स्वच्छ भारत मिशन की सफलता को लेकर इसकी शुरुआत से ही संदेहों की गर्द उड़ाई जाती रही है। राहत की बात है कि इस गर्द से उबर कर देश के दस शहर स्वच्छता की वरीयता सूची में अपना नाम दर्ज कराने में कामयाब हुए हैं। इससे अन्य शहरों को भी स्वच्छता सूची में ऊपरी स्थान पाने की प्रेरणा मिलने की उम्मीद है।
गौरतलब है कि केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने राजग सरकार के महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम स्वच्छ भारत मिशन की प्रगति का जायजा लेते हुए देश के दस लाख से ज्यादा आबादी वाले तिहत्तर शहरों की सूची जारी की है जिसमें क्रमश: मैसूर, चंडीगढ़, तिरुचिरापल्ली, एनडीएमसी (दिल्ली), विशाखापट्टनम, सूरत, राजकोट, गंगटोक, पिंपरी-चिंचवाड़ और ग्रेटर मुंबई को दस सबसे साफ शहरों में शुमार किया गया है। इसके विपरीत कल्याण डोंबिवली, वाराणसी, जमशेदपुर, गाजियाबाद, रायपुर, मेरठ, पटना, इटानगर, आसनसोल और धनबाद दस सबसे गंदे शहर माने गए हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो अक्तूबर 2014 को स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी।इसकी प्रगति को परखने के लिए सरकारी एजेंसी ‘क्वालिटी काउंसिल आॅफ इंडिया’ की पच्चीस टीमों ने तिहत्तर शहरों के रेलवे स्टेशन, बाजारों, झुग्गी-झोंपड़ियों आदि बयालीस जगहों की सफाई का सर्वे करके यह सूची तैयार की है। इस सर्वे में शहरों के लिए बाकायदा स्वच्छता के पैमाने निर्धारित किए गए जिनमें सार्वजनिक और निजी शौचालय सुविधाएं, घरेलू तथा ठोस कचरे के निपटान, शहरों, बाजारों, नदी-नालों की सफाई वगैरह शामिल हैं।
ये पैमाने अपनी जगह सही हो सकते हैं, लेकिन असल सवाल है कि मुल्क के चुनिंदा शहरों का सर्वेक्षण करने से समूचे देश में साफ-सफाई की बाबत किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है? बासठ हजार करोड़ रुपए की इस दीर्घकालीन परियोजना की कामयाबी परखने के लिए चंद शहरों को कसौटी बनाया जाना देश की बदसूरत हकीकत से नजरें चुराना ही कहा जाएगा।
कचरे के गंधाते ढेरों, उफनते-बजबजाते सीवरों-गंदी नालियों से झांकती यह बदसूरत हकीकत देश के तमाम नगरों-महानगरों, गांवों-कस्बों तक फैली है, जहां न स्वच्छ परिवेश है न स्वच्छ पर्यावरण। अनियोजित शहरीकरण, बेलगाम बढ़ती आबादी, सीमित संसाधन और स्वच्छता के सरोकार की व्यापक जन-उपेक्षा ने इस हालत में कोढ़ में खाज का काम किया है। यह तथ्य भी निराश करने वाला है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डेढ़ साल पहले जब गांधी जयंती से राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन की शुरुआत की थी तो सरकार से लेकर स्थानीय निकायों, स्वयंसेवी संगठनों और कुछ हद तक आम जनसमुदाय ने भी उत्साह दिखाया था।
यह उत्साह झाड़ू लेकर नेताओं-अधिकारियों के साथ फोटो खिंचवाने तक सीमित होकर रह गया, किसी व्यापक अभियान या जन-सरोकार में परिणत नहीं हो सका। दूरदराज इलाकों की तो कौन कहे, राजधानी दिल्ली के लुटियन जोन या संभ्रांत कहे जाने वाले इलाकों को छोड़ दें तो इस समूचे महानगर में स्वच्छता की हालत हैरान करने वाली है। जिस यमुना की सफाई पर अब तक करोड़ों-अरबों रुपए बहाए जा चुके हैं, वह दिल्ली में घुसते ही गंदे नाले में तब्दील होने को अभिशप्त है। अन्य शहरों से गुजरती नदियों का भी कमोबेश यही हाल है। सरकार कहती है कि स्वच्छता मिशन को महज सरकारी प्रयासों या विभागों के बूते सफल नहीं बनाया जा सकता। उधर नागरिक समुदाय का मानना है कि साफ-सफाई सुनिश्चित करना मुख्यत: सरकार का दायित्व है। एक-दूसरे पर इस तरह दोषारोपण या अपेक्षाएं लादने से तो स्वच्छ भारत मिशन की कामयाबी संदिग्ध ही बनी रहेगी।