बीते दिनों प्रधान न्यायाधीश ने अफसरशाही को लेकर चिंता व्यक्त की। उनका इशारा शीर्ष स्तर के अधिकारियों के व्यवहार को लेकर था। प्रधान न्यायाधीश का मानना है कि कुछ अधिकारी सत्ताधारी दल की ओर झुकाव रखते हैं और उसको खुश करने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं। जब सत्ता बदलती है तो फिर इनके विरुद्ध कार्रवाई की जाती है। यह एक नया चलन है, जो देश समाज लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है।

देश में यह पहला मामला नहीं है, जब लोक सेवकों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा है। इससे पहले भी इस तरह के मामले सामने आते रहे हैं। अभी कुछ महीने पहले ही अगरतला के जिलाधिकारी ने एक शादी समारोह में जाकर पंडित से हाथापाई और वहां मौजूद लोगों से अभद्र व्यवहार किया। हाल ही में हरियाणा में एक एसडीएम पुलिस कर्मियों को यह आदेश देते नजर आए कि जो भी किसान आगे बढ़े, उसका सिर फोड़ दो। कुछ ऐसा ही मामला उत्तर प्रदेश के गोरखपुर का है, जहां पुलिस वालों ने एक निर्दोष व्यापारी की निर्मम पिटाई की, जिससे उसकी मौत हो गई।

इन घटनाओं से मालूम होता है कि हमारे लोक सेवक किस तरह अपनी नैतिकता के साथ इतनी जल्दी समझौता कर लेते हैं। ध्यान देना होगा कि ऐसे क्या कारण हैं कि देश में लगातार ऐसे मामले देखने को मिलते हैं। पहला कारण है, लोक सेवकों को असीम शक्तियां और जरूरत से ज्यादा संरक्षण, जिसके चलते वे अपने पद का दुरुपयोग करते हैं। इसके अलावा, इन पर कार्रवाई करना जटिल होता है। दूसरा कारण है, इन सेवाओं में राजनीतिक हस्तक्षेप लगातार बढ़ना, जिसके चलते कुछ लोक सेवकों की तटस्थता प्रभावित हो रही है। तीसरा कारण है, पूर्व में लोक सेवाओं के ढांचे में सुधार करने के लिए बनाई गई समितियों और आयोगों की सिफारिशों को प्रभावी ढंग से लागू न करना। चौथा कारण है, दोषपूर्ण चयन प्रक्रिया। पांचवां कारण है, लोक सेवकों में राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का पैदा होना।

इसी कारण ये लोक सेवक किसी विशेष राजनीतिक दल के प्रति उदार भाव रखते हैं, ताकि मलाईदार पदों पर आसीन रहें और सेवानिवृत्ति के बाद इन दलों के माध्यम से संसद या विधानसभा में प्रवेश कर सकें। इसलिए अब समय की मांग है कि केंद्र और राज्य सरकार लोक सेवाओं में सुधार के लिए गंभीरता से विचार करें। अगर भारत को विश्व पटल पर सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक विकास करना है, लोकतंत्र के मूल्यों में जनता का विश्वास बनाए रखना है, तो इसके लिए जरूरी है कि हमारी लोक सेवाएं और लोक सेवक बेहतर से बेहतर हों।
’सौरव बुंदेला, भोपाल

सोशल मीडिया की गुलामी

सोशल मीडिया हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनता गया है। कुछ घंटों के लिए वाट्सएप, फेसबुक और इंस्टाग्राम की सेवाओं में तकनीकी खराबी आने से ऐसा लगा कि ये मंच हमारे लिए आॅक्सीजन से भी ज्यादा आवश्यक हैं। सोशल मीडिया से सबसे ज्यादा प्रभावित युवा वर्ग है, लेकिन इसके जाल में बच्चे और बूढ़े भी फंसे हुए नजर आते हैं। सोशल मीडिया के कारण व्यक्ति अपने परिवार के साथ होकर भी नहीं होता है। इससे पारिवारिक वातावरण बिगड़ और घरेलू कलह बढ़ रहा है।

कुछ ही घंटों के व्यवधान से सोशल मीडिया उपभोक्त व्याकुल नजर आए और देखते ही देखते ट्विटर पर लाखों ट्वीट किए गए। इससे लगता है कि सोशल मीडिया से दूर रहना आज की पीढ़ी के लिए कितना दूभर है। सोशल मीडिया की लत ऐसी लग चुकी है कि हम सोशल मीडिया को नहीं, बल्कि सोशल मीडिया हमें इस्तेमाल कर रहा है।

वहीं दूसरी तरफ कोरोना महामारी के दौरान सोशल मीडिया हमारे जीवन के लिए क्रांतिकारी साबित हुआ। बंदी में स्कूल, कॉलेज और आॅफिस बंद होने के बाद सारे काम और पढ़ाई मोबाइल और लैपटॉप के माध्यम से घर पर ही होने लगे थे, जिसमें सोशल मीडिया ने सकारात्मक भूमिका निभाई थी। पर सोशल मीडिया की अधिक लत समाज और आने वाली पीढ़ियों के लिए चिंता का विषय है।
’जिशान चिश्ती, फतेहपुर, उत्तर प्रदेश