ईशान चौहान

हिंदुस्तान में औरतों की पहचान और हुकूक को लेकर काफी बातें की जाती हैं। आजादी के इतने वर्ष बीत चले हैं, लेकिन मसले पीछा नहीं छोड़ते। उनमें से कुछ तो हर दिन नजर आते हैं, यह याद दिलाते हुए कि अभी हमारा रास्ता बहुत लंबा है। लंबा है, सो तो है ही, लेकिन मुश्किल भी है। क्योंकि हमारा जो प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्हें समस्याओं की पहचान नहीं होती। अगर होती भी है, तो वे अन्य विचारों के सामने फीकी पड़ जाती हैं। इसके कई उदाहरण सामने आते हैं। उनमें से एक, जिसका सामना हम रोज करते हैं, विकास की इकहरी समझ। संपूर्ण विकास पर जोर न देते हुए, आमतौर पर हमारा ध्यान तारम्यहीन रूप से आर्थिक विकास पर केंद्रित होता है।

यही हाल औरतों और उनके विकास को लेकर है। एक के बाद एक ऐसे कानून या नीतियां लाई जाती हैं या ऐसी बातें होती हैं, जो मायूसी का सबब बनती हैं। हाल में तीन उदाहरण सामने आए। पहला, सीबीएसई के दसवीं बोर्ड के अंग्रेजी के अपठित गद्य में दिया गया सवाल यह दिखाता है कि राष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसे सवाल देने पर कोई रोक नहीं थी, जिसमें एक पितृसत्तात्मक समाज साफ दिखाई पड़े और यह संदेश पहुंचाए कि औरतों की स्वतंत्रता घरों में नहीं है। वह गद्यांश आगे यह भी कहता है कि एक आदर्श समाज में पत्नियां पति का हुक्म मानती हैं, पति को पुराने समय में दिए गए ऊंचे स्थान से अपदस्थ करके पत्नी ने अपने लिए ही मुश्किल खड़ी कर ली, क्योंकि घर में अनुशासन का जरिया वह खो बैठी।

दूसरा, एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और कर्नाटक विधानसभा सदस्य का बलात्कार संबंधी बयान। उस बात पर सभापति महोदय, मंजूरी की हंसी हंसते दिखाई पड़े। ट्विटर पर लिखी ‘माफी’ में सदस्य महोदय ने अपने इस कथन से ‘आफ द कफ’ यानी अनायास करार दिया और कहा कि वे आगे और ध्यान से बात करेंगे। पर सवाल है कि कब तक हिंदुस्तान का प्रातिनिधिक लोकतंत्र ऐसे बयानों के लिए अपने प्रतिनिधियों को क्षमा करता रहेगा? सदस्य महोदय अकलीयत के नहीं अकसरीयत के नुमाइंदें हैं- जिनकी ऐसी बातों के लिए ‘माफी’ समझ और फिर उससे पनपे अफसोस से नहीं, बल्कि एक राजनीतिक जरूरत से आती है। जो कानून बनाने वाले हैं, उनकी सोच उनके काम में झलकती है- तो फिर भले वे जनता की झिड़की के डर से बोलें नहीं, पर क्या इनके रहते असली बदलाव संभव है? ऐसे तमाम मसले हैं और वे कभी छू-मंतर नहीं होने वाले।

तीसरा, संसद में लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ा कर अठारह से इक्कीस करने का कानून लाया गया। इस तरह लड़कों और लड़कियों के लिए शादी की उम्र बराबर हो गई। इसके दो नजरियाती पहलू हैं। पहला, और जो आम है, वह यह कि यह महिला सशक्तिकरण की ओर एक अहम और आवश्यक कदम है, जो सराहना के योग्य है। दूसरा, जो इसके स्वरूप को अंदर से खोखला महसूस करता है। सवाल है कि उम्र बढ़ा देने से क्या समस्या हल हो जाएगी? सिर्फ इतने से औरतों से संबंधित मसले हल हो जाएंगे? मंटो ने अपने एक अफसाने में कहा है कि आजकल जिस तरह कानून को फरेब दिया जाता है… यहां एक कानून बनता है, उसका कुछ तोड़ निकाल लिया जाता है।

मंटो को खुदा को प्यारे हुए छह दहाइयां गुजर चुकी हैं। पर समस्या आज भी वहीं है। कानून बन जाना एक हिस्सा है, पर वह कानून बेकार है, जब तक उसके साथ उसे सशक्त करने के लिए लोगों को शिक्षित न किया जाए। मसलन, दहेज प्रतिषेध अधिनियम है तो 1961 से, लेकिन क्या दहेज की कुप्रथा पर विराम लगा? भारतीय दंड संहिता में भी इसके खिलाफ कानून है, फिर भी क्यों हमारा समाज इसे उखाड़ फेंकने में असमर्थ है? क्यों आज इन कानूनों के गलत इस्तेमाल की खबरें बढ़ती नजर आती हैं?

बिना शिक्षा और जागरूकता के यह कानून भी सीमित ही असर कर सकेगा। असली बदलाव अब भी अलभ्य साबित होगा। कुछ लोग इस कानून के खिलाफ हैं। पर यह भी एक सरलीकरण है। इसका विरोध या इस पर संदेह, सशक्तिकरण के खिलाफ नहीं, बल्कि इस कानून के प्रतिकूल असर को लेकर है। हमें निचले स्तर की औरत को, जो पितृसत्तात्मक समाज की जंजीरों में आज भी जकड़ी हुई है, अपने आप को ढूंढ़ने का, अपनी पहचान बनाने का रास्ता दिखाना है। बढ़ना तभी संभव होता है जब जड़ें मजबूत हों। इन तीनों उदाहरणों ने इस लक्ष्य प्राप्ति में अपनी-अपनी तरह से बाधा डाली है। वह बदलाव जो अब भी अलभ्य है, उसमें और हममें फासला बढ़ा दिया है। उन फासलों को कुरबतों में तब्दील करने के लिए कानूनों के साथ-साथ जनसाधारण के मानसिक-वैचारिक विकास को बढ़ावा देना होगा। अन्यथा बातें बातें ही बनी रह जाएंगी, और ये सारी बातें वैसी ही चलती रहेंगी, जैसी आज।