आजकल हर व्यक्ति खुद में व्यस्त है। किसी से किसी को मिलने का वक्त नहीं। बात करने का वक्त नहीं। सुबह से शाम तक का वक्त अफरा-तफरी में बीत रहा है। न पति को पत्नी के लिए वक्त है, न पत्नी को पति के लिए। बच्चों को अभिभावक के होने या न होने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। व्यस्त जीवनचर्या का बड़ा हिस्सा मोबाइल निगल जा रहा है।
जरूरी कामों को छोड़ कर भी नजरें मोबाइल के स्क्रीन पर टिकी रहती हैं। लोग स्क्रीन पर घंटों बहसें या वीडियो देख कर बिताते हैं। लेकिन घर में आए अखबार को नजर भर देखना भी गवारा नहीं होता हैं, क्योंकि किसी के पास अखबार या अन्य किताबें पढ़ने को वक्त नहीं हैं। बच्चों की जीवनशैली भी कुछ इस तरह की ही बन गई है। वे स्कूल से आते ही सीधा मोबाइल ढूंढ़ते हैं। इसका एक यह भी कारण हैं की बच्चों की आधी से ज्यादा पढ़ाई उस स्क्रीन पर ही होती है।
बच्चों को इसका नुकसान उठाना पड़ रहा। उनके शरीर में मोटापा बढ़ता जा रहा है। आंखों की रोशनी कम होती जा रही है। उनके भीतर अवसाद, एंक्जाइटी, मानसिक परेशानियां जैसी बीमारियां बढ़ती जा रही हैं। ये बड़ी समस्याएं हैं। गौर किया जा सकता है कि बच्चों से मोबाइल छीनने पर वे घायल जानवर के जैसे वार कर देने की तरह की प्रतिक्रिया देते हैं।
यह दशा दो से पांच साल के बच्चों में भी कुछ ज्यादा पाई जाने लगी है। इनमें कहीं न कहीं अभिभावक का ही हाथ होता है। वे घर से बाहर जाने या नई-नई गतिविधियां कराने के बजाय उन्हें मोबाइल में खेलने या वीडियो दिखाने की आदत डाल देते हैं। बच्चे भी इनके आदी हो जाते हैं। जबकि मोबाइल फोन में हानिकारक विकिरण या रेडियशन होते है, जो आंखों और शरीर के दूसरे हिस्सों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं।
इसका असर लोगों के दिमाग पर होता है। सिर-दर्द बना रहता है। इससे मांसपेशियों में काफी दर्द, कई तरह की बीमारियां हौले-हौले ग्रसित कर जाती हैं। पूरे दिन की थकान और सिर दर्द से खीझे लोग एक दूसरे को सुनने-समझने के बदले झिड़कते रहते हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चों में घंटों-घंटों बैठ कर अध्ययन करने की आदत होनी चाहिए। कुल मिलाकर स्क्रीन से घिरी जिंदगी इतनी बंध चुकी हैं जो आसपास का दुख-सुख या कैसी भी स्थिति हो, उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा हैं। मोबाइल जीवन का एक अंग बन चुका है। दुनिया मोबाइल में ही सिमट कर रह गई हैं। हम सब मोबाइल के कंधे में सिमट गए हैं। जीवन की संपूर्णता से लेकर सामाजिकता और व्यक्तिगत स्वास्थ्य तक के लिए यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है।
रानी प्रियंका वल्लरी, बहादुरगढ़, हरियाणा।
आजादी और लोकतंत्र
एक समय अंग्रेजों ने जो मजाक उड़ाया था, उसका अभिप्राय शायद यह था कि भारतीय स्वाधीनता को पचा नहीं पाएंगे। तब हम भारतीय उन अंग्रेजों का उपहास उड़ाते थे। लेकिन कभी यह नहीं सोचते कि वे अपनी बात संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप के संदर्भ में कह रहे थे। भारतीय उपमहाद्वीप में आज लोकतंत्र की क्या स्थिति है? पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की गिरफ्तारी होते ही वहां दंगा भड़क जाता है, जबकि खाने-पीने की चीजों की महंगाई और किल्लत को लेकर आम पाकिस्तानी अवाम पहले से ही तबाह है। आखिर पाकिस्तान हो या श्रीलंका। हालात लगभग एक जैसे क्यों उत्पन्न हुए?
उन वजहों को टटोलने से जो बातें उभर कर सामने आती हैं, उससे यही अंदाजा लगता है कि हम उन बातों को ज्यादा तरजीह तवज्जो देते हैं जो मसला निहायत व्यक्तिगत होना चाहिए था। वह है आस्था का विषय। अब जब आस्था की बात होती है तो फिर हम संकुचित हो जाते हैं। धर्म से इसका मतलब निकालने लगते हैं, जबकि व्यापक संदर्भ में किसी अपने प्रिय के प्रति हद से ज्यादा आस्था अच्छी नहीं।
जैसे भाषा, क्षेत्र, जाति, रीति-रिवाज, परंपरा, धर्म आदि। दूसरा जो अप्रिय है, उसका अस्तित्व हम नहीं स्वीकारेंगे। जहां ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दी जाएगी, वहां जनमानस के हालात वैसे होंगे, जैसे कुएं में भांग या यों कहें कि कोई नशीला पदार्थ पड़ा हो। भला हम वहां लोकतंत्र की सफलता की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
मुकेश कुमार मनन, पटना।
आम या खास
जिस शहर में हजारों लोगों के पास रहने को घर नहीं हो और वे अपने परिवार सहित कहीं पानी मिल जाने पर सड़क पर ही नहाते धोते हों, सड़क पर ही खाते-पीते हों और सड़कों पर ही सोते हों। जिस शहर में हजारों लोग ऐसे हों, जिन्हें काम तो काम, भीख नहीं मिले तो उनका पेट न भरे, उस शहर के शासक केवल अपने घर के सौंदर्यीकरण पर करोड़ों रुपए खर्च कर दें, तो यह शर्मनाक है।
वे शासक जो कुछ साल पहले तक साधारण से कपड़े पहनते थे, साधारण-सी कार में घूमते थे, खुद को आम आदमी कहते थे, अपनी राजनीतिक पार्टी का नाम भी ‘आम आदमी’ के नाम पर रखा था, वे जो राजनीति, शहर की सूरत और देश को बदलने की कसमें खाते थे, वे स्वयं इतनी जल्दी बदल जाएंगे, इस बात का किसी को भी अंदाजा नहीं था।
आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी से खास आदमी बनने का सफर बहुत जल्दी तय किया। जब उनका राजनीतिक सफर शुरू हुआ तो लोगों को यह लगता था कि वे अलग तरह की राजनीति करेंगे, क्योंकि वे भावुक इंसान हैं, लोगों के दुख-दर्द को समझते हैं। लेकिन वे एक आम आदमी से कितनी जल्दी एक नेता बन गए। बात-बात पर राजघाट जाकर गांधीजी की समाधि पर माथा टेकने वाले, अन्ना हजारे को अपना गुरु मानने वाले केजरीवाल ने उनसे क्या सीखा?
अपने निजी पैसों से कोई भी चाहे कैसा भी जीवन जीए, शायद कोई सवाल नहीं उठाएगा लेकिन सरकारी पैसा खर्च करके किसी भी नेता को फिजूलखर्ची करने का कोई हक नहीं है। फिर भी अगर किसी नेता को लगता है कि मुख्यमंत्री होने के नाते उसे यह सब मिलना चाहिए तो एक बार उनको जाकर उन रैन बसेरों में दो-चार दिन बिताना चाहिए जो सरकार द्वारा चलाए जाते हैं।
वहां जाकर वे पाएंगे कि किस तरह से एक इंसान कीड़े-मकोड़े की तरह रहता है। वक्त की यह मांग है कि पहले दिल्ली शहर में रहने वाले हर व्यक्ति को सम्मानजनक जीवन दिया जाए, फिर उसके बाद सुख-सुविधाओं की बात की जाए।
चरनजीत अरोड़ा, नरेला, दिल्ली।