सुरेश चंद्र रोहरा
आपने खुले आसमान के नीचे सिनेमा का लुफ्त उठाया है? निस्संदेह आज की पीढ़ी ने यह नहीं किया होगा कभी। आज जहां मल्टीप्लेक्स बंद पड़े हैं, वहां मैं आज बचपन की स्मृतियों में उन दिनों का स्मरण करता हूं, जब पहली दफा सुना था कि आज सिनेमा मुफ्त में देखने को मिलेगा। बड़े भाई साहब ने बताया कि उस खास दिन थिएटर में मुफ्त में सिनेमा दिखाया जाता है। तब मेरी दूसरी कक्षा का पहला पंद्रह अगस्त, यानी स्वाधीनता दिवस का दिन था। उन्होंने बताया आजादी के आनंदोत्सव में हमारे कस्बे के थिएटर में फिल्म मुफ्त में देखने को मिल? सकती है। इसके पहले मैं परिजनों की गोद में बैठ कर कुछ फिल्में देख चुका था। जैसा कि उन दिनों रिवाज था फिल्मों के प्रति आकर्षण का, सो वह मुझमें भी था। बड़े भाई साहब के साथ कस्बे के थिएटर में मैं भी स्कूल के ढेर सारे बच्चों के साथ मुफ्त फिल्म देखने पहुंच गया। फिल्म का नाम था ‘राजहट’। यह सोहराब मोदी की फिल्म थी।
दरअसल, उन दोनों ऐसा ही चलन था। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर स्कूल के नौनिहालों के लिए थिएटर मालिक खुशी-खुशी दरवाजा खोल दिया करते थे। बाद में धीरे-धीरे यह बंद होता चला गया। मगर हमारा कस्बा कोयला खदानों के मध्य था, इसलिए आसपास के कोलियरी क्षेत्र में खुले आकाश के नीचे पर्दे पर मुफ्त फिल्म देखने का अवसर मुझे और जाने कितने लोगों को मिलता रहा। उन दिनों सिनेमा ही एकमात्र मनोरंजन हुआ करता था और उसके प्रति लोगों में काफी आकर्षण था। हमारा परिवार पुरानी बस्ती में रहता था। कस्बे से छह सात किलोमीटर दूर कोलियरी थी, जहां अक्सर सिनेमा खुले आकाश के नीचे मुफ्त में दिखाया जाता था। यह उन दिनों की एक रिवायत थी। अपने श्रमिकों या मजदूरों के लिए कोलियरी प्रबंधन इसकी व्यवस्था कल्याण कोष से करता था।
बचपन की वे खुशियां इतने दीर्घ वितान को समेटे हुए थी, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। हमारे कस्बे में न कोई बाग-बगीचा था, न कोई आसपास पर्यटन स्थल। ऐसे में खुले आसमान के नीचे के थिएटर ही हमारा संसार थे। महीने में दो फिल्में इन खुले थिएटर में सबके लिए चलाई जाती थी, जिसका लोग दिन गिनते हुए इंतजार करते थे। वे फिल्में मनोरंजन का एकमात्र साधन थीं और रूमानियत-सी भरी कल्पना लोक का ऐसे दीदार कराती कि हम बच्चे खासतौर पर चहक उठते थे। मैंने तो कम फिल्में देखीं, मगर जो बातें मैंने सुनी और देखीं, वह यही बयान करती हैं कि इन फिल्मों के लिए लोगों में एक अलग ही जुनून हुआ करता था। फिल्म शुरू होने से पहले ही लोग घंटों पहले आकर बारदाने या कोई कपड़ा लाकर बिछा देते थे और फिल्म शुरू होने का बेताबी से इंतजार करते। यह दृश्य कुछ-कुछ राज कपूर और वहीदा रहमान की ‘तीसरी कसम’ फिल्म के दृश्यों से मिलता-जुलता याद आता है। अंतर सिर्फ इतना है कि फिल्म में नौटंकी और गीत संगीत है, जबकि हमारी जिंदगी में यह स्थान फिल्में लिया करती थीं।
दरअसल, सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य ने अपने सामुदायिक विकास के क्रम में खुद को सहज बनाए रखने के लिए तरह-तरह के तरीके ईजाद किए थे। जब सिनेमा नहीं था, तब नाटक-नौटंकी थी। उससे पहले आपसी चुहल, पर्व-त्योहारों के दौरान जश्न मनाने के तौर-तरीके थे। मेलों में झूले और मनोरंजन के दूसरे तरीके के साथ-साथ कुश्ती, लाठी या दूसरे खेलों के दौरान जमे मजमे के भीतर देखने का उल्लास लोगों को न जाने कितने-कितने बोझ और तनाव से राहत देता था। लोकगीतों की रचना और सुर की खोज लोगों ने अपने स्तर पर ही की थी, जिसमें आसपास की जिंदगी, उसकी खुशी और दुख की छाया होती थी। कई बार कुछ गीतों की तान तो ऐसी होती थी कि जिस भाव को लेकर गाने वाले गाते थे, वह भाव देखने-सुनने वाले के भीतर भी उमड़ पड़ता था। मसलन, गांव-देहात में सारंगी पर बिरहा गाते ‘जोगी’ को सुन कर महिलाएं कई बार रो भी पड़ती थीं। खासतौर पर वे महिलाएं, जिनके पति परदेस कमाने गए होते थे और वे लंबे समय से उनकी वापसी का इंतजार कर रही होती थीं।
ऐसे मौके साधारण लोगों के लिए मानसिक राहत के टुकड़े होते थे। शादी-ब्याह या अन्य त्योहारों के मौके पर लोकगाथाओं पर आधारित नाटक आयोजित होते थे, उसे देखने लोग कई-कई मील से चले आते थे और रात-रात भर देखते थे। उसी का विकसित रूप खुले आसमान के नीचे पर्दा लगा कर सिनेमा के प्रदर्शन को कहा जा सकता है। अब वे दिन तो जा चुके और लोग अपने हाथ में ही फिल्में देखते हैं। जब चाहे और जितनी, हाथ में सिर्फ एक स्मार्टफोन और अमेजन या नेटफ्लिक्स जैसी कंपनियों की ग्राहकी होनी चाहिए। सोचता हूं, इस पीढ़ी को क्या उन दिनों के जीवन और उसमें मनोरंजन के टुकड़े तलाशने के तौर-तरीकों के बारे में बताया जाए, तो क्या वे सहज विश्वास करेंगे! आज की पीढ़ी को तो विकास की प्रक्रिया तक से अनजान रखा जा रहा है, वे क्या महसूस कर पाएंगे उन अहसासों को..!