के पड़ाव पर होता है। ऐसे में कभी किसी कुलपति ने अपने शोधार्थी के बारे में यह जानने की कोशिश नहीं की कि आखिर 8000 रुपए में शोध का काम कैसे चल रहा है।
आंबेडकर विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि ले चुकीं डॉक्टर वेला टर्की अपने दो मासूम बच्चों के साथ अभी भी पिछले चार सालों से फेलोशिप के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन का चक्कर काटती हैं। इन सब के बावजूद इन शोधार्थियों को लड़ना आता है। बाबा साहब भी तो लड़े थे। रोहित वेमुला भी लड़े और हार नहीं मानी। लेकिन उनसे चूक हो गई जीते जी यह संदेश देने में कि धूल के कणों से ही शानदार वस्तुएं बनती हैं, सभी क्षेत्रों में।
सवाल यह नहीं कि रोहित ने आत्महत्या क्यों और किन हालात में की। सवाल तो यह है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली जिसके मूल्यों और संस्कार की हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेशों में चर्चा करते रहे हैं, उसका स्तर ऐसा क्यों हो गया है कि एक शोधार्थी मरने पर मजबूर हो जाए। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में पिछले एक दशक में दलित छात्र के खुदकुशी करने की यह नौवीं घटना है। संस्थान-विशेष से अलग हट कर देखें तो पिछले चार साल में अठारह दलित विद्यार्थी आत्महत्या कर चुके हैं। रोहित की मौत ने एक बार फिर हमारे शैक्षिक परिसरों का एक बहुत दुखद पहलू उजागर किया है।
-हरिनाथ कुमार, बाबा साहब भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय में शोधार्थी
मौत में न बदले वैचारिक टकराव
विडंबना ही है कि 21वीं सदी के भारत में भी अगड़ा-पिछड़ा की ग्रंथि हावी है। जिस विश्वविद्यालय को बौद्धिक विमर्श का केंद्र माना जाता है वहां भी दलित छात्रों के साथ भेदभाव आम सी चीज है। नतीजतन विश्वविद्यालय परिसर में जातिगत छात्र संगठन और उनके वैचारिक टकराव आए दिन देखे जा सकते हैं। लेकिन वैचारिक टकराव का हिंसक होना या फिर आत्महत्या के रूप में परिणत होना बेहद चिंताजनक है। इससे समाज में अलगाव ही बढ़ेगा। विद्यार्थी परिषद् और संघ परिवार को भी क्या यह नहीं सोचना चाहिए कि आखिर क्यों अक्सर दलित छात्रों से उनका इतना तीखा टकराव बना हुआ रहता है? एक तरफ तो मोदी सरकार आंबेडकर के सम्मान में भव्य आयोजन करती है, तो वहीं जमीनी स्तर पर उसके समर्थक आंबेडकर को आदर्श मानने वालों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करते हैं। इस विरोधाभास पर उन्हें सोचने की जरूरत है।
-डॉक्टर हर्ष वर्द्धन, गेस्ट फैकल्टी, समाजशास्त्र विभाग, पटना कॉलेज
बे-सबक सत्ता
‘सत्ता के सबक’ से सत्तासीन दल और उसके मुखिया नरेंद्र मोदी कोई सबक लेते नहीं दिखते। ये अब भी अनर्गल बयानबाजियों में जुटे हैं। कभी भ्रष्टाचार पर कोहराम मचाने वाला दल अब अपने नेताओं पर पड़ रहे भ्रष्टाचार के छींटों को बिना जांच के ही बेदाग करार दे रहा है। महंगाई कम करने का वादा करने वाली सरकार के राज में जरूरत के सामान से लेकर रेल सफर तक महंगे होते जा रहे हैं। मुकेश भारद्वाज ने उचित ही लिखा है, ‘लेकिन देश में चल रही उठापटक से बेखबर मोदी अंतरराष्टÑीय स्तर पर अपनी छवि निखारने में लगे रहे। बल्कि कहा जा सकता है कि विदेश के मोर्चे पर यह ऐसा इलाका रहा है, जिसमें उन्होंने शानदार कामयाबी हासिल की। लेकिन दुनिया के दूसरे देशों में मिली ऐसी कामयाबी का क्या हासिल, जब अपने घर में हालत लगातार खराब होती जा रही हो’! मोदी देश की समस्याओं से पैदा हुए नकारात्मक माहौल को विदेशी धरती पर अपनी सफलता से संतुलित करने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन, इतिहास में विंस्टन चर्चिल की मिसाल भी है, जिनकी झंडाबरदारी में द्वितीय विश्व युद्ध में गठबंधन सेना ने बड़ी कामयाबी हासिल की, लेकिन कुछ ही समय बाद हुए ब्रिटेन के आम चुनाव में उनकी कंजरवेटिव पार्टी को मात खानी पड़ी। और, मोदी जी को इतिहास से सबक जरूर लेना चाहिए।
– पुरुषोत्तम नवीन, मयूर विहार, दिल्ली<br />समझ से बाहर दोस्ती
मुकेश भारद्वाज का लेख चेतना को जगाता है। प्रधानमंत्री की लाहौर यात्रा जनता की समझ से बाहर रही। अगर यह दौरा कूटनीतिक था तो इसका आधार अवश्य होना चाहिए। भारतीय जनता युद्ध नहीं चाहती। यह भी सच है कि अंतिम रास्ता बातचीत और सद्भाव है। लेकिन भारत-पाक दोस्ती इस बात पर निर्भर करती है कि पठानकोट जैसी घटना दुबारा न हो और भावी वार्ता भारत-पाक संबंधों के लिए हो न कि मोदी-शरीफ की निजी दोस्ती के लिए।
-उत्पल मणि त्रिपाठी, प्रतियोगी छात्र इलाहाबाद
पाक दौरे की आलोचना सही
‘ये दोस्ती’ में मोदी-शरीफ मुलाकात और उसके तत्काल बाद घटी पठानकोट त्रासदी का विश्लेषण बहुत सही हुआ है। मुकेश भारद्वाज का प्रश्न सही है कि आज अगर कांग्रेस, शिवसेना और दूसरे दल सरकार की नीति की निंदा कर रहे हैं तो इसमें गलत क्या है? फिर जो हुआ उससे हर नागरिक के मन में यह विचार उठना स्वाभाविक है कि अगर मोदीजी संयत रह कर फोन पर ही बधाई-संदेश दे देते तो पठानकोट की त्रासदी न घटती! पाक यात्रा तो पर्याप्त कूटनीतिक तैयारियों के बाद करनी थी।
-शोभना विज