तेजी ईशा

हरियाणा के हिसार में एक पंचायत के फैसले के तहत सास-ससुर की सेवा करने वाली बहुओं को सम्मानित किया जाएगा। ऐसी बहुओं को हर साल सम्मानस्वरूप कुछ रुपए भी दिए जाएंगे। पहली नजर में यह फैसला सही और एक बेहतर समाज की तरफ उठाया गया शानदार-जानदार कदम जान पड़ता है। लेकिन थोड़ा ठहर कर सोचें, गहराई में पैठें तो कई समस्याएं भी दिखती हैं। सबसे पहली दिक्कत यह है कि पंचायत ने अपने मां-बाप की सेवा करने वाले बेटों को सम्मानित करने का फैसला क्यों नहीं किया! क्यों नहीं यह कहा गया कि जो लड़के अपने मां-बाप और पत्नी की ठीक से देखभाल करेंगे, उन्हें सम्मान देंगे, घर में क्लेश नहीं करेंगे, अपने घर की औरतों के साथ-साथ दूसरी औरतों और लड़कियों को भी इंसान समझेंगे,उन्हें सम्मानित किया जाएगा? सही से सेवा करने का सारा भार बहुओं पर क्यों डाला गया? क्यों बहुओं के बीच सास-ससुर की सेवा की प्रतियोगिता आयोजित की गई?

हम यहां पुरुष बेहतर या महिला, जैसी कोई बहस शुरू नहीं करना चाहते। यह बहस कई सालों से चल रहा है। अपने सवालों के जवाब मुझे पिछले दिनों ही मिले। किसी दोस्त या इंसान से नहीं, एक किताब- ‘विवाह संस्कार, स्वरूप एवं विकास’ से। इस किताब को तेलुगु के बड़े लेखक तापी धर्माराव ने लिखा है। उन्होंने अपने ज्ञान, देश-दुनिया में विवाह के प्रकार और विवाह के आसपास रचे-बसे किस्से, कहानियों के आधार पर एक बात कही है कि विवाह संस्था की नींव ही साथ मिलकर काम करने के भाव पर आधारित है। इसके अलावा, इस व्यवस्था की कोई जरूरत नहीं थी। बच्चे पैदा करने या सेक्स करने के लिए भी विवाह की जरूरत नहीं थी। आदिकाल में ये दोनों काम इंसान आसानी से कर लेते थे। ठीक वैसे ही, जैसे आज भी बाकी जीव-जगत में होता है।

ऐसी ही व्यवस्था इंसानों के लिए भी थी। लेकिन जब इंसान चलते रहने की जगह ठहरने लगे, खेती के लिए जंगल साफ किए जाने लगे, काम अधिक हो गया तो उसे तेजी से करने के लिए एक सहयोगी की जरूरत महसूस हुई। इसी जरूरत से विवाह का जन्म हुआ। पूरी किताब में दुनिया भर में प्रचलित विवाह के कई तरीकों के बारे में बताया गया है। जिस एक तर्क को बार-बार खंडित करने की कोशिश हुई है, वह यह कि विवाह का प्रेम से कोई लेना-देना है। इस विचार से गुजरते हुए हम कई बार अंदर से घायल होते हैं कि अभी थोड़ी देर पहले ही हमने अपने साथी को ‘आई लव यू’ वाला संदेश भेजा है। हम प्रेम को सामने रखकर ही शादी के लिए बारे में सोच रहे होते हैं।

प्रेम विवाह तो आजकल वैसे भी चलन में है। लेकिन इस किताब में प्रेम और प्रेम की वजह से शादी के मसले पर लिखा गया है कि ‘आजकल हम बहुत सभ्य बन गए हैं। हमने प्रेम नामक भावना को बहुत स्थान दे दिया है। प्रेम है, ऐसा महसूस करते हुए जीना एक प्रथा बन गई है। यह भावना हम नहीं दिखाएं तो हम दोषी बन जाते हैं। यह एक महापाप है। इसी प्रथा की वजह से हम एक दूसरे पर नकली प्रेमवर्षा कर रहे हैं। प्रेम नामक शब्द को विवाह से नहीं जोड़ा जा सकता है। जोड़ी बनाना विवाह संस्कार कभी नहीं हो सकता है। संस्थान भी केवल महिला को बांध सकता है, पुरुष को नहीं।’ इसी किताब में लेखक विवाह से पहले की दुनिया का जिक्र करते हैं। वे बताते हैं कि जैसे प्यास लगने पर तालाब जाया जाता था, भूख लगने पर शिकार किया जाता था या पेड़ से फल तोड़े जाते थे, वैसे ही जरूरत महसूस होने पर पुरुष-महिला जोड़ा बनाते थे।

अब आते हैं मुख्य बात पर। इस किताब के मुताबिक विवाह की व्यवस्था दो वजहों से आई। पहली, कई मर्दों के साथ जोड़ा बनाने से औरतों को रोकने के लिए। उससे भी बड़ी वजह यह थी कि काम के लिए दो की जगह चार हाथ हो जाएं। हिसार की पंचायत ने जो फैसला लिया है, वह उसी मानसिकता को दिखाता है। यानी कि आपकी शादी हुई है, आप फलाना घर की बहू हैं तो अब उस घर की जिम्मेदारी आपकी। उस घर के माल-मवेशी आपके जिम्मे। उस घर का पुरुष आपका। और घर के बुजुर्ग भी आप ही संभालिए, क्योंकि आपसे किसी ने विवाह, प्रेम, आपकी सुंदरता या आपके ज्ञान से नहीं किया है। केवल शारीरिक संबंध के लिए भी नहीं किया है। विवाह किया गया है, ताकि आप काम संभाल सकें।

ऐसे में मेरी सलाह लड़कियों को यही होगी कि अगर विवाह करने का मन हो, तो किसी ऐसे से करना चाहिए, जो उनके साथ मिलकर काम कर सके। किसी ऐसे से नहीं, जो प्रेम वाली बातें तो उनके साथ खूब करे, लेकिन अपने मां-बाप की सेवा सहित दूसरे काम पत्नी के जिम्मे पकड़ा के फारिग हो जाए। खयाल रहे कि विवाह के लिए प्रेम बाद के वक्त का चलन है। जरूरत के लिए विवाह ही सत्य है।