इस आम चुनाव के दौरान पक्ष और विपक्ष के गठबंधनों में जैसी गहमागहमी, जिस तरह के आरोप-प्रत्यारोप देखे गए, विपक्षी पार्टियों ने निर्वाचन आयोग पर पक्षपातपूर्ण रवैए के आरोप लगाए और मशीनों में मतों की गड़बड़ी की आशंका व्यक्त की गई, नतीजों ने उन सबको धुल-पोंछ दिया है। लोकसभा चुनाव के नतीजों से स्पष्ट है कि जनता ने अपने विवेक से प्रतिनिधियों का चुनाव किया है। उन्होंने जाति, धर्म, संप्रदाय, मुफ्त की योजनाओं आदि के बहकावे में न आकर एक ऐसी सरकार के पक्ष में मतदान किया, जो उनकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने, देश की असल समस्याओं को सुलझाने पर ध्यान केंद्रित करे।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सत्तापक्ष के विरोध में कोई स्पष्ट लहर नहीं थी, मगर यह संकेत लगातार मिल रहा था कि जनता बदलाव चाहती है। विपक्षी दलों के गठबंधन ने जरूर महंगाई और बेरोजगारी जैसे कुछ बुनियादी मुद्दे उठाए थे, मगर सत्तापक्ष ने उन्हें किनारे करने की हर संभव कोशिश की। वह लगातार भावनात्मक मसले उठाता रहा। पर लोगों ने चुप रह कर लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की। इसका सबसे बड़ा प्रमाण उत्तर प्रदेश के नतीजे हैं। वहां अयोध्या में राममंदिर निर्माण को सत्तापक्ष अपनी बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश करता रहा, मगर वहां के लोगों ने उसे नकार दिया। यहां तक कि अयोध्या के भाजपा प्रत्याशी को भी अपना समर्थन नहीं दिया।
चुनावों में हर राजनीतिक दल अपना गणित बिठाने की कोशिश करता है, जाति और धर्म का समीकरण इसमें बहुत मायने रखता है, पर इस बार वह समीकरण भी बहुत कारगर साबित नहीं हुआ। बेशक भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है, मगर जनादेश उसके खिलाफ ही कहा जा सकता है। वह अपने बल पर पूर्ण बहुमत की संख्या नहीं जुटा सकी। जबकि इस चुनाव में भाजपा ही सबसे साधन संपन्न पार्टी थी। उसने चुनाव पर जितना खर्च किया, उतना सारे दलों ने मिल कर भी शायद न किया हो।
प्रचार-प्रसार में दूसरे दल उसके सामने फीके पड़ गए थे। संचार माध्यमों पर हर जगह उसकी मौजूदगी नजर आती थी। फिर भी अपने दम पर तीन सौ सत्तर और गठबंधन के स्तर पर चार सौ से पार सीटें जीतने का जो लक्ष्य लेकर वह चली थी, उसके आसपास पहुंचना भी उसके लिए मुश्किल हो गया। इस चुनाव में एक बार फिर क्षेत्रीय दल मजबूत होकर उभरे हैं। इससे भी साबित होता है कि लोगों के लिए निजी समस्याएं और स्थानीय मसले ज्यादा अहम थे।
चुनाव के बाद हर राजनीतिक दल अपनी सफलता या विफलता की समीक्षा करता और उससे आगे के चुनावों के लिए सबक लेता है। वह सब होगा, पर महत्त्वपूर्ण यह है कि जनादेश को समझा जाए। यह केवल सीटों के बंटवारे में जाति-धर्म का समीकरण बिठाने और गठबंधन में पार्टियों के मतों के परस्पर जुड़ जाने का नतीजा भर नहीं है। इसमें सत्तापक्ष के प्रति लोगों की निराशा और उदासीनता भी ध्वनित होती है। मुफ्त के राशन और कुछ अन्य सुविधाएं लोगों में जीवन की बेहतरी का भरोसा नहीं जगा पाईं। इससे यह स्पष्ट हो गया कि सत्तापक्ष जिन सुविधाओं और आर्थिक तरक्की को अपनी उपलब्धियां बताता रहा, उन पर लोगों का विश्वास नहीं बन पाया। इसलिए अब जो भी सत्ता की बागडोर संभालेगा, उससे यही अपेक्षा रहेगी कि वह इस जनादेश के निहितार्थों को समझते हुए ही नीतियों और योजनाओं का निर्धारण करे।