अनीता सहरावत
किशोरावस्था में स्कूल के बाद कॉलेज जाना गांव की लड़कियों के लिए नई दुनिया में कदम रखने से कम का अनुभव नहीं होता। हिंदी की कक्षा में प्राध्यापक ने मेरा परिचय पूछा और मेरी हार तय हो गई। दरअसल, भाषा पर मेरी बोली का बोझ ज्यादा था। लाख कोशिशों के बावजूद हरियाणवी बोली का लहजा भाषा से बाहर नहीं निकला और प्रोफेसर का मुंह चढ़ गया। ताना का प्रसाद भी साथ ही मिल गया। खैर, स्नातक में तीन साल मशक्कत करने के बाद एक बात तो तय हो गई थी कि हरियाणवी बोली तो शायद नहीं छूटने वाली। यह कोई पहला और आखिरी अनुभव भी नहीं रहा कि बोली के असर से मेरी काबिलियत का भी अंदाजा लगा लिया गया हो। लेकिन धीरे-धीरे मैंने भी समझ लिया कि भाषा में से बोली को निकालने की कोशिशें अब और कभी नहीं। इस पहचान मे कोई ऐसी खराबी नहीं, जिसे मैं निकाल फेंकू।
सवाल तो पनपे ही जवाब पाने के लिए हैं। बोलने की शुरुआत भी तो बोली से ही हुई होगी। बोलना शब्द भी बोली का ही रिश्तेदार है। अक्षरों की बनावट और व्याकरण की सजावट से भाषा का रूप तो बाद में ही लिया होगा। भाषा का बेशक अपना कद है, क्योंकि वह साहित्य, समाज, इतिहास की वाहक बन कर संस्कृति को आगे बहाती है। लेकिन बोली को बौना करके भाषा को महान नहीं बनाया जा सकता। हम यही कर रहे हैं। शादी-ब्याह, तीज-त्योहार, गीत-संगीत, आम-बोलचाल हर जगह बोली का ही बोलबाला रहता है। अपनी बोली में बात करने का जो स्वाद है, वह सधी भाषा मे कभी नहीं मिलेगा। अपनेपन का अहसास अपनी बोली में ही है।
हरियाणवी रोबदार बोली है, रसीली नहीं। इसे लट्ठमार बोली का तमगा शायद इसीलिए मिला है। अपनी बोली की ठसक ऐसी होती है, परदेस में जो सुख अपनी समभाषी को देख कर मिलता है, अनजान लोगों की भीड़ मे वही सुख अपनी बोली कानों को देती है। सामाजिक या पारिवारिक जीवन में से एक बार बोली को बाहर निकाल कर क्या रिश्तों में गरमाहट और मिठास रह जाएगी? क्या गीतों मे वह चुलबुलापन भाषा रोप सकेगी? संबंधों की मिठास बोली से ही है। जो सुख मां-बापू बोलने में है, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, भाई-बहन कहने मे जो रस है, दादा-दादी को ‘जय राम जी की’ और ‘राम-राम’ से जो तसल्ली मिलती है, वह भाषा के क्लिष्ट होने में कहां! बोली का बेढंग अंदाज ही इसकी खासियत है।
ये सारी बातें जितनी सही हैं उतना ही यह भी सच है कि हम खुद बोलियों की कद्र नहीं करते, फिर वह चाहे किसी भी भाषा या जगह से आती हो। बस, मेट्रो के सफर में अगर कोई अपनी बोली में बात करता सुनाई पड़ जाए तो पास खड़े लोग ऐसे दूर हटते हैं कि कहीं लोग मुझे भी इसका साथी न समझ लें। इतना ही नहीं, पूरे सफर के दौरान या तो कनखियों से उस शख्स को घूरते रहते हैं या फिर व्यंग्य भरी मुस्कान से आंखों के जरिए हंसते रहते हैं। शॉपिंग मॉल या रेस्तरां में अगर कहीं भूल से कोई देसी बोली में बोल पड़े या सुनाई दे जाए तो लोग ऐसे देखते हैं कि जैसे वह दूसरे ग्रह का जीव हो। ऐसे में भला हो उन बिंदास लोगों का, जो ऐसी पढ़ी-लिखी जमात की फिक्र किए बिना अपनी बातचीत का पूरा रस लेते हैं। पर ऐसे लोग टकराते कितने हैं?
हर घटना का असर हर किसी पर अलग होता है। ऐसा सामाजिक व्यवहार बेशक एक झिझक पैदा करता है। भले ही हम समय के साथ कुछ चीजों के साथ जीना सीख लें, लेकिन इससे उस वक्त के अनुभव पर तो धूल नहीं जम जाती कि सिर्फ बोली की वजह से शर्मिंदगी का भी कभी सामना करना पड़ा। लेकिन जब हम अपनी भाषा की ही कद्र नहीं करते, तो बोलियों का सम्मान दूर की कौड़ी ही रहेगी। हमारे यहां विज्ञापनों में भी अंग्रेजी बोलने वाले ‘स्मार्ट मैनेजर’ ही ढूंढ़े जाते हैं। यानी अगर आपको अंग्रेजी नहीं आती तब आप ‘स्मार्ट’ और पढ़े-लिखे नहीं। मां-बाप खुश होकर बड़े गर्व से बताते हैं कि उनके बच्चे को हिंदी अच्छे से नहीं आती, पर अंग्रेजी फर्राटेदार है। अपनी ही भाषा न बोल-लिख पाना जब हमें नहीं खलता तो फिर बोली कौन देस की वासी है, कौन पूछे।
समझदारी डिग्रियों की मोहताज नहीं और महज अक्षर का पढ़ा-लिखा होने का फायदा क्या! इंसान के बेहतरीन गीत बोली से ही निकले। बोली की महत्ता को किसी तर्क या सबूत की जरूरत बिल्कुल नहीं। बात इतनी है कि बोली का मजाक बनाने का अधिकार हमें तब तक तो बिल्कुल नहीं, जब तक हम खुद इसका कहीं न कहीं रसास्वादन करते हैं। ओलंपिक में नीरज चोपड़ा ने जबसे सोने का तमगा जीता है, तब से उनकी बातों की सादगी और देसी अंदाज की मीडिया, सोशल मीडिया कायल है। उनके पुराने वीडियो खूब प्रचारित हो रहे हैं, उनको देखने-पढ़ने वालों की संख्या अचानक बढ़ गई है। सफलता का परचम इतना ऊंचा होता है कि उसके छेद में भी हमें ‘स्टाइल’ नजर आता है। क्या अब हम खुद से कह पाएंगे कि देसी बोली बोलण वाला बावला ना होता? पता नहीं!