अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और आर्थिक सहयोग विकास संगठन के बाद विश्व बैंक ने जिस तरह भारत के वृद्धि अनुमान में 0.5 फीसद तक की कटौती की है, उससे बहुत निराश होने की जरूरत नहीं है। मगर सवाल यह है कि जब हम भारत को अगले कुछ वर्षों में विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने के दावे कर रहे हैं, तो आखिर क्या वजह है कि वृद्धि अनुमान बार-बार डगमगाते दिखते हैं।
यह सच है अमेरिका की नई व्यापार नीति के बाद छिड़े शुल्क संग्राम के बीच दुनियाभर में अनिश्चितता का माहौल है। चीन से उसका टकराव बढ़ने से स्थितियां बिगड़ी ही हैं। वहीं पिछले एक दशक में आए कई झटकों की वजह से पूरे दक्षिण एशिया के देशों के पास मौजूदा वैश्विक चुनौती से निपटने के लिए सीमित उपाय ही हैं।
इस बीच वैश्विक एजंसियों ने भारत का वृद्धि अनुमान घटा कर एक तरह से हमें सचेत किया है। हालांकि यह उम्मीद अब भी है कि देश तेजी से बढ़ रही दुनिया का प्रमुख अर्थव्यवस्था बना रहेगा और वैश्विक स्तर पर आर्थिक गतिविधियां धीमी पड़ने पर भी भारत की आर्थिक वृद्धि दर चालू वित्त वर्ष में 6.2-6.7 की दर से बढ़ सकती है। रिजर्व बैंक को भी उम्मीद है कि अर्थव्यवस्था इसी दर से बढ़ती रहेगी।
भारत के आर्थिक विकास में गिरावट की जो वजहें बताई जा रही हैं, उनमें नीतिगत अनिश्चितता तो है ही, वहीं सार्वजनिक पूंजी निवेश भी घटा है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में हम उम्मीद से कम विकास कर पाए हैं, तो इसे गंभीरता से लेना होगा। उद्योग, कृषि-व्यापार और कई क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करने के दौरान हमें यह भी देखना होगा कि विकास के क्रम में अगर आम आदमी पीछे छूट रहा है, तो इसका क्या कारण है।
चिंता की बात है कि उपभोग और निवेश को बढ़ावा देने के लिए करों में कटौती और कई बदलावों के बावजूद निजी निवेश की गति मंद पड़ रही है। समाज का अंतिम जन आगे नहीं बढ़ पा रहा है। हमें इस पर सोचना होगा, क्योंकि अर्थव्यवस्था की धुरी में उसकी भी उपस्थिति है। ऐसी कुछ नाउम्मीदियों के बीच भी यह उम्मीद बाकी है कि देश आगे बढ़ता रहेगा।
