पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुदुच्चेरी के लिए चुनावी गहमागहमी पहले ही शुरू हो गई थी। निर्वाचन आयोग ने इन चार राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश के लिए चुनावी तारीखों की घोषणा कर दी है। चार अप्रैल से शुरू होकर सोलह मई तक छह चरणों में मतदान संपन्न होगा। नतीजे उन्नीस मई को आएंगे। इस तरह पूरी चुनावी प्रक्रिया करीब डेढ़ महीने में पूरी होगी। अच्छा होता कि निर्वाचन को इतना ज्यादा न फैलाया जाता। यह सही है कि पश्चिम बंगाल और असम उन राज्यों में हैं जहां चुनाव निर्विघ्न संपन्न कराना ज्यादा चुनौतीपूर्ण रहा है। पर जब तमिलनाडु, केरल और पुदुच्चेरी के मतदान एक दिन में कराए जा सकते हैं, तो पश्चिम बंगाल में भी छह के बजाय अधिक से अधिक तीन या चार चरण में क्यों नहीं कराए जा सकते। चुनावी प्रक्रिया लंबी खिंचने से प्रशासनिक मशीनरी भी ज्यादा समय तक उसमें उलझी रहती है और चुनावी खर्च भी बढ़ता है।
बहरहाल, इन विधानसभा चुनावों की अहमियत क्षेत्रीय राजनीति के कोण से तो है ही, राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से भी है। केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के मद्देनजर देखें तो असम को छोड़ कर और कहीं उसका ज्यादा कुछ दांव पर नहीं लगा है। असम में वह 2001 से लगातार सत्तारूढ़ कांग्रेस के लिए चुनौती बन कर उभरी है। यहां सत्ता में आने की भाजपा की आस दो बातों पर टिकी है। एक तो यह कि लोकसभा चुनाव में उसे यहां की चौदह में से सात सीटें हासिल हुई थीं। फिर, उसने यहां असम गण परिषद और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट से गठजोड़ भी कर रखा है। पर अब भी असम में उसके सामने कई विषम प्रश्न हैं। गठजोड़ को लेकर कई सीटों पर भाजपा और अगप के भीतर नाराजगी है। फिर, राज्य में अल्पसंख्यक वोटों का खासा प्रतिशत है, जो परंपरागत रूप से भाजपा के खिलाफ रहा है। असम भाजपा के लिए इसलिए और भी अहम हो गया है क्योंकि दिल्ली और बिहार में वह हार चुकी है। इसके बाद अगले साल पंजाब और उत्तर प्रदेश का नंबर है जहां उसका असम से भी ज्यादा कुछ दांव पर होगा।
असम को छोड़ कर बाकी राज्यों में भाजपा की चुनावी कवायद फिलहाल इसी लिहाज से मायने रखती है कि वहां अपने पैर पसारने में उसे कितनी कामयाबी मिल पाई है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के सामने अपनी सत्ता बरकरार रखने की चुनौती है, तो वाम मोर्चे के सामने अपने पुराने गढ़ को वापस पाने की। कुछ लोगों का अनुमान है कि यहां कांग्रेस और वाम दल हाथ मिला सकते हैं। पर उनके औपचारिक रूप से ऐसा करने में केरल आड़े आता है जहां दोनों प्रतिद्वंद्वी हैं। इसलिए ज्यादा संभावना यही है कि बंगाल में कांग्रेस और वाम दल परदे के पीछे एक दूसरे को सहयोग करने की रणनीति अपनाएं। केरल में अमूमन हर बार सत्ता बदल जाती है। क्या यह परिपाटी कायम रहेगी, और इस वाम मोर्चे के हाथ में केरल की कमान आएगी? जो हो, यह जाहिर है कि इन चुनावों में कांग्रेस और वाम मोर्चे का ही सबसे ज्यादा दांव पर लगा है। कांग्रेस को अपनी दो राज्य सरकारें बचानी हैं, तो वाम मोर्चे को अपने दो गढ़ वापस पाने हैं। तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और द्रमुक पुराने प्रतिद्वंद्वी रहे हैं; एक के हाथ से सत्ता खिसकती है, तो दूसरे के हाथ में चली जाती है। इस बार द्रमुक का कांग्रेस से गठबंधन है, एमडीएमके के भी साथ आने की संभावना है। फिर भी, जब तक स्पष्ट सत्ता विरोधी रुझान न दिखे, द्रमुक की वापसी का अनुमान लगाना सही नहीं होगा।