कहा जा रहा है कि ‘महाराष्ट्र बंद’ सफल रहा। मगर सच क्या है, सबने देखा। भारत के राज्यों में बंद के दौरान की स्थिति समान रहती है। केवल कारण और राज्य भिन्न होते हैं। बंद से लोगों को काफी परेशानी होती है। यह सामान्य बिंदु है। महाराष्ट्र बंद के समय व्यापारियों को कैसे दुकानें बंद करने को कहा जा रहा था, सबने देखा। कहा गया कि ‘हमारे नेता और कार्यकर्ता किसी को बंद में शामिल होने को बाध्य नहीं करेंगे।’ मगर यह सच बंद की घोषणा करने वालों को अच्छी तरह पता होगा कि ऐसा करेंगे तो बंद को कोई गंभीरता से नहीं लेगा और हम मुंह के बल गिर जाएंगे। आखिर यही हुआ। सत्ता पक्ष के नेता, कार्यकर्ता गलत तरीके से दुकानदारों को दुकानें बंद करने के लिए कह रहे थे। ये कैसे जनप्रतिनिधि हैं?
पेट भरने के लिए मेहनत करने वालों को रोकना जनप्रतिनिधि का काम तो नहीं। कार्यकर्ताओं के डर से दुकानदार दुकानें बंद कर रहे थे। साथ ही, हम इन लोगों की नजर में क्यों आएं, ऐसा सोच कर लोगों ने घरों में ही रहना पसंद किया। मुंबई की सार्वजनिक परिवहन सेवा ‘बेस्ट’ की बसों के शीशे तोड़ना, रिक्शा चालकों को पीटना, यह कैसा विरोध है। जनता हमेशा किसानों के साथ है, राजनेताओं को इसका पाठ नहीं पढ़ाना चाहिए। चुनाव के वक्त यही नेता और कार्यकर्ता लोगों को दीदी-दादा, काका-मामा, दादी, मौसी बुलाते और लोगों से वोट की अपील करते हैं। फिर यही लोग बंद के वक्त लोगों को धमकाते हैं। यही इनका असली चेहरा है। क्या यही लोकतंत्र है? लोकतंत्र के किस ढांचे में ऐसी जबर्दस्ती आती है? जनप्रतिनिधि चाहे किसी भी राजनीतिक दल के हों, उन्हें इस तरह आक्रामक नहीं होना चाहिए।
’जयेश राणे, मुंबई
नापाक इरादे
‘चोरी और सीनाजोरी’ का भद्दा उदाहरण पेश करने वाला चीन जैसा दूसरा कोई राष्ट्र नहीं हो सकता। पहले ही हांगकांग में लोकतंत्र की हत्या कर उसकी आजादी को छीन चुका है, अब वह ताइवान में लोकतंत्र का गला घोंटने और आजादी छीनने को आतुर है। वह पड़ोसियों को अपने विस्तारवादी मंसूबे पूरा करने के लिए तरह तरह के दंश दे रहा है। उसके नापाक इरादों को चुनौती देने का काम न केवल भारत ने किया है, बल्कि ताइवान जैसा छोटा देश भी उसकी नाक में मिर्ची भरने से नहीं चूक रहा। लोकतंत्र, आजादी तथा मानवाधिकार के समर्थक सभी देश और संयुक्त राष्ट्र को ताइवान, हांगकांग जैसे देशों की स्वतंत्रता, संप्रभुता और लोकतंत्र को बरकरार रखने के लिए चीन को र्इंट का जवाब पत्थर से देना होगा।
’हेमा हरि उपाध्याय, उज्जैन