राजनीति में दो विरोधी दलों का विचारधारा और मुद्दों के स्तर पर एक दूसरे के खिलाफ खड़े होना स्वाभाविक है। मगर वे भाषा के स्तर पर इस हद तक चले जाएं कि उससे उपजी कड़वाहट सामान्य व्यवहार और बोली तक को बुरी तरह प्रभावित करने लगे, तो यह निश्चित रूप से लोकतांत्रिक माहौल को भी बाधित करेगा। पिछले कुछ वर्षों से हमारे देश की राजनीति में ऐसा माहौल बन रहा है, जिसमें प्रतिद्वंद्वी दलों में मुद्दों पर उठी बात को उचित संदर्भ में देख-समझ कर एक परिपक्व राय या प्रतिक्रिया देने के बजाय दोनों पक्षों के समर्थक आपस में दुश्मन की तरह पेश आने लगते हैं।
ऐसे में लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने एक नई परिपाटी शुरू की है, जिसे कड़वाहट से भरी राजनीतिक दुनिया में एक नई बयार की तरह देखा जा सकता है। गौरतलब है कि अमेठी लोकसभा सीट पर चुनाव हारने के बाद से भाजपा नेता स्मृति ईरानी के लिए सोशल मीडिया पर कुछ अवांछित भाषा का प्रयोग हो रहा था। राहुल गांधी ने इसी संदर्भ में ‘एक्स’ पर लिखा कि जीवन में जीत और हार होती रहती है… मैं सभी से गुजारिश करता हूं कि वे स्मृति ईरानी या किसी अन्य नेता को लेकर अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करने से बचें।
जाहिर है, मुद्दा आधारित राजनीति के बजाय आरोप-प्रत्यारोपों में घुलती असहिष्णुता जब विषैली भाषा के रूप में सामने आने लगे और संवाद तक की गुंजाइश खत्म होने लगे तो ऐसे में अपने राजनीतिक विरोधी नेताओं के प्रति इस तरह की उदारता वक्त की जरूरत है। मगर राहुल गांधी की इस टिप्पणी को सकारात्मक संदर्भ में लेने के बजाय भाजपा के एक नेता की ओर से जैसी नकारात्मक प्रतिक्रिया आई, उसे सद्भाव के विरुद्ध ही माना जाएगा।
यह ध्यान रखने की जरूरत है कि शीर्ष नेताओं की भाषा, उनके विचार और व्यवहार आम जनता के लिए एक स्तर पर सामाजिक-राजनीतिक प्रशिक्षण का काम करते हैं। नेता जैसा विचार जाहिर करते हैं, उनके समर्थकों का मानस भी वैसा ही बनता है। इस लिहाज से अपने राजनीतिक प्रतिपक्षी नेताओं के लिए शालीन भाषा का प्रयोग करने की राहुल गांधी की सलाह सद्भाव आधारित राजनीति और लोकतांत्रिक माहौल को मजबूत करने की कोशिश है।