राजेंद्र वामन काटदरे

कवि हरिवंशराय बच्चन ने लिखा था कि ‘इस पार प्रिये मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा’, यानी मरने के बाद क्या होगा, किसने देखा, किसने जाना। हालांकि लगभग सभी धर्मग्रंथों में लिखा है कि मरने का बाद पाप-पुण्य का हिसाब होगा, सच-झूठ राम जाने। पर एक शेर यहां प्रासंगिक है कि ‘यहां वो ले दे हुई आकर के इलाही तौबा, हम तो समझे थे कि महशर में तमाशा होगा’। एक और मजेदार शेर है- ‘चंद तस्वीरें बुता, चंद हसीनों के खुतूत, बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला’। यानी मरने वाले के घर से मात्र कुछ सुंदर महिलाओं की तस्वीरें और पत्र ही दौलत या जागीर के रूप बरामद हुए। एक और किसी शायर ने खूब लिखा है कि ‘अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे, मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे’। जब मरने की बात चल रही है तो एक और शेर है कि ‘लाई हयात आए, कजा ले चली चले, अपनी खुशी न आए न अपनी खुशी चले’।

कुछ लोगों का मानना है कि कल की चिंता क्यों करें या मरने का बाद जो होता हो, हो जाए, क्योंकि किसी ने कहा भी है कि आप मरे जग डूबा, यानी अपने मरने के बाद जग डूब भी जाए तो क्या! पहले श्मशान वैराग्य की बात की जाती थी, क्योंकि श्मशान में किसी आप्त-स्वकीय को ले जाते हुए ही सही, आदमी कुछ समय के लिए समझ जाता है कि अंतिम सत्य यही है। मगर अब श्मशान में भी मोबाइल साथ में होते हैं और उधर चिता को अग्नि दी जा रही होती है और इधर कोई बंदा शेयर खरीद-बिक्री में लगा रहता है। इसलिए अब श्मशान वैराग्य जैसी भी कोई बात नहीं रही।

किसी समय कहा जाता था कि किसी के मरने का बाद उसके बारे में बुरा नहीं कहना चाहिए। किसी के मरने के बाद जब शोकसभा होती थी, तब लोग मरने वाले की बुरी बातों को भूल कर उसकी अच्छी बातों को ही याद करते थे, लेकिन आजकल एक नया चलन है कि मरने के बाद भी मरने वाले की आलोचना का अभियान चलाया जाए, उसके बुरे कामों को जोर देकर बताया जाए। अब किसी ख्यात, विख्यात या कुख्यात के मरने के बाद विपक्षी उसकी बखिया उधेड़ने में लग जाते हैं। यानी इधर चिता ठंडी भी नहीं हुई कि उधर मृतक को कोसना शुरू कि ऐसा नालायक था या थी कि धरती का बोझ कम हुआ। फिर ये किसी एक दल की बात नहीं, राजनीतिक दल-दल की बात है। एक पक्ष यह कहता है कि यह तो सही है कि व्यक्ति की मौत हो गई, लेकिन उसने जीते-जी जो किया, उसे कैसे भुला दिया जाए और क्या-क्या भुला दिया जाए!

कई बार फेसबुक या वाट्सऐप की किसी पोस्ट को देख कर बेचारा आम आदमी समझ नहीं पाता कि यह हो क्या रहा है। यानी कल तक जिसे हम सुविख्यात कलाकार समझते थे, उसके मरने के बाद आज पता चला कि वह तो पड़ोसी मुल्क का जासूस था या कि जिस व्यक्ति को हम निष्पक्ष समझते थे, वह तो किसी एजंडे के तहत काम कर रहा था। अब टीवी के समाचार चैनल भी दल-दल के हो गए हैं। किसी चैनल विशेष पर मृतक की तारीफों के पुल बांधे जा रहे होते हैं, तो उसी समय कोई और चैनल उसी व्यक्ति विशेष के बारे में जहर उगल रहा होता है। इसलिए मरने के बाद क्या होगा, इसकी चिंता क्यों की जाए! अपने स्तर पर सद्कार्य करें और करते ही रहें।

यहां संदर्भ के मुताबिक एक लघुकथा याद आ रही है। उसमें यह दर्ज है कि गली में दूध-घी का व्यापार करने वाले मेवालाल जी का देहांत हुआ। बच्चे छोटे थे, इसलिए उठावने के बाद मेवालाल जी की पत्नी को दुकान संभालने आना पड़ा। लेन-देन कहीं लिखा हुआ नहीं था, इसलिए वहां के काम करने वाले अन्य सहयोगी जो याद कर बताते थे, उसी पर व्यवहार करना पड़ रहा था। एक शाम रवि बाबू नामक व्यक्ति दुकान पर गए तो सांत्वना देकर पिछले माह का दूध का बाकी पैसा चुका आए। जब यह बात उनके मित्र सुशील को पता चली तो बोले कि यार तुम भी गजब हो! क्या जरूरत थी पैसा देने की। मैं भी कल गया था दुकान पर और मैंने कहा कि जिस दिन मेवालाल का निधन हुआ, उसके पहले दिन ही तो बिल चुका गया था। यार… बहुत पानी मिलाते हैं ये दूध में। इसलिए एकाध महीना इनसे मुफ्त में दूध ले भी लिया तो क्या! फिर मेवालाल तो गुजर गए! इस पर रवि बाबू ने थोड़ी कड़वाहट से कहा- ‘मेवालाल की मौत हुई है, मेरा जमीर थोड़े ही मरा है!’