तृणमूल कांग्रेस से पिछले महीने अलग हो चुके मुकुल राय ने आखिरकार अपनी नई राजनीतिक पारी को लेकर चल रही अटकलों पर पिछले हफ्ते विराम लगा दिया। बीते शुक्रवार को उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया। यह दिलचस्प है कि जिस पार्टी को वे सांप्रदायिक कहते थकते नहीं थे, वही अब उनका सहारा है और अब अचानक उनकी नजर में वह सेकुलर हो गई है। यह भी कम विचित्र नहीं कि जिन मुकुल राय को भाजपा ने खुशी-खुशी गले लगाया है, वे कल तक उसके लिए ‘दागी’ थे। शारदा चिटफंड घोटाले की जांच के सिलसिले में सीबीआइ ने मुकुल राय से भी पूछताछ की थी। फिर, नारद स्टिंग आॅपरेशन में तृणमूल के जिन सांसदों के नाम आरोपियों के तौर पर सामने आए उनमें मुकुल राय भी थे। पर अब मुकुल राय की निगाह में भाजपा धर्मनिरपेक्ष है और भाजपा की निगाह में मुकुल राय पाक-साफ हैं! पाला बदलते ही पलटी किस तरह मारी जाती है यह प्रकरण उसका एक रोचक उदाहरण है।
भाजपा में शामिल होते ही मुकुल राय ने यह भी कहा कि उन्हें इस बात का गर्व है कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में काम करेंगे। पर यह गौरव तो वे और पहले ही हासिल कर सकते थे; फिर इतनी देर क्यों की? मोदी के नेतृत्व का आकर्षण तब जाकर क्यों हुआ, जब उन्हें तृणमूल कांग्रेस से निलंबित कर दिया गया, या उन्होंने तृणमूल छोड़ दी? मुकुल राय चाहे तो याद कर सकते हैं कि इससे पहले, और खासकर 2014 के लोकसभा चुनावों और 2016 के बंगाल विधानसभा चुनावों के दौरान उन्होंने मोदी और भाजपा के बारे में क्या-क्या कहा होगा। पर उन बातों को अब न मुकुल राय याद करना चाहेंगे न भाजपा याद करना चाहेगी। दोनों को बस इससे मतलब है कि एक दूसरे से क्या हासिल होगा। मुकुल राय को जहां अपने राजनीतिक पुनर्वास का ठिकाना मिल गया है, वहीं भाजपा को ममता बनर्जी से लड़ने में उनकी उपयोगिता दिख रही है। तृणमूल कांग्रेस के संस्थापकों में रहे राय (पूर्व) पार्टी में नंबर दो पर माने जाते थे।
पर शारदा चिटफंड घोटाले के उजागर होने के बाद धीरे-धीरे ममता बनर्जी से उनके रिश्तों में खटास आती गई और इसकी परिणति अंतत: विलगाव में हुई।
यूपीए सरकार के दौरान रेल मंत्रालय की कमान संभाल चुके राय की छवि सांगठनिक क्षमता वाले राजनीतिक की रही है। भाजपा उनकी इस क्षमता का इस्तेमाल उन्हीं की पूर्व पार्टी यानी तृणमूल कांग्रेस से निपटने में करना चाहती है। उसे उम्मीद होगी कि घर का भेदिया होने के कारण मुकुल राय तृणमूल कांग्रेस से निपटने और तृणमूल कार्यकर्ताओं को तोड़ कर इधर लाने में काफी मददगार साबित हो सकते हैं। बंगाल में अपना जनाधार बढ़ाने की भाजपा की बेचैनी किसी से छिपी नहीं है। यों 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को राज्य से दो सीटें ही मिल पाई थीं, जिनमें से एक, गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के समर्थन से, हासिल हुई थी; फिर 2016 के विधानसभा में चुनाव में भी राजग को केवल छह सीटें मिल पार्इं। लेकिन वे दोनों चुनाव और बाद में हुए उपचुनाव बताते हैं कि राज्य में भाजपा का वोट-प्रतिशत बढ़ता गया है। तब मुकुल राय नहीं थे। लिहाजा, स्वाभाविक ही यह सवाल पूछा जा सकता है कि क्या विश्वसनीयता की कीमत पर विस्तार का यह गणित भाजपा के लिए फायदेमंद साबित होगा!