पिछले कुछ समय से जिस तरह उपासना स्थलों पर दावेदारी की कोशिशें चल रही हैं, उसमें सर्वोच्च न्यायालय का ताजा निर्देश निश्चय ही राहत देने वाला है। न्यायालय की तीन जजों की पीठ ने देश की सभी अदालतों से कहा है कि वे पूजा स्थलों से संबंधित सर्वेक्षण या अन्य किसी प्रकार की राहत के लिए अनुरोध वाली याचिका पर विचार न करें या कोई अंतरिम या अंतिम फैसला न सुनाएं। वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद परिसर को लेकर दावा किया गया था कि वहां पहले हिंदू मंदिर था। विवाद बढ़ गया तो न्यायालय के निर्देश पर उस स्थान का सर्वेक्षण कराया गया। फिर उसके तथ्यों के आधार पर मस्जिद परिसर के एक हिस्से में हिंदू श्रद्धालुओं को पूजा करने का आदेश दे दिया गया।

वह फैसला एक नजीर बन गया और फिर देश के विभिन्न हिस्सों में मस्जिदों के नीचे किसी हिंदू मंदिर के अवशेष दबे होने के दावे किए जाने लगे। उत्तर प्रदेश के संभल में एक मस्जिद को लेकर इसी तरह के दावे की याचिका पर निचली अदालत ने सर्वेक्षण का आदेश दे दिया। उस पर हिंसा भड़क उठी और पांच लोग मारे गए। उसके बाद अजमेर दरगाह के हिंदू मंदिर की जगह बने होने का दावा किया गया, तो वहां की अदालत ने उसके सर्वेक्षण का आदेश दे दिया। इन घटनाओं से विवाद बढ़ता गया।

हालांकि पूजा स्थलों पर ऐसे दावे कोई पहली बार नहीं किए जा रहे हैं। पहले भी अयोध्या के विवादित ढांचे के साथ-साथ अलग-अलग शहरों में मस्जिदों और दरगाहों को अवैध ठहराने की कोशिशें की गई थीं। उसी के मद्देनजर उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 बनाया गया। उसमें स्पष्ट कहा गया है कि 15 अगस्त, 1947 को विद्यमान उपासना स्थलों का धार्मिक स्वरूप वैसा ही बना रहेगा, जैसा वह उस दिन था। इसमें अयोध्या के विवादित ढांचे को इसलिए अलग रखा गया था कि उसे लेकर मामले पहले से चल रहे थे। मगर ज्ञानवापी मस्जिद सर्वेक्षण के बाद फिर से वैसे दावे शुरू हो गए और उपासना स्थल अधिनियम को नजरअंदाज किया जाने लगा।

अब तो सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कराई गई है कि उपासना स्थल अधिनियम की धारा दो, तीन और चार को रद्द करने का आदेश दिया जाए। इस पर सर्वोच्च न्यायालय विचार करेगा। इसलिए भी निचली अदालतें स्वत: पूजा स्थलों के स्वरूप परिवर्तन आदि के लिए दायर याचिकाओं पर सुनवाई टालने को बाध्य हैं। जब भी समान प्रकृति के किसी मामले पर सर्वोच्च न्यायालय सुनवाई कर रहा होता है, तो उस पर निचली अदालतों को अपनी सुनवाई रोक देनी होती है। उपासना स्थल अधिनियम से जुड़े मामलों पर भी यही नियम लागू होता है।

सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में क्या फैसला करता है, देखने की बात है, मगर हमारे संविधान की मूल भावना क्या है, उस पर भी ध्यान देने की जरूरत है। हमारा संविधान पंथ निरपेक्षता और दूसरे धर्मों का आदर करने की वकालत करता है। वैसे भी हमारा इतिहास आक्रांताओं की ज्यादतियों से भरा पड़ा है। अगर उनकी बनाई इमारतों, पूजा स्थलों को ढहा कर उन पर नया स्वरूप खड़ा भी कर दिया जाए, तो वह इतिहास नहीं बदलेगा। इस तरह की बदले की कार्रवाइयों से सामाजिक समरसता ही भंग होगी। अच्छी बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरह की दावेदारी वाली याचिकाओं की सुनवाई पर रोक लगा दी है। मगर इसे लेकर अंतिम रूप से कोई व्यवस्था बनाने की दरकार है।