असहिष्णुता के मुद्दे पर संसद में विपक्ष के तेवर को देखते हुए सरकार ने लचीला रुख अपनाया है। संसदीय कार्यवाही को सुचारु रूप से चलने देने के लिए उससे ऐसे ही व्यवहार की अपेक्षा की जा रही थी। पिछले दो सत्रों में सरकार के अड़ियल रवैए और विपक्ष के हंगामे के चलते कई महत्त्वपूर्ण विधेयकों पर चर्चा नहीं हो सकी। इस सत्र में सरकार खासकर वस्तु एवं सेवा कर विधेयक पारित कराने को लेकर गंभीर दिख रही है। इसके लिए संसद का सत्र शुरू होने से पहले ही सर्वदलीय बैठक बुला कर आम राय कायम करने की कोशिश भी की गई।

सदन में प्रधानमंत्री ने एकजुट होकर समस्याओं से पार पाने के प्रयास करने की जरूरत पर बल दिया, तो गृहमंत्री ने न सिर्फ लेखकों-बुद्धिजीवियों से पुरस्कार वापस लेने और बातचीत की अपील की, बल्कि यह भी दावा किया कि अगर कोई देश की सामाजिक समरसता को बिगाड़ने की कोशिश करता है तो उसे बख्शा नहीं जाएगा। उन्होंने विपक्ष को आश्वस्त किया कि अगर सरकार की तरफ से कोई गलती हुई है, तो उसे सुधारने का प्रयास किया जाएगा। उधर भाजपा ने भी अपने सांसदों से कहा कि वे उकसाने वाले या फिर ऐसे बयान न दें, जिनसे कोई गलतफहमी पैदा होती हो। सरकार और भाजपा का यह रुख महज महत्त्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने के मद्देनजर नहीं होना चाहिए। अगर वे सचमुच इन बातों को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें व्यवहार में भी इसका यकीन दिलाना होगा।

पिछले महीने जब बढ़ती असहिष्णुता को देश की विकास योजनाओं के लिए बाधक बताते हुए राष्ट्रपति, रिजर्व बैंक के गवर्नर और कुछ उद्योगपतियों ने बयान दिए तब भी सरकार सावधान दिखी थी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उन सभी सांसदों-मंत्रियों को बुला कर नसीहत दी थी, जिनके बयानों के चलते सरकार को किरकिरी झेलनी पड़ रही थी। मगर उसका कोई असर नहीं हो पाया। सामाजिक समरसता को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों और उकसाने वाले बयानों का लगातार जारी रहना सरकार और भाजपा की कमजोरी को ही दर्शाता है। क्या वजह है कि सरकार पर उपद्रवी तत्त्वों को मौन समर्थन देने का आरोप लगता आ रहा है, फिर भी वह उन पर अंकुश नहीं लगा पा रही। अर्थव्यवस्था को मजबूती देना प्रधानमंत्री की प्राथमिकता है। विकास योजनाओं के लिए वे लगातार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। पर सामाजिक विद्वेष के माहौल से इसमें अपेक्षित गति नहीं आ पा रही। एक तरफ सरकार के सामने विकास दर को आठ फीसद तक पहुंचाने की चुनौती है, तो दूसरी तरफ महंगाई पर अंकुश लगाने, रोजगार के नए अवसर पैदा करने, निर्यात की दर बेहतर बनाने आदि से जुड़ी मुश्किलें हैं।

मगर हैरानी की बात है कि भाजपा सांसदों और मोदी सरकार के कई मंत्रियों का ध्यान हिंदुत्व के एजेंडे पर अधिक है। उधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद और उनके आनुषंगिक संगठन विद्वेष फैलाने वाली गतिविधियां चलाते रहे हैं। सरकार को कहां तो इन्हें रोकने की कोशिश करनी चाहिए, वह इनसे दूरी तक नहीं बना पा रही। ऐसे में संसद के शीत सत्र में दिखे सरकार के लचीले रुख के टिकाऊ होने पर भरोसा बनना मुश्किल है। एक सत्र में मान-मनुहार से कुछ बात बन भी जाए तो इससे आगे की मुश्किलें आसान होने का दावा नहीं किया जा सकता। सरकार को यह भरोसा दिलाना होगा कि वह वास्तव में सामाजिक समरसता की पक्षधर है।